सप्ताह की कविता में पढ़िए तसलीमा नसरीन को
मेरी बड़ी इच्छा होती है लड़का खरीदने की
उन्हें खरीदकर, पूरी तरह रौंदकर सिकुड़े अंडकोश
पर जोर से लात मारकर कहूँ
भाग स्साले!
इन पंक्तियों में उबलती घृणा सदियों से सताई स्त्री की पीड़ा की घनीभूत अभिव्यक्ति है। इन पंक्तियों में स्त्रियों द्वारा पुरुषों की ही भांति अत्याचार करने की ललक की मानसिक अभिव्यक्ति है, पर यह तसलीमा का मूल स्वर नहीं है। इससे अलग तसलीमा एक सहज मनुष्य की तरह प्रेम और सौंदर्य की भाषा भी लिखती हैं- 'मेरे अन्तर के घर में ही बजता है एक अदीठ तानपूरा...' स्त्री की मर्यादा की लड़ाई में जब तसलीमा थक जाती हैं, अकेली हो जाती हैं तब भी अगर वह टूटती नहीं हैं तो इसलिए कि उनके अंतर में बजता रहता है एक अदृश्य तानपूरा, एक उम्मीद वहाँ बैठी रहती है -
सुबह सवेरे
मैं बटोरने निकली थी घास-पात
और मेरी टोकरी भर गई फूलों से
इतनी तो चाह मेरी नहीं थी! - कुमार मुकुल
चरित्र...
तुम लड़की हो,
यह अच्छी तरह याद रखना
तुम जब घर की चौखट लांघोगी
लोग तुम्हें टेढ़ी नजरों से देखेंगे।
तुम जब गली से होकर जाओगी
लोग तुम्हारा पीछा करेंगे, सिटी बजाएंगे।
तुम जब गली पार कर मुख्य सड़क पर पहुंचोगी
लोग तुम्हें चरित्रहीन कहकर गालियां देंगे
तुम व्यर्थ होओगी
अगर पीछे लौ गी
वरना जैसे जा रही हो, जाओ।
जिंदा रहती हूं...
आदमी का चरित्र ही ऐसा है
बैठो तो कहेगा - नहीं बैठो मत,
खड़े होओ तो कहेगा, क्या बात हुई, चलो भी और चलो तो कहेगा छि: बैठो!
सोने पर भी टोकेगा -चलो, उठो
न सोने पर भी चैन नहीं , थोड़ा तो सोएगी!
उठक- बैठक करते-करते बर्बाद हो रहा वक्त अभी मरने जाती हूं तो कहता है -
जिंदा रहो पता नहीं कब
जिंदा होते देख बोल पड़ेगा - छि: मर जाओ। बड़ा डर-डर कर
चुपके -चुपके जिंदा रहती हूं।
(अनुवाद - मुनमुन सरकार)
भारतवर्ष...
भारतवर्ष सिर्फ भारतवर्ष नहीं है।
मेरे जन्म के पहले से ही,
भारतवर्ष मेरा इतिहास।
बगावत और विद्वेष की छुरी से द्विखंडित,
भयावह टूट-फूट अन्तस में संजोये,
दमफूली साँसों की दौड़. अनिश्चित संभावनाओं की ओर, मेरा इतिहास।
रक्ताक्त इतिहास। मौत का इतिहास।
इस भारतवर्ष ने मुझे दी है, भाषा,
समृद्ध किया है संस्कृति से,
शक्तिमान सपनों में।
इन दिनों यही भारतवर्ष अगर चाहे, तो छीन सकता है,
मेरे जीवन से, मेरा इतिहास।
मेरे सपनों का स्वदेश।
लेकिन नि:स्व कर देने की चाह पर,
भला मैं क्यों होने लगी नि:स्व?
भारतवर्ष ने जो जन्म दिया है महात्माओं को।
उन विराट आत्माओं के हाथ
आज, मेरे थके-हारे कन्धे पर,
इस असहाय, अनाथ और अवांछित कन्धे पर।
देश से भी ज्यादा विराट हैं ये हाथ,
देश-काल के पार ये हाथ,
दुनिया भर की निर्ममता से,
मुझे बड़ी ममता से सुरक्षा देते हैं-
मदनजित, महाश्वेता, मुचकुन्द-
इन दिनों मैं उन्हें ही पुकारती हूँ- देश।
आज उनका ही, हृदय-प्रदेश, मेरा सच्चा स्वदेश।
(अनुवाद : शम्पा भट्टाचार्य)