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राजनीति

तेजी से डूब रहा हरियाणा का चावल उद्योग, सरकार कर रही इग्नोर तो मिल मालिक हुए पलायन को मजबूर

Prema Negi
6 March 2020 12:12 PM GMT
तेजी से डूब रहा हरियाणा का चावल उद्योग, सरकार कर रही इग्नोर तो मिल मालिक हुए पलायन को मजबूर
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हरियाणा में राइस मिल इंडस्ट्री इस वक्त घाटे में चल रही है। जीएसटी और सरकार की नीतियों की वजह से यहां के इंडस्ट्रिलिस्ट दूसरे राज्यों में जा रहे हैं...

चंडीगढ़ से मनोज ठाकुर की रिपोर्ट

जनज्वार। कुरुक्षेत्र लोकसभा क्षेत्र के तहत आने वाला कैथल, इसके साथ लगते करनाल लोकसभा का एरिया तरावड़ी, नीलोखड़ी को राइस बाउल के नाम से जाना जाता है। यह नाम इसलिए नहीं दिया गया कि यहां सबसेे ज्यादा धान पैदा होती है। यह नाम लिए दिया गया, क्योंकि यहां सबसे ज्यादा चावल तैयार किया जाता है। आज यह उद्योग खतरे में हैं। तेजी से राइस मिल बंद हो रहे हैं।

कैथल राइस मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष अमरजीत छाबड़ा ने बताया कि कैथल में 225 राइस मिलें हैं। यहां हर साल सात हजार करोड़ रुपए के चावल का बिजनेस होता है। 90 प्रतिशत राइस मिल घाटे से गुजर रही है। इसके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। जीएसटी लगने के बाद होना तो यह चाहिए था कि मंडी टैक्स जो कि 4 प्रतिशत लग रहा है वह बंद हो जाना चाहिए था। लेकिन यह टैक्स लिया जा रहा है। सरकार के पास संशाधन नहीं है।

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मरजीत छाबड़ा कहते हैं, गोदाम में चावल रखने की जगह नहीं है। 31 मार्च तक 39 लाख मीट्रिक टन चावल सरकार को डिलीवर हो जाना चाहिए था। हुआ अभी तक 24 लाख मीट्रिक टन है, क्योंकि सरकार के पास गोदामों में चावल रखने की जगह ही नहीं है। दूसरी समस्या यह आ रही है कि मिलर्स सरकारी गोदाम तक चावल लेकर जाता है, उसे आठ रुपए प्रति क्विंटल किराया दिया जाता है। लेकिन वहीं चावल यदि ठेकेदार लेकर जाता है तो उसे 20 रुपए प्रति क्विंटल दिया जाता है। यह भेदभाव है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इस सरकार में अधिकारियों के लिए चावल मिलर्स के साथ बातचीत नहीं हो रही है। यदि बातचीत हो तो समस्या का समाधान निकल सकता है।

राइस मिलर्स नरेंद्र कुमार मिगलानी कहते हैं, वह 1973 से इस इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं। चार पांच साल से सबसे बुरे हालात इंडस्ट्री के बने हुए हैं। उन्होंने बताया कि धान में उप एंड डाउन चलता रहता है। लेकिन सबसे ज्यादा दिक्कत यह है कि जब देश में जीएसटी लागू हो गया तो फिर मंडी टैक्स क्यों लगाया गया है? हरियाणा में मंडी टैक्स के तौर पर चार प्रतिशत टैक्स लिए जाते हैं, जबकि मध्म प्रदेश में यह जीरो हैं, राजस्थाान में 1.8 प्रतिशत है और पंजाब में कोई टैक्स नहीं है।

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धान के रेट तो देशभर में एक जैसे ही रहते हैं, मगर जहां टैक्स कम है, वहां के राइस मिलर्स को धान अपेक्षाकृत सस्ता पड़ता है। उसकी कॉस्ट कम होगी तो तैयार चावल का रेट भी कम रख सकता है। इस वजह से हरियाण का राइस मिलर्स पिछड़ जाता है। नरेंद्र कुमार मिगलानी कहते है।, ब्रांड पर पांच प्रतिशत जीएसटी लगा दिया गयाा है। अब वह ब्रांड के तौर पर (ब्रांड के नाम पर यदि तैयार चावल सेल करते हैं तो पांच प्रतिशत जीएसटी देना पडता है, यदि इस चावल को बिना नाम के खुले बाजार में सेल करते हैं तो इस पर टैक्स नहीं लगता) चावल की बिक्री नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि इससे खरीददार को चावल महंगा पड़ रहा है। ऐसे में ब्रांड व्ल्यू खत्म हो रही है। पहले ब्रांड के तौर पर चावल की सेल 10 से 12 प्रतिशत थी, अब कम होकर वह मात्र दो प्रतिशत से भी कम रह गई है।

रियाणा की चावल इंडस्ट्री दूसरे राज्यों में शिफ्ट हो रही है, इसका बड़ा असर पड़ेगा क्योंकि जब खरीददार नहीं होगा तो जाहिर है चावल कौन खरीदेगा? जब चावल नहीं खरीदेगा तो इसका असर किसानों पर भी पड़ेगा। यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो लंबे समय में इसका बहुत असर देखने को मिलेगा। उन्होंने बताया कि 70 प्रतिशत इंडस्ट्री काम नहीं कर रही है। 60 प्रतिशत मिलर्स सरकारी धान की कुटाई कर काम चला रहे हैं। मिगलानी ने कहा कि सरकार को चाहिए कि वह टैक्स कम करें। इससे न सिर्फ टैक्स रेवेन्यू बढ़ेगाए बल्कि इंडस्ट्री को भी खासा लाभ होगा।

राइस मिल चलाने वाले राजीव मिगलानी ने बताया कि वह 25 साल से इस उद्योग में हैं। एक इंडस्ट्री में ढाई सौ से तीन सौ वर्कर्स काम करते हैं। उन्होंने बताया कि दूसरे राज्यों में मिलर्स को कई तरह की सुविधा मिल रही है। हरियाणा एक वक्त राइस मिल में नंबर वन था। एक हजार के करीब यहां राइस मिलें थीं। यह डबल हो सकते हैं। एमपी व पंजाब में सरकार खासी सुविधाएं दे रही है। बिजली की समस्या बहुत बड़ी है। क्योंकि उन्हें उन दिनों का भी बिजली बिल देना पड़ता है, जब मिल बंद रहता है।

नियमित तौर पर गश्त करती है।

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मिल साल में नौ माह ही चलती है। करीब तीन माह तक न्यूनतम बिजली बिल का भुगतान करना पड़ता है। इस बाबत कई बार सरकार से मिले हैं, लेकिन आज तक सुनवाई नहीं हुई। उन्होंने बताया कि यदि वह दूसरा मिल लगाते हैं तो दूसरे राज्यों में जाएंगे। उन्होंने कहा कि यह लोकसभा चुनाव में बड़ा मुददा है। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। मिल बढ़ नहीं रहे हैं, कम हो रहे हैं। सरकार से कई बार मिले लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।

हेंद्र गर्ग जो कि 20 साल से इस इंडस्ट्री में हैं, कहते हैं, सरकार की नीतियां सही नहीं हैं। जीएसटी से सबसे ज्यादा समस्या यह आई कि हम जो सामान प्रयोग कर रहे हैं, इस पर जीएसटी देते हैं, वह रिफंड नहीं हो रहा है, जबकि वह होना चाहिए। यदि ब्रांड के नाम पर सेल करते हैं तो इस पर पांच प्रतिशत टेक्स देना पड़ रहा है। ऐसे में ब्रांड पर तैयार माल बेचने की बजाय व नान ब्रांड चावल पर चला जाता है। इससे गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है और काम पर भी इसका असर पड़ रहा है।

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रकार कई बार दावा तो करती है, लेकिन सेंटर की ओर से कोई रिस्पांस नहीं मिल रहा है। कई बार उन्हें मजबूर किया जाता है कि वह घटिया क्वालिटी का धान भी खरीदे, क्योंकि मंडी में यदि धान नहीं बिकता, इस इस धान की क्वालिटी घटिया होती है। इसलिए कोई खरीददार खरीदना नहीं चाहता। इधर किसान प्रदर्शन कर देते हैं। इससे सरकार दबाव में आ जाती है, मिलर्स पर धान को खरीदने का दबाव बना दिया जाता है। अब इस धान से चावल बनानेे में उन्हें घाटा होता है।

बेस्ट फूड के डायरेक्टर महेंद्र पाल मित्तल कहते हैं, उनकी मिल डूबने की तीन बड़ी वजहें हैं। एक तो यह है कि निर्यात चावल की रकम डूब जाए तो उसकी उगाही करने के लिए कोई सरकारी सिस्टम नहीं है। सरकार की ऐसी पॉलिसी ही नहीं है। इस बिजनेस में हमें कई बार उधार में माल भेजना पड़ता है। दूसरा यहां से माल तैयार कर निर्यात कर दिया। डिलिवरी के वक्त वहां बोल दिया गया कि इसकी क्वालिटी खराब है। इस स्थिति में निर्यातक कुछ भी नहीं कर सकते। उनके कई शिप रिजेक्ट कर दिए गए।

रकार को कई बार लिखा कि इस बारे मे कोई नीति तैयार की जाए, लेकिन आज तक इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। रही सही कसर धान की क्वालिटी पूरी कर देती है। इस साल भी बरसात की वजह से धान की क्वालिटी अच्छी नहीं है, जिससे अच्छा चावल बनेगा ही नहीं। अब यदि चावल अच्छा नहीं होगाा उसका निर्यात क्या होगा?

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तो असर क्या पड़ रहा है

राइस मिल मामलों के जानकार एडवोकेट जगमाल जट्टान इस बारे में कहते हैं, पिछले चार सालों में यहां चावल उद्योग खत्म हो गया है। इसके लिए सरकार की नीति जिम्मेदार है। प्रदेश में चावल मिल तेजी से बंद हो रहे हैं। सरकार उन्हें किसी तरह का राहत पैकेज नहीं दिया जा रहा है। हरियाणा में चावल उद्योग अब तक का सबसे बुरा दौर देख रहा है। लागत बढ़ रही है, आर्डर मिल नहीं रहे हैं। जबकि दूसरे राज्यों राइस मिलर्स को कई रियायत मिली हुई है। एडवोकेट जगमाल जट्टान का मानना है कि इन रामदेव, शक्तिभोग, बेस्ट फूड जैसे बड़े राइस मिल को बचाया जा सकता था। सरकार यदि इनके बारे में सोचती तो निश्चित ही यह उबर सकते थे। बासमती धान के उतार चढ़ाव ने इनकी आर्थिक स्थिति कमजोर कर दी।

ग्रीकल्चर एक्सपर्ट डाक्टर दिलीप कहते हैं कई देश भारतीय चावल खासतौर पर हरियाणा और पंजाब के चावल को आयात करने से बचते हैं, क्योंकि यहां का किसान जरूरत से ज्यादा कीटनाशक व फंगीसाइड इस्तेमाल करता है। भारत से बासमती के कुल एक्सपोर्ट में ब्रिटेन, नीदरलैंड, फ्रांस और जर्मनी की हिस्सेदारी 8-10 पर्सेंट है। इन देशों में निर्यात पर अन्य देशों की तुलना में अधिक मार्जिन मिलता है, लेकिन फसल को बीमारी से बचाने के लिए किसानों की ओर से इस्तेमाल किए जाने ट्राइसाइक्लाजोल फंगीसाइड को लेकर इनके कड़े नियमों से पिछले दो वर्षों से एक्सपोर्ट पर असर पड़ रहा है।

बासमती उत्पादक किसानों पर भी पड़ सकता है प्रतिकूल असर

जानकारों का यह कहना है कि यदि बासमती चावल के लिए यदि जल्दी ही कोई नीति नहीं बनी और राइस मिल यूं ही डूबते रहे तो इसका असर बासमती उत्पादक किसानों पर भी पड़ सकता है।

युवा किसान संघ के प्रधान प्रमोद चौहान ने बताया कि चावल के रेट पर ही बासमती धान का रेट निर्भर करता है। यह सही है कि यदि इस बारे में जल्दी ही ठोस कदम नहीं उठाए जाते तो इसका असर देर सवेर किसानों पर भी पड़ सकता है, क्योंकि जब यहां पर कच्चे माल का खरीददार ही नहीं होगा तो फिर किसाान धान बेचेगा कहा?

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प्रमोद चौहान कहते हैं, हरियाणा में 13 लाख हेक्टेयर में धान की खेती होती है। इसमें पचास प्रतिशत बासमती धान की खेती होती है। करीब 16.17 लाख किसान परिवार धान की खेती से जुड़े हुए हैं। यदि यहां के राइस मिल तरक्की नहीं करेंगे तो निश्चित ही इसका असर धान उत्पादक किसानों पर भी पड़ेगा। उन्होंने बताया कि होना तो यह चाहिए कि सरकार ऐसी पॉलिसी तैयार करे, जिससे किसान, मिलर्स और निर्यातक एक मंच पर आए। वह एक दूसरे की जरूरत समझे। किसानों को बताया जाना चाहिए कि कैसे वह धान की बेहतर किस्म उगा सकते हैं, कैसे अच्छी क्वालिटी का धान पैदा कर सकते हैं।

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ज तक इस दिशा में कुछ नहीं हुआ। यही हाल कीटनाशक व फंगीसाइड के हैं। निर्माता कंपनी किसानों को बहका कर अपना माल बेच देती है। किसान को पता ही नहीं होता कि कितनी मात्रा में दवा स्प्रे करनी है। करनी भी है या नहीं। उन्हें कृषि विभाग की ओर से इस तरह की जानकारी दी ही नहीं जाती। इसका नुकसान यह होता है कि किसान अपनी मर्जी से दवा स्प्रे करता रहता है। इससे धान में दवा की मात्रा बढ़ जाती है। जिससे निर्यात किया जाने वाला चावल रिजेक्ट हो जाता है।

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