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विमर्श

किसान को उल्लू बनाने वाले दो लोकप्रिय नारे

Janjwar Team
4 Jun 2018 4:10 PM GMT
किसान को उल्लू बनाने वाले दो लोकप्रिय नारे
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लागत का निर्धारण जब तक सरकारों में बैठे शहरी बाबू करेंगे तब तक किसानों का यही हाल रहेगा। अभी समय है सरकारी—शहरी बाबुओ चेत जाओ, अन्यथा किसानों को अगर मरना आता है तो तुम्हारा दाना पानी बन्द करना भी आता है...

राजकुमार सचान होरी

अन्नदाता कह कर ठगने का काम हुआ है किसानों को इस देश में सदियों से। इतिहास के किसी काल को देखिये किसान की माली हालत ठीक नहीं रही। अंग्रेजों के समय सबसे अधिक किसान की हालत खराब हुई।

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तत्कालीन समय के किसानों की इतनी दुर्दशा थी कि वह भिखारी की श्रेणी में पहुंच गया था। जमीदारों ने तो उसकी रीढ़ ही तोड़ दी थी, पर इसी काल में कुछ कवियों ने उसको बेवकूफ बनाया यह कहकर कि उत्तम खेती मध्यम बान। निषिध चाकरी भीख निदान। जिन कवियों ने यह लिखा उनके परिवारों ने कभी खेती नहीं की, पर सत्ता के साथ साजिश करके ऐसे लोगों ने किसानों के अंदर के विद्रोह को कम किया। बेचारा किसान हाड़तोड़ मेहनत करता रहा और भुलावे में रहा कि उत्तम खेती है।

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एक और शब्द किसान के लिए गढ़ा गया 'अन्नदाता'। वह इस शब्द के माध्यम से व्यवस्था से फिर ठगा गया। वह स्वतंत्र भारत में भी भूखों मरता रहा, आत्महत्या करने को विवश होता रहा पर अन्नदाता नाम से खुश होकर खेती में मरता खपता रहा। अन्नदाता किस बात का खुद और उसका परिवार अन्न, और जरूरी रोटी कपड़ा, मकान के लिये रोये लेकिन अन्नदाता बना रहे।

एक और नारा उसे ठगने के लिये दिया गया कि जय जवान, जय किसान। जबकि सत्ता ने किसानों और जवानों की उपेक्षा ही की। क्या 70 साल काफी नहीं थे किसानों की माली हालत ठीक करने के लिए? किसानों की लागत बढ़ती गयी पर बिक्री मूल्य इतना ही बढ़ा कि खेती की आमदनी कम होती रही, जिससे किसान बुरी दशा में आता गया। इस देश की सत्ता का चरित्र शहरी रहा है और अभी भी है, उसने किसानों के लिये दिल से कभी काम किया ही नहीं। बस वोटों के लिये एक रस्म अदायगी भर होती रही।

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एक तो सरकारों को चाहिए कि कृषि पर जनसंख्या का भार कम करे। आज 30% जनसंख्या का बोझ ही कृषि उठा सकती है, पर है 70%। यह 40% का अतिरिक्त भार खेती से शीघ्र कम करना जरूरी है। दूसरा, उपाय मार्केटिंग को आधुनिक डिजिटल बनाना। किसानों से उपभोक्ता के बीच मे सरकारी और गैर सरकारी बिचौलियों की भरमार है और ये सारे किसानों को मिलने वाले पैसे की बंदरबांट करते आये हैं।

मंडी समितियों का ढांचा किसान हितैषी कभी नहीं रहा। मंडियों में आढ़ती, बिचौलिये पूल कर लेते हैं और किसान के उत्पाद को बहुत कम पैसों में नीलामी होने देते हैं। अक्सर किसान को अपनी सब्जियों का भाड़ा तक नहीं मिलता और वह मजबूर होकर अपना सामान लागत से भी आधी, चौथाई कीमत में बेच जाता है या फिर सारी सब्जियां या अन्य उत्पादन गुस्से में फेंक कर चला जाता है।

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यह घटनायें आम हैं। आज किसानों की हड़ताल के समय जब ये शहरी, किसान को दूध, सब्जियां सब्जियां सड़कों में फेंकते हुये देखते हैं तो आश्चर्य होता है या ये किसानों पर मूर्खतापूर्ण आरोप लगाते हैं।

आज आवश्यकता यह है कि हम किसान को बेवकूफ बनाना बन्द करें। अन्नदाता कह कर या जय जवान जय किसान कहकर हम उसे बहुत ठग चुके हैं। लागत का निर्धारण जब तक सरकारों में बैठे शहरी बाबू करेंगे तब तक किसानों का यही हाल रहेगा।

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अभी समय है सरकारी, शहरी बाबुओ चेत जाओ, अन्यथा किसानों को अगर मरना आता है तो तुम्हारा दाना पानी बन्द करना भी आता है।

(पूर्व प्रशासनिक अधिकारी राजकुमार सचान होरी बौद्धिक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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