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राजनीति

गंगा एक्सप्रेस-वे को सुप्रीम कोर्ट ने नहीं दी थी मंजूरी, मगर प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से प्रयागराज में कछार किनारे लाखों अवैध निर्माण!

Prema Negi
30 Oct 2019 5:10 AM GMT
गंगा एक्सप्रेस-वे को सुप्रीम कोर्ट ने नहीं दी थी मंजूरी, मगर प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से प्रयागराज में कछार किनारे लाखों अवैध निर्माण!
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हाई फ्लड लेवल में अवैध निर्माण सिर्फ प्रयागराज शहर में ही नहीं हो रहे, बल्कि इससे कहीं अधिक हो रहे हैं बाहरी कछारी इलाकों में, जिला प्रशासन और तहसील अफसरों की मिलीभगत से गंगा पुल पार फाफामऊ और झूंसी में गंगा किनारे कछारी इलाका पट चुका है अवैध निर्माण से....

जेपी सिंह की रिपोर्ट

त्तर प्रदेश में तत्कालीन मायावती सरकार की महत्वाकांक्षी योजना गंगा एक्सप्रेस-वे के निर्माण की उच्चतम न्यायालय ने अनुमति नहीं दी थी, क्योंकि यह गंगा के कछार में ही क्रियान्वित होनी थी और इससे पर्यावरणीय असंतुलन उत्पन्न होने की आशंका थी। ऐसे में गंगा के कछारी क्षेत्रों में देखते ही देखते लाखों स्थायी निर्माण हो गये और प्रयागराज के डीएम, कमिश्नर तथा विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष खानापूर्ति करते रह गये।

च्चतम न्यायालय ने हाल ही में कोच्चि में मराडू के तटीय इलाकों में बने फ्लैट्स को 138 दिनों के अंदर ध्वस्त करने और फैल्ट्स में रहने वालों को 25-25 लाख का अंतरिम मुआवजा देने का आदेश दिया है। साथ ही कहा है कि मुआवजे की रकम राज्य सरकार बिल्डरों से वसूले। यदि समुद्र के तटीय इलाकों यानी समुद्री कछार में बने फैल्ट्स का ध्वस्तीकरण हो सकता है तो प्रयागराज और उत्तर प्रदेश के अन्य इलाकों के कछारी इलाकों में भ्रष्ट तंत्र की मिलीभगत से हुए लाखों अवैध निर्माण का ध्वस्तीकरण क्यों नहीं हो सकता?

भी बाढ़ में ये सभी इलाके डूब गये थे और भारी मशक्कत से यही बसे लोगों को बाहर निकाला गया था। इन अवैध निर्माणों के लिए आज तक किसी की जिम्मेदारी तय नहीं की गयी है।

प्रयागराज सहित पूरे उत्तर प्रदेश में स्मार्ट सिटी या कुम्भ या सड़क चौड़ीकरण के नाम पर बड़े पैमाने पर फ्री होल्ड या भूमिधरी जमीनों पर 50 से सौ साल पहले बने मकानों का ध्वस्तीकरण अतिक्रमण, पुलिसिया धौंस, थानों में वर्दी की गुंडई के बल पर, सहमतिपत्र पर दस्तखत कराकर और हाईकोर्ट के कथित आदेश के नाम पर मंडलायुक्तों के निर्देशन में किया गया है और प्रभावित लोगों को कोई मुआवजा भी नहीं दिया गया है।

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च्चतम न्यायालय ने कहा है कि केरल के तटीय इलाकों में अवैध निर्माण से पर्यावरण को घातक नुकसान पहुंच रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में कहा था कि चाहे जितनी निगरानी की जाए, अतिक्रमणकारियों को सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण और अवैध कब्जा करने से नहीं रोका जा सकता है। ये अतिक्रमणकारी जमीन पर कब्जे और अवैध निर्माण के लिए गिद्धों जैसे झपट्टा मारते हैं और कई बार सरकारी तंत्र की मिलीभगत से अपने अवैध कब्जे और निर्माण को नियमित भी करवा लेते हैं।

गर जब मौसम चुनाव का हो तो अतिक्रमणकारियों की ताकत देखते ही बनती है। यही हालत प्रयागराज और उत्तर प्रदेश के अन्य इलाकों के कछारी इलाकों की है। यह तब है जब पीआईएल संख्या 4003/2006 में गंगा प्रदूषण मामले में 20 अप्रैल 2011 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सख्त आदेश पारित किया था कि कछारी क्षेत्र में गंगा एवं यमुना नदी के उच्चतम बाढ़ बिंदु से 500 मीटर के भीतर किसी भी निर्माण की अनुमति नहीं होगी। गंगा और यमुना की बाढ़ इलाहाबाद में लगभग प्रतिवर्ष आती है और यह आदेश जनता के बड़े हित में पारित किया गया था।

पिछली 4 जनवरी को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फिर से आदेश दिया था कि गंगा किनारे पांच सौ मीटर तक निर्माण पर रोक का आदेश प्राधिकारियों पर बाध्यकारी है। कोर्ट ने इस मामले में कुंभ मेला प्राधिकरण, इलाहाबाद विकास प्राधिकरण और पंचायती निर्वाणी अनी अखाड़ा हनुमानगढ़ी, अयोध्या के महंत धर्मदास को नोटिस जारी कर चार सप्ताह में जवाब तलब किया था, क्योंकि दारागंज स्थित गंगा भवन को महंत धर्मदास द्वारा खरीदने के ​बाद उसे ध्वस्त कर फिर से बिना नक्शा पास करवाए नया निर्माण किया जा रहा था। जबकि हाईकोर्ट ने 22 अप्रैल 2011 को गंगा किनारे अधिकतम बाढ़ बिंदु से पांच सौ मीटर तक किसी भी प्रकार के निर्माण पर रोक लगा रखी है।

प्रदेश सरकार ने 24 अप्रैल 2018 को शासनादेश जारी कर सभी विभागों और प्राधिकरणों को उच्चतम बाढ़ बिंदु के मद्देनजर आदेशों और नियमों का पालन करने के लिए कहा था।

रअसल सार्वजनिक भूमि, जंगल, नदी के कछार, पहाड़, समुद्र के तटीय क्षेत्र और देशभर में फैले स्टेटलैंड और नजूल लैंड में अवैध कब्जे, खरीद बिक्री और अवैध निर्माण की देशव्यापी समस्या है, जो वोट की राजनीति और भ्रष्टाचार के कारण दिन प्रतिदिन बढती जा रही है।

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केंद्र सरकार के मुताबिक देश की करीब 13 हजार वर्ग किमी वन भूमि पर अतिक्रमणकारियों का कब्जा है। कुछ ऐसे ही दावे राज्य सरकारों के भी हैं। राज्य सरकारें जमीनों पर अतिक्रमण से इतनी चिंतित हैं कि उन्होंने वनाधिकार कानून, 2006 के तहत वनवासियों के परंपरागत दावे को भी खारिज दिए। लेकिन कई ऐसे मामले हैं जब सरकार ने उन लोगों के सामने समर्पण कर दिया, जिन्होंने साफ-साफ अतिक्रमण, अवैध कब्जा और अवैध निर्माण कर रखा है।

क तरफ तो उच्चतम न्यायालय ने करीब 17 लाख आदिवासियों को जंगल की जमीन से बेदखल करने का आदेश दे दिया। हालांकि, वनवासियों के दावों पर पुनर्विचार के लिए आदेश को अभी स्थगित रखा गया है, लेकिन उन पर बेदखली की तलवार लटकी हुई है। दूसरी तरफ इसी महीने उच्चतम न्यायालय और केंद्र सरकार, दोनों ने लोगों की धार्मिक भावना का हवाला देकर दिल्ली में वनभूमि पर दोबारा रविदास मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है। दिल्ली में 6 वर्ग किमी से ज्यादा वन भूमि पर अतिक्रमण है।

तिक्रमणकारी हर जगह हैं और दिल्ली में सुरक्षा के अभाव में रक्षा विभाग की करीब 40 वर्ग किमी और रेलवे की 8 वर्ग किमी से ज्यादा जमीन पर पर अवैध कब्जा हो चुका है। केंद्र सरकार ने इसी हफ्ते दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वालों को मालिकाना हक देने का ऐलान कर दिया। 175 वर्ग किमी पर फैलीं इन अवैध कॉलोनियों में कई सार्वजनिक जमीन पर अतिक्रमण से बसी हैं।

केंद्र ने खुद को गरीब हितैषी साबित करने के चक्कर में 69 'समृद्ध' कॉलोनियों को उनकी हालत पर छोड़ दिया। दिल्ली में अगले कुछ महीनों में चुनाव होने हैं और इस फैसले से भाजपा और आम आदमी पार्टी लाभ की आस लगाए है।

हाई फ्लड लेवल (एचएफएल) में अवैध निर्माण सिर्फ प्रयागराज शहर में ही नहीं हो रहे, बल्कि इससे कहीं अधिक ऐसे निर्माण शहर के बाहरी कछारी इलाकों में हो रहे हैं। जिला प्रशासन और तहसील अफसरों की मिलीभगत से गंगा पुल पार फाफामऊ और झूंसी में गंगा किनारे कछारी इलाका अवैध निर्माण से पट चुका है। झूंसी में तो कई आश्रम तक गंगा किनारे बन गए हैं, जबकि बडे़ पैमाने पर अवैध प्लाटिंग भी जारी है। नैनी में यमुना किनारे भी अवैध निर्माणों पर कोई रोक नहीं है।

प्रयागराज विकास प्राधिकरण और संबंधित तहसील के अफसरों, अभियंताओं से लेकर लेखपालों की मिलीभगत से हाईकोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाते हुए धड़ल्ले से अवैध निर्माण हो रहे हैं। पीडीए के अभियंता और भवन निरीक्षकों ने फाइलों में नोटिस और ध्वस्तीकरण आदेश पारित कर दिए हैं, लेकिन धन उगाही करके निर्माण पर रोक नहीं लगाई गयी।

तेलियरगंज के आगे चंद्रशेखर आजाद सेतु को पार करते ही फाफामऊ में सड़क के बाएं अनगिनत अवैध निर्माण हैं। पुल से बाएं फाफामऊ बाईपास से लगे गंगा के कछार में ज्यादातर अवैध निर्माण हाल के वर्षों में हुए हैं। करीब तीन दर्जन अर्धनिर्मित अवैध निर्माण हैं तो कुछ में काम जारी है। यहां बड़ी संख्या में लोगों ने जमीन खरीदकर छोड़ रखी है, जिस पर आने वाले दिनों में अवैध निर्माण भी होना तय है।

पुल के दाहिनी ओर एडीए की शांतिपुरम आवास योजना का सेक्टर ए भी एचएफएल से प्रभावित है, लेकिन इसमें भी लोगों ने हाईकोर्ट के 2011 के आदेश के बाद अभियंताओं, भवन निरीक्षक और लेखपाल से मिलीभगत से अवैध निर्माण करा लिए हैं।

संगम क्षेत्र में बसे झूंसी की स्थिति और भी खराब है। यहां पुरानी झूंसी, कोहना, हवेलिया, नयका महीन, छतनाग, मुंशी का पुरा जैसे गंगा से लगे इलाकों में अवैध निर्माण से लेकर अवैध प्लाटिंग तक बिना रोकटोक जारी है। सबसे ज्यादा अवैध प्लाटिंग हवेलिया, टाउन एरिया झूंसी और मुंशी का पुरा में हो रही है। इनमें से काफी प्लाट पर अवैध निर्माण भी हो रहा है। गंगा के किनारे नई और पुरानी झूंसी में कुछ आश्रम भी बन गए हैं। इसके लिए पहले टिन शेड लगाकर कब्जा किया गया और बाद में पक्का निर्माण हो गया। पीडीए के अफसरों ने धन उगाही करके यहां अवैध निर्माणों पर रोक लगाने ने बजाए आंख मूंद ली है।

मुना किनारे नैनी में भी हाई फ्लड लेवल से प्रभावित इलाकों में अवैध निर्माण बेरोकटोक जारी है। यहां महेवा पूरब पट्टी, महेवा पश्चिम पट्टी, मोहब्बतगंज और मड़ौका में नदी किनारे अवैध निर्माण हो रहे हैं। यहां एचएफएल से प्रभावित हिस्से में एक बडे़ शिक्षण संस्थान की इमारत तक बन गई। पीडीए ने गंगा-यमुना किनारे अवैध निर्माणों पर प्रभावी लगाम लगाने के लिए कोई जमीनी कदम नहीं उठाए।

ये अवैध निर्माण अभियंताओं और भवन निरीक्षकों की मिलीभगत से धन उगाही करके हुए हैं। खुद को बचाने के लिए सरकारी विभागों के अधिकारियों द्वारा नोटिस जारी करने के साथ ध्वस्तीकरण आदेश कागजों में पारित कर दिया जाता है।

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