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संस्कृति

आग लगी हमरि झोपड़िया में हम गावें मल्हार!

Prema Negi
30 Jan 2019 1:18 PM IST
आग लगी हमरि झोपड़िया में हम गावें मल्हार!
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एक तरफ आत्महत्याओं के एक दशक लंबे सिलसिले से अलग किसान आंदोलनरत हैं, दूसरी ओर बेरोजगारी से जूझते युवा सड़कों पर उतर रहे हैं, अनाथ बच्चियां बालिकागृहों में कस्टोडियल रेप के लिए बाध्य हैं और रेपिस्ट सरकार के संरक्षण में अट्टाहास कर रहे हैं। दैनिक जागरण मजदूर आन्दोलनों के अगुवा नेताओं को मास्टरमाइंड बताकर आंदोलनों को क्रिमिनलाइज कर रहा है। यही वो दैनिक जागरण है, जिसने पिछले साल कठुआ रेप पीड़िता के रेप की फारेंसिक लैब रिपोर्टों को झुठलाते हुए बलात्कारियों के पक्ष में रिपोर्टिंग करते हुए बलात्कारियों के पक्ष में जनमत तैयार करने की कुत्सित साजिश की थी। आज वही दैनिक जागरण बृजेश सिंह जैसे बलात्कारियों को संरक्षण देनेवाले बिहार सरकार के साथ मिलकर पटना तीन दिवसीय लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन कर रहा है, जिसमें कई तथाकथित प्रगतिशील व स्त्रीवादी साहित्यकार शिरकत कर रहे हैं। फेस्टिवल के पहले दिन ‘पीर गूंगी ही सही गाती तो है-काव्य पाठ’ नामक सत्र में कवि और स्त्री विमर्श की ख्यातिलब्ध नाम अनामिका जी भी शिरकत कर रही हैं। सुशील मानव ने बिहार लिटरेचर फेस्टिवल में अनामिका जी के शामिल होने को लेकर कुछ सवाल पूछे, जिसका उन्होंने वॉट्सएप पर जवाब दिये हैं।

सुशील मानव से हिंदी की ख्यात साहित्यकार अनामिका की बातचीत

आप हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श का स्थापित प्रतिमान हैं, ऐसे में पटना लिटरेचर फेस्टिवल में आपकी भागीदारी पर सवाल हैं। जाहिर है पूरे राज्य में तमाम शेल्टर होम बच्चियों के कस्टोडियल रेप में बिहार सरकार के कई मंत्रियों का नाम आया है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्यक्ष दखल देते हुए कहना पड़ा है कि बिहार सरकार आरोपियों को बचाने की कोशिश कर रही है। दैनिक जागरण इस कार्यक्रम का प्रायोजक है, और कठुआ से लेकर तमाम केसों में इसने स्त्रिविरोधी, किसान विरोधी मजदूर विरोधी रिपोर्टिंग की है?

स्त्री विमर्श का प्राथमिक पाठ है संवाद! कठिन मिट्टी पर काम ज़्यादा करना पड़ेगा, मेहनत ज़्यादा होगी, इस डर से भाग जाने का फ़ैसला अगर हर औरत ले ले तो ज़्यादातर घर कहावत वाला भूत का डेरा हो जाएँगे! बिहार घर है, यहाँ की समस्याएँ और यहाँ का जन-मन मैं ठीक से समझती हूं, इसलिए किसानों का धीरज लेकर बार- बार श्रमनिवेश करते हमें अटपटा नहीं लगता! थकान ज़रूर होती है कभी-कभी, तब प्रेमचंद का सूरदास हिम्मत देता है, जिसने खुलेआम कहा था कि तुम बार-बार बस्ती उजाड़ने से बाज़ नहीं आते तो हम बार बार बसाने से क्यों बाज़ आने लगे!

किसी के बचाने से कोई बच न जाए, यह फ़िज़ा तैयार करने के लिए ही हम किताबें लिखते हैं तो स्तम्भ भी। मंचों पर जाते हैं और नुक्कड़ पर भी बैठते हैं! कोई कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते! जिस तरह संगीत और फ़िल्में क्लासिकल और पॉप्युलर- दोनों ज़ुबानों से बात करती हैं, साहित्य भी क्योंकि सम्बोधित हर वर्ग, हर वर्ण, हर नस्ल को होना है!

साहित्यकार अपनी बात सड़कों, चौराहों, जन चौपालों में ले जाने के बजाय मंचों की ओर क्यों भाग रहा है? उसे साहित्यिक महोत्सव के मंचों की इतनी ज़रूरत क्यों है?

'आग लगी हमरि झोपड़िया में हम गावें मल्हार!' यह जनजीवन का एक अजब पक्ष है! आख़िर श्राद्ध के समय भी लोग बुंदिया का स्वाद बतियाते हैं! यह विचित्र सत्य है जिसके बारे में इलियट कहते हैं कि 'humankind can not bear very much reality.' ठीक है कि समस्याएँ विकट हैं और उनके निवारण के समवेत प्रयास होने चाहिए, पर काम करते-करते गा उठने की परम्परा भी है! उत्सवधर्मिता लोकपोषित सच है!

साहित्य में अचानक से इतने से सारे फेस्टिवल और आयोजक आ गये हैं, साहित्य में बढ़ती इस उत्सवधर्मिता पर आपकी क्या राय है?

जागरण मैं पढ़ती नहीं, पर अगर इसके मन में वंचित-विरोध की कोई एक परम्परा जड़ पकड़ रही है, तो यह दुखद है!

दैनिक जागरण के 'बेस्ट सेलर' और बाज़ार की 'नई वाली हिंदी' पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

नयी वाली या खिचड़ी हिंदी या किसी भी खिचड़ी के बारे में मेरी मान्यता यह है कि चावल-दाल तो मिला भी ले कोई, पर उसमें कंकड़ न फेंटे! खिचड़ी ग़रीब या बीमार आदमी का सबसे सुस्वादु भोजन है, शायद यही सोचकर हिंदी तत्सम- तद्भव- देशज- विदेशज को बराबर मान्यता देती है।

नवशिक्षित की शब्द सम्पदा बढ़ाने से दांत में किरकिरी की तरह फंसने वाले प्रयोग घटित नहीं होंगे! और कोई जड़ों से कट रहा है या मातृभाषा पर मेहनत नहीं कर रहा तो यह ज़िम्मेदारी अभिभावकों और शिक्षकों की है।

मार्क्स कहते थे कि vulgarisation का एक बड़ा फ़ायदा भी है कि यह जनाधार बड़ा करता है! बेस्ट सेलर्ज़ भी यही करते हैं! कुछ तो करते हैं! लोकप्रिय को ख़ारिज करना लोक को ख़ारिज करना भी हो सकता है।

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