कुमार वीरेंद्र त्रिलोचन की परंपरा के कवि हैं। उनके यहां भोजपुर के खेत-खलिहानों और मौसम से संबंधित ढेरों कविताएँ हैं जिनमें आम खेतिहर मजूर-किसान की पीड़ा को जगह मिली है। भोजपुर के खेत-खलिहानों के अनुभवों से उपजी उनकी कविताएँ अपना अलग टोन रखती हैं। इन कविताओं में कवि गाँव-जवार की स्थितियों को याद ही नहीं करता, कई बार उनका बारीक विश्लेषण भी करता है-'माँ घर-घर/घुस, पीट-पीट सूप, आगे-आगे/ भगा रही दलिदर, और दलिदर, माँ के पीछे-पीछे, चल रहा...'
‘लालटेन जलाना’ विष्णु खरे की चर्चित कविता है। खरे अपनी लालटेन इस धैर्य से जलाते हैं कि उसकी चमक से हिंदी कविता अलोकित होने लगती है। ‘मेरी यह लालटेन’ शीर्षक से एक कविता वीरेंद्र के यहां भी है। वीरेंद्र की यह लालटेन चाहे कविता में वो चमक पैदा न कर पाती हो पर उनके धैर्य और साहस को बयाँ जरूर करती है, अपनी चमक से चौंधियाने की बजाय- 'मुझे लालटेन की रोशनी में/ अंधेरे के बहुत बड़े-बड़े पाँवों के न गिने जा सकें/ उतने चिह्न साफ-साफ दिखाई पड़ते हैं/ उसका मुँह ढूँढ़ता हूँ तो घर के छप्पर पर होने का एहसास देता है/ मैं जानता हूँ अभी मुझे समय लगेगा/ उसकी आँखों में लालटेन के साथ प्रवेश करने में...'
‘बाधा’ कुमार की एक त्रासद कविता है। इसे पढ़कर मायकोवस्की की आत्महत्या के पूर्व लिखी कविता याद आती है। वीरेंद्र के यहाँ प्रताड़नाएँ जुदा हैं, पर मुक्ति के इस दरवाजे पर उनकी दस्तक बहुत भारी और बैठती हुई है-'छत पर बिल्लियाँ झगड़ रही हैं/ गली में रो रहे हैं कुत्ते/ एक आदमी शायद आज की रात भी/ आत्महत्या का निर्णय नहीं ले पाएगा।' आइए पढ़ते हैं कुमार वीरेंद्र की कुछ कविताएं -कुमार मुकुल
दलिदर
माँ घर-घर
घुस, पीट-पीट सूप, आगे-आगे
भगा रही दलिदर, और दलिदर, माँ के पीछे-पीछे, चल रहा
छिपे-छिपे, माँ ज़ोर ज़ोर से, पीट, पीट रही सूप, बीतती रात
सोया ही होगा दलिदर, दिखा रही दीया, भागे
इस रास्ते, दुआर से, भागे पिछवाड़े
खिड़की से सरपट
माँ सुकून में
भगा रही दलिदर, दलिदर सुकून में
कि देख न पा रही, बुढ़िया उसे, चिढ़ा रहा मुँह दलिदर, चढ़ते जाड़ा
एक हाथ में दीया-सूप, एक हाथ से पीट रही माँ कँपकँपा रही, सब
बहू-बेटे, सोए ऐन-चैन से, रजाई में गरमाए, देख कौन रहा
माँ भगा रही, घर-घर दलिदर, और दलिदर
माँ को ‘बुढ़िया’ कह रहा
और वह सुन न पा रही
जीभ बिरा रहा, देख न पा रही, देख रहा मैं, और मुझे भी
चकमा दे रहा दलिदर, मैं जब कहना चाह रहा, माँ आगे नहीं पीछे, कि चूल्हे में जा छिपा
और कहने को हुआ, चूल्हे में है, तसला-पतुकी में घुस लुका बैठा, उसकी यह छल-छलाँग
कहने ही जा रहा, कि दीवाल पर छिपकली की तरह, चढ़ गया ढेर ऊपर, छड़ी
से माँ को चाह रहा बताना, फुर्र से पखेरू-सा, उड़ छप्पर पर बैठ
हिलाने लगा मुंडी-चोंच, ओह! यह कैसी विडम्बना
कि देख रहा मैं दलिदर और
भगा रही माँ
और वह भी, पीट-पीट सूप
अरे जब घर में रो रहा बच्चा, जाग नहीं रहे माँ-बाप, वे भी
तुम्हारा कर रहे इंतज़ार, सिर्फ़ तुम्हारे भगाने से, कैसे भागेगा, माँ, दलिदर, माँ दलिदर भगाते
भगाते-भगाते, घर-बाहर डीह में चली गई है, चली गई है माँ, तो घर-घर, जाने कब घुस, दौड़
लगाने लगा दलिदर, मैं दलिदरबत्ती ले, घर-घर घुस देख रहा ख़ाली, सूना तसला
ढनक रहा, नहीं बची रोटी, कहीं माँ भूखी तो नहीं, पतुकी में आटा
नहीं, बखार-घर में, एक-दो बोरे भरे, खलियाय फेंके
कोने में, यानी बोने का अन्न भी
अब खा रहे सब
भरसक बोआई को
अकेले क़र्ज़दार हो रहा छोटा भाई, और उसका बच्चा
जब मतारी को दूध ही नहीं, रोएगा नहीं, सोचते कि खोजते, निकला आँगन में, देख
रहा चारों तरफ़, लग रहा हिल रहा, शून्य में घर, अब गिरा कि तब, कोई सहारा ढूँढ़ने
को, लड़खड़ाता बेचैन, कि किसी ने दोनों कान, कर दिए सुन्न, बैठ गया
पकड़े, गहन कूप अँधेरा, दिख न रहा कोई, फिर मारा
किसने ? तब तक सुन रहा, कोई हँस
रहा, लेकिन कहाँ ?
ओह! यह तो
मेरे भीतर, हँस रहा दलिदर
दौड़ पड़ा घर बाहर, चिल्ला रहा, मत पीटो सूप, माँ
मत पीटो, पर वह कहाँ सुन रही, खड़े-खड़े देखता
ताकता रहा कि माँ, नहीं भगा रही दलिदर
दलिदर भरमा रहा, भरमा
रहा, माँ को !
खुश हो जाइए पंडित जी
खुश हो जाइए पंडित जी
कि अब गिद्ध नष्ट होने को हैं
कौवे भी पहले जितने नहीं दिखते
कम दिखने लगे हैं काग
पंडित जी खुश हो जाइए
कि जब रहेंगे ही नहीं तो आपके जजमानों के छप्पर के उपर
कहां से बैठेंगे गिद्ध
इसलिए बचें गृहत्याग की आशंका से
कि होत भोर कौओं की कांव-कांव सुन
गरियाने से छुटकारा मिलने को है
और जुड़वे काग देख
मरनी की ख्बर पेठाने से
मिलने वाली है मुक्ति
जी, पंडित जी, हो जाइए खुश
वैसे तो आपके अपनों ने ही गढ़े ये जंजाल
तो भी चिंतन से ज्यादा बेहतर है
चिंतित होना उससे बेहतर दुखी होना
और इन सबसे बेहतर है सेहत के लिए खुश होना
आप खुश हो जाइए पंडित जी
लेकिन... लेकिन जब देखता हूं
बिल्ली का रास्ता काटते
और लोगों को अपना रास्ता बदलते या थुकथुकाते
या बकरी के छींकने पर किसी को वापस घर लौटते
कुछ देर रूक फिर बाहर निकलते
लगता है ऐ दुनिया वालों
कि पंडित जी से
इतनी जल्दी
खुश हो जाइए पंडित जी, कहना
बहुत बड़ी खुशफहमी है।
क़रीब
कहते थे बाबा -
जिस वृक्ष की जड़ें, ज़मीन में
जितनी गहरी होती हैं, उसका आसमान
उतना ही, उतना ही
उसके
क़रीब
होता है!