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शिक्षा

बिना यूपीएससी पास किये नौकरशाह बनाये जाने पर हंगामा क्यों

Janjwar Team
16 Jun 2018 5:20 PM IST
बिना यूपीएससी पास किये नौकरशाह बनाये जाने पर हंगामा क्यों
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अगर इसमें भी भाई भतीजावाद लागू हुआ फिर तो वही हाल रहेगा, लेकिन अगर सही तौर पर यह योजना लागू हुई तो निश्चित ही अंग्रेजों के समय से चली आ रही नौरशाही में बुनियादी बदलाव देखने को मिलेगा

नौकरशाही में ‘लेटरल एंट्री’ पर शैक्षणिक मसलों के विशेषज्ञ प्रेमपाल शर्मा का विश्लेषण

पिछले तीन दशकों से तो नौकरशाही में सुधार की जरुरत पर विमर्श चल ही रहा है।लेकिन स्टील फ्रेम के आगे हर सरकार झुकती रही है। नतीजा केवल वेतनमान तो आसमान तक बढ़ गए, सुविधाएँ भी यूरोप, अमेरिका की मिल गयी, नौकरशाही का निकम्मापन नहीं सुधरा। इसीलिए केन्द्र सरकार के ताजा निर्णय ने भारतीय नौकरशाही में खलबली मचा दी है।

निर्णय है कि सरकार के संयुक्त सचिव स्तर के पदों पर बाहर से भी प्रतिभाओं उर्फ लेटरल एंट्री की नियुक्ति के दरवाजे खोलना। हजारों पद हैं केन्द्र की लगभग पच्चीस केन्द्रीय सेवाओं में। जाहिर है भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा, विदेश सेवा भी इसमें शामिल है। हो सकता है आने वाले वक्त में केन्द्र के समानांतर राज्य सरकार और अन्य उपक्रमों के समान पदों पर भी ‘लेटरल एंट्री’ की शुरुआत हो।

भारतीय नौकरशाही में बदलाव के लिए आजादी के बाद का सबसे बड़ा और गंभीर फैसला है। नौकरशाही का पूरा चौखटा ही बदल जाएगा। इतना ही महत्वपूर्ण विचार सरकार के विचाराधीन यह है कि चुने हुए अधिकारियों को उनके विभागों का आबंटन केवल यूपीएससी के नम्बरों के आधार पर ही नहीं किया जाये, बल्कि प्रशिक्षण प्रक्रिया के दौरान उनकी क्षमताओं अभिरुचियों आदि को साथ मिलाकर हो, जिससे प्रशासन को उनकी योग्यता का लाभ मिल सके।

पहले बात ‘लेटरल एंट्री’ की। भारतीय प्रशासनिक सेवाएं ब्रिटिश कालीन आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विस) की लगभग नकल है। आज़ादी के वक्त इसकी जरूरत भी थी। सरदार पटेल के शब्दों में ‘भारत की एकता, अखंडता के लिए एक मजबूत स्टील फ्रेम उर्फ प्रशासनिक ढांचे की, आईसीएस का ढांचा लगभग सौ वर्षों में रूप ले पाया था। हालांकि यह उपनिवेशी हितों के ज्यादा अनुकूल था। लेकिन आजादी के वक्त विभाजन से लेकर सैकड़ों समस्याओं के मद्देनजर बिना मूलभूत परिवर्तन के इसी ‘उपनिवेशी’ सांचे की स्वीकृति दे दी गयी।

अफसोस की बात यह कि इक्का—दुक्का उम्र, परीक्षा प्रणाली, विषय के परिवर्तनों के अलावा कोई बड़ा परिवर्तन आज तक नहीं हुआ। एक उदाहरण से इसे बेहतर समझा जा सकता है। सिविल सेवा परीक्षा की तरह ही यूपीएससी हर साल इंजीनियरिंग की भरती भी करती है।

आज़ादी से लेकर अब तक सिर्फ सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल और सिग्नल इंजिनियर ही भरती होते हैं, अब जबकि कंप्यूटर, केमिकल, आर्किटेक्ट, माइंस, समुद्री, एनवायरनमेंट जैसे पचासों कोर्स आ गए हैं, सरकार सिर्फ चार इंजिनियरिंग कोर्स तक सिमटी है। वक़्त के साथ चलना ही नहीं चाहती सरकार।

नतीजा सामने है एक बेहद लुंजपुंज व्यवस्था, भ्रष्टाचार, अंसवेदनशील हाथी जैसे आकार की नौकरशाही। कहने की जरूरत नहीं इसमें ज्यादा दोष राजनीतिक स्वार्थों का है जिसमें उपनिवेशी बुराइयां तो बनी ही रहीं, नव स्वाधीन राष्ट्रों के वंशवाद, भ्रष्टाचार अनैतिकताएं भी राज्यों के उत्तरदायित्वों से पिंड छुडाती हुई शामिल होती गयीं।आरामतलब बाबुओं को भी यह खूब रास आता है।

मौजूदा उच्च नौकरशाही में भर्ती यूपीएससी द्वारा होती है। नि:संदेह देश की सबसे कड़ी परीक्षा। तीन स्तरों पर। वर्ष 2017 में दस लाख से ज्यादा परीक्षार्थियों में से चुने गये लगभग एक हजार। इनकी मेरिट और प्राथमिकता के आधार पर इन्हें भारत सरकार के पच्चीस विभागों, आईएएस, पुलिस, विदेश, राजस्व, रेलवे में बाँट दिया जाता है।

ये ही अफसर अपनी पदोन्नति के क्रम में अपनी अपनी सेवाओं के उच्चतम स्तर निदेशक, ज्वाइंट सैक्रेटरी, सैक्रेटरी, बोर्ड मेंम्बर आदि के पदों पर पहुंचते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर इस ‘स्टीलफ्रेम’ में ‘बाहरी परिन्दा पर भी नहीं मार सकता’। आपस में थोड़ा बहुत अस्थाई आवाजाही जरूर होती है जिसे ‘डेपुटेशन’ माना जाता है।प्रशिक्षण आदि भी इतने सतही हैं जो इनकी क्षमताओं को बढ़ाने में कोई मदद नहीं कर पाता। ट्रेनिंग में भी आमूल चूल सुधार की जरूरत है।

अब नये निर्णय के अनुसार उच्च पदों पर सरकार देश की उन प्रतिभाओं को भी नियुक्त कर सकती है, जिन्होंने यूपीएससी की परीक्षा पास नहीं की। वे निजी क्षेत्र, विश्वविद्यालय, सामाजिक, आर्थिक, विद्वान, जाने माने इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार पत्रकार कोई भी हो सकता है। ये देश-विदेश में बिखरी वे प्रतिभाएं होंगी, जिन्होंने अपने अपने क्षेत्रों में ऊंचाई पाई है, परिवर्तन के प्रहरी बने हैं। सरकार यह दरवाजा खोलकर उनकी प्रतिभा, क्षमता का इस्तेमाल पूरे राष्ट्र के परिवर्तन के लिए कर सकती है।

उदाहरण के लिए नंदन नीलकेणी जो सूचना प्रौद्योगिकी के धुरंधर हैं, उनका आधार कार्ड का विचार पूरे देश के लिए सार्थक साबित हुआ है। किसी वजह से किसी वक़्त, यदि ये प्रतिभाएं यूपीएससी में नहीं बैठी तो इसका मतलब उन्हें सदा के लिए राष्ट्रहित की नीतियों से वंचित करना नहीं होना चाहिए।

यदि कश्मीर या लद्दाख के दुर्गम पहाड़ों में रेल चलाने के लिए ऐसे इंजीनियर मार्किट में उपलब्ध है जिनके अनुभव से दुनियाभर को फायदा हुआ है तो भारत सरकार या रेल विभाग में उनका योगदान क्यों न हो? स्वास्थ्य मंत्रालय में एक घिस-पिटे यूपीएससी से चुने बाबू उर्फ ज्वांइट सैक्रेटरी की मदद के लिए एम्स का प्रसिद्ध कुशल डॉक्टर प्रशासकीय अनुभव वाला जॉइंट सेक्रेटरी क्यों नहीं?

क्या एक वक्त यूपीएससी की परीक्षा पास करना ही सदा के लिए और सभी विभागों में ‘तीसमारखां’ उर्फ सर्वोच्च नीति निर्माता होने का हकदार माना जाना चाहिए? क्या संस्कृति, शिक्षा मंत्रालय को उस संयुक्त सचिव या सचिव के सुपुर्द कर देना चाहिए जिसका पूरी उम्र किताब, कला, नृत्य, नाटक या विश्वविद्यालय से कोई वास्ता ही नहीं रहा हो? नौकरशाह इनसे सीखेंगे और निजी छेत्र के ये लोग सरकार से।

ऐसा नहीं है कि ‘लेटरल एंट्री’ का विचार इस सरकार का कोई मौलिक विचार है। मौलिकता निर्णय को लागू करने में है। छठे वेतनमान आयोग ने वर्ष 2008 में भी ‘लेटरल एंट्री’ का विचार दिया था। नब्बे के बाद शुरू हुए उदारीकरण-भूमंडलीकरण की हवा ने परिवर्तन के कई रास्ते खोले।

स्टार्टअप, निजी उद्योग और सबसे प्रमुख सूचना क्रांति ने यह आधार बनाया कि जितनी तेजी से दुनिया, विश्व व्यवस्था बदल रही है भारतीय नौकरशाही नहीं। बल्कि राजनीतिक दुरभिसंधियों के चलते भारतीय नौकरशाही दुनिया की ‘भ्रष्टतम, कामचोर, अक्षम, अंसवेदनशील’ हो गयी है। इसकी क्षमता में सुधार ‘लेटरल एंट्री’ जैसी प्रक्रिया से ही संभव है!

मौजूदा नौकरशाही को जब निष्पक्ष, साहसी, निर्णयात्मक नौजवान साथियों, संयुक्त सचिवों से चुनौती मिलेगी तो ये अजगर भी बदलेंगे। वरना अभी तो यदि एक बार ये चुन लिए गए तो नब्बे प्रतिशत बिना अपनी प्रतिभा, दक्षता को आगे बढ़ाये भी पूरे आराम से उच्चतम पदों पर पहुंच जाते हैं और फिर रिटायरमेंट के बाद लाखों की प्रतिमाह पेंशन यूपीएससी से चुने जाने का देवीय दंभ अलग।

यही कारण रहा कि यूपीए सरकार भी इन्हीं नौकरशाहों और विशेषकर इनके जातीय संगठनों के दबाव में चुप्पी साधे रही। तत्कालीन सचिव कार्मिक मंत्रालय ने ‘लेटरल एंट्री’ का खुलकर स्वागत किया था, लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति बहुत कमजोर साबित हुई।

हालांकि यूपीए सरकार की कई हस्तियां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, मंटोकसिंह आहलूवालिया, कृषि सचिव रहे स्वामीनाथन, पेट्रोलियम सचिव केलकर समेत कई मुख्य आर्थिक सलाहाकार, सैक्रेटरी विज्ञान और तकनीकी मंत्रालयों में पिछले दरवाजे उर्फ लेटरल एंट्री से ही सरकार में शामिल होते रहे हैं। ब्रिटिश सिविल सेवा और कई यूरोपीय देशों में यह मॉडल पूरी सफलता से चालू है। मौजूदा सरकार द्वारा इसे पारदर्शी और नियमित व्यवस्था दिए जाने की जरूरत है।

नौकरशाही के ब्राह्मण –पुरोहितवाद की इमारत को पहली बार पूरे साहस के साथ धक्का मारा गया है, लेकिन मामला बहुत जटिल है। यदि प्रशासनिक वैज्ञानिक दक्षता की बजाए 'विचारधारा’, जाति, धरम, पंथ विशेष के आधार पर लेटरल एंट्री होने लगी तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

इतनी ही सावधानी की जरूरत वैज्ञनिक और तकनीकी पदों पर नियुक्ति की है। क्या रेल इंजन, डिब्बा कारखाना के शीर्ष पर किसी ऐसे बाहरी को बिठाना उचित होगा जिसका कोई अनुभव ही न हो। क्या यूपीएससी जैसी निष्पक्ष संस्था को यह काम सौंपा जायेगा जो सामाजिक परिवर्तनों की आहटों को समझते हुए ऐसे अधिकारियों को तैनात करे?

उम्मीद की जानी चाहिए यह नियुक्ति पूरक के तौर पर तीन या पांच वर्ष जैसी अवधि के लिए होगी। एक परिवर्तन इसी समय यह लागू किया जाए कि सभी नौकरशाहों की पदोन्नति एक क्षमता परीक्षा से ही हो और उन्हें भी साठ वर्ष की निश्चित सेवा अवधि से पहले भी आज़ाद कर दिया जाए। सेना में यही होता है।

मौजूदा नौकरशाही की सबसे बड़ी कमी अतिरिक्त सुरक्षा बोध, नौकरी की गारंटी है।पिछले कुछ वर्षों में गोपनीय रिपोर्ट उर्फ़ वार्षिक मूल्यांकन भी एक तमाशा बनकर रह गया है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए इन सबमें परिवर्तन की तुरंत जरूरत है। शुरुआत के लिए संवैधानिक संस्था यूपीएससी को ही यह दायित्व सौंपा जाना चाहिए।

देश का यकीन भी है इस पर। लेकिन पूरी सावधानी और पारदर्शिता से। उदाहरण के लिए नदियों की सफाई, जल व्यवस्था के लिए यदि बाहरी आदमी को लें तो वह उस क्षेत्र का विशेषज्ञ हो, न कि संस्कृत, वेद या मार्क्स का। परम्परावादी, चापलूस नौकरशाहों और राजनेताओं से मुक्ति का कोई रास्ता खोजना ही होगा।

नौकरशाही में यह बदलाव क्रांति से कम नहीं है। मगर आप जानते हैं कि यदि क्रांति सही हाथों में न हो तो क्या होता है। सभी क्रांतियां सफल भी नहीं होती। फिर भी देश इस परिवर्तन का स्वागत करता है। लोकतंत्र की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए नौकरशाही को बदलते समय के साथ बदलना ही होगा।

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