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विमर्श

क्या कश्मीर पर अमेरिकी दबाव महसूस कर रही है मोदी सरकार?

Prema Negi
8 Oct 2019 3:38 AM GMT
क्या कश्मीर पर अमेरिकी दबाव महसूस कर रही है मोदी सरकार?
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अमेरिकी सांसदों द्वारा कश्मीर के हालात पर उठाये जा रहे सवाल कहीं न कहीं प्रधानमंत्री मोदी पर मनोवैज्ञानिक दबाव अवश्य बना रहे होंगे, वैसे भी मोदी खुद की छवि एक लोकप्रिय नेता और लोकतंत्र का सम्मान करने वाले व्यक्ति के रूप में प्रचारित करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते, ख़ासकर विदेशी ज़मीन पर...

पीयूष पंत का विश्लेषण

खिरकार जम्मू कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के माध्यम से मोदी सरकार को साठ दिनों से 'हाउस अरेस्ट' पर रखे गए नेशनल कॉन्फ्रेंस के शीर्ष नेताओं फ़ारूख़ और उमर अब्दुल्ला से उनकी पार्टी के नेताओं को मुलाकात करने की इजाज़त देनी ही पड़ी। तमाम आलोचनाओं के बावजूद कश्मीर के राजनीतिक दलों से जुड़े नेताओं को नज़रबंदी से रिहा न करने के सरकारी अड़ियल रवैये के चलते अचानक सरकार का यह कदम चकित अवश्य कर गया।

सके लिए कोर्ट का कोई आदेश भी नहीं था, जैसाकि ग़ुलाम नबी आज़ाद को लेना पड़ा था। उल्टे केंद्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह ने तो 18 सितम्बर को जम्मू में पत्रकारों से बातचीत करते हुए कश्मीरी नेताओं की नज़रबंदी 18 महीनों तक चलने की बात कह डाली थी। पत्रकारों के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि नेताओं की रिहाई 18 महीनों से कम में तो हो ही जाएगी।

हालांकि 2 अक्टूबर को जम्मू के राजनीतिक नेताओं की रिहाई के बाद 3 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के सलाहकार फ़ारुख़ खान ने 3 अक्टूबर को ये अवश्य कहा कि एक के बाद एक कश्मीर के नेता भी छोड़े जायेंगे। लेकिन किसी भी नेता को छोड़ा नहीं गया। हाँ, इतना अवश्य किया गया कि फ़ारूख़, उमर और महबूबा मुफ़्ती जैसे नेताओं को अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिलने की इजाज़त दे दी गयी।

ये कैसे हुआ? कुछ विश्लेषकों का मानना है कि 24 अक्टूबर को होने वाले स्थानीय चुनावों के चलते ऐसा किया गया है, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हाल के दिनों में बढ़ रहे अंतरराष्ट्रीय दवाब के चलते सरकार को ऐसा कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा है। ख़ासकर अमेरिका लगातार कश्मीर में नियंत्रण ख़त्म करने, संचार माध्यमों को बहाल करने और नेताओं को रिहा करने की बात कर रहा है।

मेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भले ही अमेरिका द्वारा मध्यस्था करने की बात पर हां-ना करते रहे हों, लेकिन उनके पार्टी के सांसद लगातार कश्मीर में कर्फ़्यू हटाने, संचार माध्यमों को बहाल करने और पार्टी नेताओं को रिहा करने की अपील जारी कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है कि कश्मीर के वर्तमान हालात अमेरिकी सीनेट कमिटी का हिस्सा बनने जा रहे हैं।

गौरतलब है कि विदेशी मामलों सम्बन्धी सिनेट कमिटी ने 2020 के लिए सालाना विदेशी विनियोग अधिनियम आने के पहले जरी अपनी रिपोर्ट में कश्मीर में "मानवीय संकट" को ख़त्म करने की अपील की है। रिपोर्ट में कश्मीर संबंधी संशोधन डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद क्रिस वैन होलेन ने प्रस्तावित किया था और रिपोर्ट को सीनेट में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के करीबी रिपब्लिकन पार्टी के वरिष्ठ सांसद लिंड्से ग्राहम ने पेश किया।

ग़ौरतलब है कि सांसद वैन होलेन हाल ही में भारत आये थे और जम्मू-कश्मीर में ज़मीनी हकीक़त देखने वहां जाना चाहते थे, लेकिन भारत सरकार ने उन्हें इजाज़त नहीं दी थी। सीनेट कमिटी की रिपोर्ट में संशोधन के बारे में उन्होंने हिन्दू अख़बार को बताया कि बाइपार्टिज़न कमिटी द्वारा एकमत से स्वीकार किया गया यह संशोधन कश्मीर के हालात पर सीनेट की चिंता की पुरजोर अभिव्यक्ति है।

ह दर्शाती है कि हम कश्मीर में मानव अधिकारों की स्थिति पर नज़दीक से निगरानी कर रहे हैं और हम चाहते हैं कि भारत सरकार हमारी चिंताओं पर गंभीरता से ध्यान दे। उन्होंने यह भी बताया कि वे अपनी चिंताएं प्रधानमंत्री मोदी को भी बताना चाहते थे, लेकिन उनसे मिलने का समय ही नहीं दिया गया।

धर अमेरिकी संसद की उप-समिति ने कहा है कि वो 22 अक्टूबर को दक्षिण एशिया में मानवाधिकारों की स्थिति पर सुनवाई करेगी जिसके दौरान कश्मीर का मामला केंद्र में होगा। हॉउस सब-कमिटी ऑन एशिया के चैयरमैन सांसद ब्रैड शरमन ने एक वक्तव्य में कहा है कि सुनवाई कश्मीर घाटी पर केंद्रित होगी जहां अनेक राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी,इंटरनेट व टेलीफ़ोन संचार बाधित हो गया है।

श्मीर को लेकर चिंता अमेरिका की महिला सांसदों ने भी दिखाई है। उदाहरण के तौर पर न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी खबर के अनुसार डेमोक्रेटिक पार्टी की युवा सांसद एलेक्ज़ेंड्रिया कोर्टेज़ ने कश्मीरी जनता के साथ अपनी एकता अभिव्यक्त करते हुए मांग की है कि "कश्मीर की नाकाबंदी ख़त्म होनी चाहिए।" अपनी ट्विटर पोस्ट पर उन्होंने लिखा, "हम कश्मीरियों की मूल मानवीय गरिमा के साथ खड़े हैं और लोकतंत्र, समानता एवं सभी के मानवाधिकारों का समर्थन करते हैं।"

हा जा सकता है कि अमेरिकी सांसदों द्वारा कश्मीर के हालात पर उठाये जा रहे सवाल कहीं न कहीं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर मनोवैज्ञानिक दबाव अवश्य बना रहे होंगे। वैसे भी मोदी खुद की छवि एक लोकप्रिय नेता और लोकतंत्र का सम्मान करने वाले व्यक्ति के रूप में प्रचारित करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते हैं, ख़ासकर विदेशी ज़मीन पर। अमेरिका के ह्यूस्टन में आयोजित कराया गया 'हाउडी मोदी' समारोह इस बात का परिचायक रहा है।

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