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समाज

पाकिस्तान में 2 किलोमीटर के भीतर सिर्फ एक साल में हुए 12 दुष्कर्म, फांसी की सजा से नहीं घटी वारदातें

Nirmal kant
20 Feb 2020 9:00 AM IST
पाकिस्तान में 2 किलोमीटर के भीतर सिर्फ एक साल में हुए 12 दुष्कर्म, फांसी की सजा से नहीं घटी वारदातें
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हमारे राजनेताओं में से ज्यादातर ये महसूस करते हैं कि किसी अपराधी के वहशीपन का जवाब सरकार के वहशीपन द्वारा ही दिया जाना चाहिए। बयानबाजी की खातिर यह तथ्य भुला दिया जाता है कि फांसी देने के बावजूद इस तरह के अपराधों के स्तर में कोई गिरावट नहीं आई है...

पाकिस्तान के हाईकोर्ट में वकील सुलेमा जहाँगीर की टिप्पणी

नेशनल असेम्बली का ये प्रस्ताव कि बच्चों का यौन शोषण और हत्या करने वाले अपराधियों को सरेआम फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए दर्शाता है कि हमारा समाज कितना अधिक नृशंस बन चुका है। जबकि दुनिया में फांसी जैसी क्रूर और अमानवीय सजा के खिलाफ आम सहमति बन रही है। हमारे राजनेताओं में से ज्यादातर ये महसूस करते हैं कि किसी अपराधी के वहशीपन का जवाब सरकार के वहशीपन द्वारा ही दिया जाना चाहिए।

यानबाजी की खातिर यह तथ्य भुला दिया जाता है कि फांसी देने के बावजूद इस तरह के अपराधों के स्तर में कोई गिरावट नहीं आई है। अगर हमारे कानून निर्माता बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों के प्रति इतने ही चिंतित होते तो अपराधिक न्याय प्रणाली और बाल सुरक्षा कानून के प्रति ज्याा ध्यान और फंड दिया गया होता।

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मारे नीति निर्माताओं को अच्छी तरह पता है कि जिस बात की जरुरत है वो ये है कि अपराधिक न्याय प्रणाली पर पुनर्विचार किया जाये और बाल सुरक्षा कानूनों को अधिक मुस्तैदी से लागू किया जाये। बच्चों से जुड़े अपराधों को सूचित करना पुलिस का कर्तव्य होना चाहिए। बच्चों से जुड़े मामलों के लिए सभी सूबों में हॉटलाइन स्थापित की जानी चाहिए। बंद सुनवाई के दौरान बच्चों की पहचान गोपनीय रखी जानी चाहिए।

कानून लागू करने वाली एजेंसियों को बेहतर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए और बेहतर विधि चिकित्सा शास्त्री उपलब्ध रहने चाहिए और अधिक मात्रा में महिला मेडिको-लीगल अधिकारियों और महिला पुलिस बल उपलब्ध रहने चाहिए और न्यायलय में कमजोर गवाहों से पूछ-ताछ के लिए विशेष कोड होने चाहिए। ये खबरें नहीं बल्कि बच्चों को दिए जाने वाली वास्तविक प्राथमिकता की कमी है जो इस दिशा में वास्तविक काम को तवज्जो दिए जाने के बजाय लफ्फाजी को ज्यादा आसान बना देती है।

जैनाब अंसारी केस के तथ्य बहुत कुछ बयां करते हैं। एक साल के अंदर-अंदर दो किलोमीटर के दायरे में बलात्कार और हत्या की घटनाओं में जैनाब 12वां शिकार थी। जैनाब के हत्यारे का डीएनए उसकी हत्या से पहले की गयी 6 हत्याओं के हत्यारे से मेल खाता था। लाहौर हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सैय्यद मंसूर अली शाह ने जैनाब केस में एक याचिका की सुनवाई के दौरान आश्चर्य प्रकट किया था कि कसूर में मिलती-जुलती घटनाओं की सूचनाओं के बावजूद कोई भी केस न्यायालय के सामने नहीं लाया गया।

रकार तब तक कहीं नजर नहीं आयी जब तक सोशल मीडिया में लोगों का गुस्सा उफान पर नहीं आ गया और उसके चलते हुए दंगों ने मुख्यधारा के मीडिया में व्यापक जगह हासिल नहीं कर ली। इससे यही सबक़ सीखा गया कि अपराध को पुलिस के पास दर्ज कराने से बेहतर ये है कि दंगे किये जाएं और सोशल मीडिया में चर्चित हुआ जाये।

तरह की हजारों घटनाएं घटित होती हैं लेकिन उन्हें दर्ज ही नहीं किया जाता फिर उन्हें न्यायिक प्रक्रिया के तहत ले जाने की बात कौन कहे? सन 2000 में लाहौर में अकेले 100 बच्चों की हत्या खुद स्वीकारने वाले अपराधी जावेद इकबाल को कड़ी सजा सुनायी गयी। जावेद के माता-पिता के सामने लोहे की जंजीर से उसका गला घोंटा जाये, उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े किये जायें और उन टुकड़ों को एसिड में पिघलाया जाए। जावेद ने जेल में आत्महत्या कर ली जबकि उसके दो शिशु नौकर सालों-साल एकांत कारावास झेलते रहे। इस बात की जांच ही नहीं की गयी कि इतने सारे बच्चों के गायब होने के पीछे तस्कर गिरोह का हाथ था। मात्र भयानक सजा को ही पर्याप्त मान लिया गया।

दूसरी घटनाओं में कसूर, नवकाली और मिंगोरा जैसे शहरों में अनेक आपराधिक गिरोह बच्चों के अश्लील वीडियो बना कर उनके परिवारों से उगाही करते थे। कसूर में केवल दो गिरोहों को ही सजा मिली। बाकियों को स्थानीय प्रभाव के चलते छोड़ दिया गया। बच्चों के खिलाफ अपराध की पोल खुलने पर यही सच्चाई सामने आती है।

ब जरा एक जज और उनकी पत्नी की 10 वर्षीय नौकरानी तैय्यबा की बात करें। जज मियाँ-बीबी उसे बेरहमी से प्रताड़ित करते थे। शुरू में तो वकील समुदाय तैय्यबा का केस लेने में आनाकानी करता रहा क्योंकि जज प्रभावशाली था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जज मियाँ-बीबी की सजा 3 साल से घटा कर 1 साल कर दी गयी। गौरतलब है कि 2017 में तैय्यबा का परिवार आरोप वापिस लेने या समझौता करने ( जिसमें हमेशा वित्तीय हर्जाना शामिल होता है ) को तैयार हो गया था। अबकी बार जबकि उनसे कहा गया कि आरोप वापस नहीं लिए जा सकते लेकिन उन्होंने सज़ा बढ़ाने की बात नहीं की।

तैय्यबा ने तो मीडिया में काफी सुर्खियां बटोरीं लेकिन बहुत से ऐसे केस हैं, यहां तक कि बलात्कार के भी, जहां पहली प्रतिक्रया यही होती है कि पुलिस आरोपी के साथ समझौता करने का दबाव डालती है। आपराधिक न्याय व्यवस्था में समझौता करने की संस्कृति इतनी रच-बस गयी है कि कानून का पालन करने वालों को तो कभी-कभी यही लगता है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां अपराधियों को पकड़ने की बजाय समझौते तय करवाने में ज्यादा लगी रहती हैं।

ब बाल अपराधों के खिलाफ कार्रवाई में समझौता किया जाता है तो सन्देश यही जाता है कि जिनके पास दौलत और रसूख है वे कम सुविधाभोगी लोगों का शोषण करने को आजाद हैं। जब एक बार पुलिस का यह कर्तव्य बना दिया जाता है कि वो बाल अपराध के खिलाफ कोई भी शिकायत दर्ज़ कर उसकी जांच करे तब कोर्ट के द्वारा की जाने वाली पड़ताल को ये सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी तरह का समझौता ना किया जाये।

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र्तमान कानूनों को लागू करने या फिर बच्चों से जुड़ी पूरी व्यवस्था पर दोबारा सोचने की ना तो राजनीतिक इच्छा दिखाई देती है, ना ही ज़रूरी फंड। अवयस्क न्याय प्रणाली विधेयक 2000 अभी भी ठीक तरीके से लागू नहीं किया जाता है। बच्चों की न्यायिक सुनवाई वयस्कों के साथ ही की जाती है और यहां तक कि उन्हें जेल की कोठरी भी बड़ों के साथ ही साझा करनी पड़ती है।

हाल में सभी सूबों और केंद्र की सरकारों ने बच्चों की सुरक्षा के लिए कानून बनाये जिसके तहत अनाथालयों को संचालित करने वाले क़ानून में आमूल-चूल बदलाव, बच्चों के खिलाफ होने वाले विशेष अपराधों पर रोक लगाना, एक शिशु सुरक्षा ब्यूरो, शिशु सुरक्षा केंद्रों, सरकारी अधिकारियों और कोर्ट की स्थापना करना शामिल है लेकिन ये कानून निराशाजनक है, अपनी बनावट से लेकर लागू किये जाने में कमी तक। सभी सूबों में सुरक्षा दिए जाने वाले बच्चों की परिभाषा इतनी व्यापक है कि पकिस्तान के आधे बच्चे इसके अंतर्गत आ जायेंगे।

लूचिस्तान में जहां कानून लागू भी नहीं किया जाता है। सरकारी सुरक्षा दिए जाने वाले बच्चों की परिभाषा में ऐसे बच्चे भी शामिल हैं जिनकी भावनाओं को ठेस पहुंचा हो। जो महसूस करते हैं कि 'उन्हें प्यार नहीं मिलता, उनकी उपेक्षा होती है या मज़ाक उड़ाया जाता है' या 'पक्षपात' का शिकार हैं। शिशु सुरक्षा केंद्रों और कोर्ट का पकिस्तान में नामो-निशान नहीं है फिर भी हमारे सांसदों की महत्वाकांक्षा इतनी ऊंची है कि वे पकिस्तान में ज्यादातर बच्चों को सुरक्षा मुहैय्या कराना चाहते हैं।

तो ये है कि नवजात शिशु मृत्यु दर के सन्दर्भ में 193 देशों में पाकिस्तान नीचे से तीसरे पायदान पर खड़ा है। पोलियो अभी भी स्थानीय बीमारी के रूप में मौजूद है। बाल-श्रम जोरों पर है और बच्चों की सेहत और शिक्षा पर बजट में बहुत कम राशि आबंटित होती है। इस पृष्ठभूमि के मद्देनजर इस बात की भर्तस्ना की जानी चाहिए कि हमारे सांसद बच्चों की सुरक्षा के प्रति अपनी उदासीनता को वहशियाना सज़ा की मांग से ढंकने का प्रयास करते हैं। हिंसा के पक्ष में बड़ी-बड़ी बातें करने से ज्यादा जरूरी है कि और अघिक प्रतिबद्धता एवं अनुकूलता के साथ जमीनी स्तर पर योजना बनाई जाये।

(लेखिका पकिस्तान के उच्च न्यायालयों में वकील हैं और इंग्लैण्ड एवं वेल्स के वरिष्ठ न्यायालयों में सॉलिसिटर हैं।

यह लेख पाकिस्तान के अखबार डॉन से लिया गया है।)

अनुवाद : पीयूष पंत

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