इस पुरानेपन के बीच कुछ है जो असंदिग्ध रूप से बदल गया है...
युवा कवि सौम्य मालवीय की कविता 'कुछ है जो बदल गया है'
सड़क वही है
किनारे के पेड़ वही
भीड़-भाड़
बाज़ार का मामूलीपन वही
शाम की रोशनियां
सुबह की धुंध
दिन का दुचित्तापन वही
घरों के बाहर बैठकें
चाय की गुमटियों पर
जुटान वही
रोज़मर्रा की वही खट-पट
प्रतिदिन की परीक्षाएं वही,
पर देखे-सुने-महसूस किये
इस पुरानेपन के बीच
कुछ है जो असंदिग्ध रूप से
बदल गया है...
जैसे समोसे की दुकान पर
'थोड़ी और चटनी'
माँगता हुआ
एक दोस्त दूसरे से कह रहा है
कि अगर पहचान दिखाने से
परहेज़ है तो
पतलून उतार कर ही
देखना पड़ेगा
और एक-दूसरे को काटती
आवाज़ों पर
एक बेशर्म ठहाका
आग की तरह
सवार हो जा रहा है,
सुबह-सुबह की मेट्रो में
जिसकी फ़र्श पर
दुबली-पतली नींद रेंग रही है
एक परिवार
दाख़िल हो रहा है
और दो औरतें
आपस में फुसफुसा रही हैं
आज तो सारा पाकिस्तान
इसी डिब्बे में आ गया
और ये बात शायद
सुन भी ली गई है!
किसी सरकारी कार्यालय में
एक कर्मचारी अपने अधिकारी से
इलेक्शन ड्यूटी कहीं और
लगवाने की मिन्नत कर रहा है
क्योंकि उसकी ड्यूटी
'दंगे' वाले इलाके में
लगा दी गई है,
हवा में पीएम स्तर वही है
हाँफने और खाँसने के
सिलसिले वही
पर उसकी तासीर
यक़ीनन बदल गई है,
पड़ोस के भाईसाहब
पड़ोस के भाईसाहब को
शहर के बदबूदार इलाक़ों
के बारे में बता रहे हैं
जहाँ कीड़े-मकौड़े पलते हैं,
उनकी आवाज़ ऊंची है
और हर बात एक घोषणा है,
अपनी बेटी को गोद में लिए
कॉलोनी का परचूनिया
लिंग की नोक पर
धर्म-परिवर्तन करवाने की युक्ति बता रहा है
और ग्राहक वापस किये हुए
पैसे गिन रहे हैं!
एक भाई
बस स्टॉप पर बैठा है
और अपने मोबाइल पर
कई खिड़कियाँ खोले
सब पर चुनिंदा शस्त्रों की
बौछार कर रहा है,
जिनका तरकश खुद
उसका ज़ेहन है
और उसे
अपनी भूमिका पर गर्व है!
अपनी सुविधाओं पर
हमें झिझक कब थी
पर गुहार लगा रहे
लोगों को देखकर
सबसे अव्वल,
सबसे पहले यह सोचना
की सड़क घिर रही है,
रस्ता बंद हो रहा है,
संवेदनहीनता तो है,
पर उनके
कुचल दिए जाने की
आस लगाना
जैसाकि यह पत्रकार
एक राष्ट्रीय दैनिक के
संपादकीय में लगा रहा है
या जैसाकि वे भले-मानुस
अपनी शाम की टहल में
अपने साथी रिटायर्ड दोस्तों के साथ उम्मीद कर रहे हैं
निःस्संदेह शून्यता का
नया मेयार है!
वही है,
वही है,
तक़रीबन सब कुछ वही है
पर यूँ नक़ाब पहनकर
बेनक़ाब होते लोगों को
इससे पहले कब देखा था,
निशाने को
बहाना कहते आये दोस्तों को
हत्यारे के प्रति
यूँ आसक्त होते कब देखा था,
कराहों पर कामोद्दीपित होते
जाने-पहचाने चेहरों को,
राष्ट्र के भूगोल को
बलात्कारों से तय कर दिए
जाने की उतावली दिखाते
किशोरों को
कब देखा था इससे पहले!
चीज़ें छिटक आती थीं
सतह पर पहले भी
सतह के पीछे का सच
था पहले भी
पर यूँ सतह का सच
इससे पहले कब देखा था!
बेबसों को घुसपैठिया,
बच्चों को
चलते-फिरते एटम बम,
औरतों को आतंकवादी
पैदा करने की मशीन
बताने की
ये भरी सभा में
या बीच चौराहे पर
नितांत अनौपचारिकता में
यूँ ही कह दी गईं
और कह के
यूँ ही सुन ली गईं बातें
कब सुनी थीं इससे पहले!
वही है, वही है
दिन भर की थकान
रात का आराम
दृश्य-परिदृश्य
घिसा-पिटा
धूसर-धूमिल-धुना-धुना-धुँआ-धुँआ,
कहना-सुनना-गप-शप-बोल-अक्षर-लिपियाँ,
पर रोज़ की भाषा में
दंगों की भाषा का साया
और ख़ून माँगती उदासीनता
कुछ तो है, कुछ तो है
जोकि साफ़ तौर पर
बदल गया है
की लगता है कि
हमारे इस सच से
हमारा छुपे तौर पर
गुनहगार होना बेहतर था,
इस सीना ठोंक
लज्जाहीनता से
बेहतर था
जब हम
अपने इस सच को लेकर
कम से कम
थोड़े से तो
सशंकित थे।