Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

कहीं संघ के एजेंडे के शिकार तो नहीं हो रहे राहुल गांधी

Prema Negi
26 Sept 2018 4:20 PM IST
कहीं संघ के एजेंडे के शिकार तो नहीं हो रहे राहुल गांधी
x

यदि मौका मिला तो राहुल गांधी अपने पिता से बेहतर प्रधानमंत्री सिद्ध होंगे। एक तो उनके सलाहकार अनुभवी हैं और दूसरे उनका संघ विरोध सतही नहीं है...

वरिष्ठ लेखक और पूर्व आईपीएस वीएन राय का विश्लेषण

मेरा अरसे से विश्वास रहा है कि यदि मौका मिला तो राहुल गांधी अपने पिता से बेहतर प्रधानमंत्री सिद्ध होंगे। एक तो उनके सलाहकार अनुभवी हैं और दूसरे उनका संघ विरोध सतही नहीं है। उन्हें दस वर्ष के यूपीए कार्यकाल में परदे के पीछे से गलतियां देखने और शायद करने का अनुभव भी है। राजीव गांधी इन अवसरों से वंचित रहे थे।

आश्चर्यजनक रूप से, इस बार राहुल गांधी का प्रधानमंत्री बनना उनके नेहरू परिवार का वारिस होने से नहीं तय होने जा रहा। यह सुविधा 2004 और 2009 में उनके पास रही होगी। इस बार के चुनाव में आरएसएस केन्द्रित ध्रुवीकरण की खासी भूमिका रहेगी। लिबरल अमेरिका को ट्रम्प विरोध में आयोजित होते देखिये और इसमें मोदी विरोध की भारतीय छवि को पहचानिये।

भारत और अमेरिका, दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र, इस समय दो फासिस्ट शासकों के हाथों संचालित हो रहे हैं। भारत में शायद ही संदेह हो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना पूरा कार्यकाल, सवर्ण प्रभुत्ववादी संगठन आरएसएस का मानस पुत्र बने रहना है। इसी तरह अमेरिका में भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को व्हाइट प्रभुत्ववादी विचारधारा कू क्लक्स क्लान का सहज ही मानस पुत्र मानने वालों की कमी नहीं।

तब भी, संकुचित कू क्लक्स क्लान के 1980 के दशक से लक्षित तीसरे संस्करण को आज के अमेरिका में औपचारिक रूप से कोई धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक संगठन मान्यता देता नहीं दिखता। एक राष्ट्र के रूप में अमेरिका की ऐतिहासिक बहुलतावादी निर्मिति की ही ताकत है यह! गाँधी और नेहरू के आधुनिक भारत में यह मंजिल अभी दूर है।

हाल में दिल्ली में तीन दिन के बहुप्रचारित आरएसएस आयोजन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने किसी नयी हिन्दू एकता की बात नहीं की है। संघ पोषित हिन्दू एकता, वेद, उपनिषद, पुराण और स्मृति की जातिवादी और भाग्यवादी एकता से इतर कुछ हो भी नहीं सकती।

अमेरिका में इतिहास के प्रोफेसर थॉमस पेग्राम ने अमेरिकी पहचान के स्वयंभू ठेकेदार कू क्लक्स क्लान के अमेरिकी समाज में घुसपैठ और तिरोहित होने की शोध गाथा को ‘वन हंड्रेड परसेंट अमेरिकन’ का सटीक शीर्षक दिया है। उनकी यह किताब 2011 में बराक ओबामा के शासनकाल में आयी थी। आरएसएस आज भारत में सत्ता की नैया की पतवार बना हुआ है; पेग्राम की तर्ज पर कहें तो दिल्ली बैठक में भागवत एक ‘विशुद्ध भारतीय’ मानक गढ़ने की स्वयंभू ठेकेदारी कर रहे थे।

1920 के दशक में जब भारत में हिन्दुत्ववादी संघ के सफर की शुरुआत हो रही थी, अमेरिका में क्लान अपने दूसरे ऐतिहासिक संस्करण के उफान को जीकर सीतनिद्रा में पहुंच रहा था। उसकी ऊर्जा मुख्यतः प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) के बाद यूरोप से अमेरिका आने वाले रोमन कैथोलिक और यहूदी आव्रजक का विरोध करने में खर्च हुई।

अंततः कठोर प्रशासनिक क़दमों ने उनकी कमर तोड़ दी। जबकि भारत में संघ को राजनीति में तिलक और हिन्दू महासभा की बनायी जमीन और समाज में हिन्दू-मुस्लिम खींचतान की हवा रास आती गयी थी। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद के राष्ट्रव्यापी आक्रोश ने ही उसके मार्च को पस्त किया।

उस दौर में संघ, मराठी चितपावन ब्राह्मण श्रेष्ठता और क्लान, नार्डिक प्रोटेस्टेंट व्हाइट श्रेष्ठता की अवधारणा को केंद्र में रखने वाले संगठन रहे। कालांतर में दोनों ने संशोधित रणनीतियां चुनीं। आज क्लान और संघ विचारधाराएं समान रूप से मुस्लिम विरोध राजनीति की राष्ट्रवादी धुरी पर सत्ता संतुलन बैठा रही हैं। संयोग से आज दोनों के निशाने पर नफरत के रास्ते पर बढ़ते रहने के लिये एक जैसे उत्प्रेरक राष्ट्रीय हौव्वे भी उपलब्ध हैं- मुस्लिम आतंकी और मुस्लिम आव्रजक।

अमेरिका में, गृहयुद्ध (1861-65) में मिली पराजय और परिणामस्वरूप दास प्रथा की समाप्ति ने दक्खिन संघ के पराजित राज्यों में क्लान का पहला संस्करण पैदा किया था। स्वाभाविक रूप से उनके हिंसक निशाने पर विजेताओं की ‘रिकंस्ट्रक्शन’ नीतियां और आजाद हुये अफ्रीकी मूल के अमेरिकी रहे। 1870 के दशक में क्लान विरोधी कानूनों के व्यापक इस्तेमाल से उसकी हिंसा को कुचला जा सका।

1876 के राष्ट्रपति पद पर चुनाव के विवादित नतीजों को लेकर हुए दोनों पक्षों के राजनीतिक समझौते से इन राज्यों से फेडरल फौजें हटा ली गयीं और इनमें कुछ हद तक व्हाइट रेडीमर्स का बोलबाला स्वीकार्य हो गया। इससे भी लोगों में क्लान की अतिवादी अपील कमजोर होती गयी।

आधुनिक दौर में क्लान की तरह संघ भी एक बेहद पिछड़ी विचारधारा सिद्ध है। उसे भी अपने अंध राष्ट्रवाद और मानवाधिकार विरोध के बरक्स तथाकथित सांस्कृतिक मूल्यों और सनातनी गौरव का नैतिक चैंपियन बने रहना है। क्लान का इतिहास बताता है कि जहरीली विचारधारा की उम्र लम्बी हो सकती है, लेकिन उनके सैन्यवादी संगठन कानूनन ध्वस्त किये जा सकते हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में राहुल गांधी को राजनीति के जनेऊ अवतार में मानसरोवर यात्रा का साक्षी बनते देखना उनके पिता स्वर्गीय राजीव गांधी की याद दिला गया। राजीव के नेतृत्व में कांग्रेस भाजपा के टर्फ पर उतरती गयी थी और पिटती भी। खालिस्तानी आतंक की पृष्ठभूमि में इंदिरा गांधी की हत्या से कांग्रेस को लहलहाती वोट फसल हासिल हुई थी।

इसी ललक में, उनके कार्यकाल में, शाहबानो, हाशिमपुरा-मलियाना, भागलपुर, राम मंदिर शिलान्यास जैसे साम्प्रदायिक पड़ाव बनते गये। यहां तक कि, बोफोर्स चक्रव्यूह से निकलने के लिए वे नवम्बर 1989 में अयोध्या के विवादास्पद स्थल पर पूजा के बाद राम राज्य लाने के वादे के साथ चुनाव प्रचार में निकले और भाजपा राजनीति को और बल दे गये।

राहुल के लिये भी ज्यादा वक्त नहीं है- संघ के टर्फ पर खेलोगे तो फिसल जाओगे!

Next Story

विविध