पुलिसिया कहानी ही आखिरी सच तो फूंक डालिए कोर्ट-कचहरी और जांच एजेंसी
न्यू इंडिया अब देश जैसा नहीं रहा, यह तो एक कबीले जैसा हो चुका है जिसमें केवल सरदार का हुक्म चलता है और सरदार के खिलाफ बोलने वाले को मृत्यु। सोशल मीडिया ने सभी के सोचने की शक्ति क्षीण कर दी है, हमें एक भीड़ तंत्र का हिस्सा बना दिया गया है...
महेंद्र पांडेय की टिप्पणी
हैदराबाद में कल देश का एनकाउंटर हो गया, सत्ता के रखवाले सदन में चिल्ला-चिल्ला कर इसे जायज ठहराते रहे, भाड़े की भीड़ पुलिसवालों पर फूल बरसाती रही। यह तमाशा दिन भर सरकारी संरक्षण में पल रहे मीडिया में छाया रहा। अकेले रवीश कुमार इसपर प्रश्न उठाते रहे और साथ ही खतरनाक भविष्य की और इशारा करते रहे, पर सरकार, मीडिया और जनता को भी पता है कि अकेला चना भांड नहीं फोड़ता। सरकारी संरक्षण में पल रहे मीडिया को जो करना था, उसमें सफलता मिली और रही सही कसर स्मृति इरानी के चीखने के अंदाज और जाया बच्चन के वक्तव्य ने पूरा कर दिया। इन सबके बीच मेनका गांधी ने बेहद संतुलित बयान दिया पर मीडिया के लिए यह तो बेकार था।
पुलिस कमिश्नर जैसे जिम्मेदार पद पर बैठा व्यक्ति बिना किसी जांच के दिनभर बैठा अनाप-शनाप वक्तव्य देता रहा। दस से अधिक पुलिस वाले जो हथियारों से लैस थे, उन्हें चार लोगों ने घेर लिया और पिस्टल भी छीन ली, ऐसी कहानी तो रद्दी कथाकार भी नहीं लिखता। यदि आप जरा सा भी सोच सकते हैं तो यह सोचिये कि एनकाउंटर की पूरी कहानी पहले से ही तय कर ली जाती है, और इसके बाद इसे जायज ठहराने वाला वक्तव्य भी। यह केवल हैदराबाद की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे देश में यही हो रहा है। पुलिस कुछ नहीं है केवल बड़े लोगों और राजनीतिज्ञों के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली है। अपराधियों को बचाने और उन्हें सुरक्षित रखने का काम ही यह कर सकती है और करती भी है। इस मामले में भी यही किया गया है।
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सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद भी ताल-मटोल करते किसी तरह से एफआईआर दर्ज की गयी, फिर जनता में बढ़ते रोष को देखते हुए कहीं से आनन फानन में चार लोगों से कहीं पकड़ कर आ गयी, लगता तो यही है कि इनका उस मामले से दूर तक का रिश्ता नहीं था। पुलिस जिन बयानों की बात करती है या अपराध स्वीकार करने की बात करती है उसे केवल पुलिस ने ही सुना, या फिर उन्हें इसके लिए मजबूर किया। फिर जब फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की बात आयी, तब पुलिस को समझ में आया होगा कि सारा दांव उल्टा पड़ जाएगा इसलिए एनकाउंटर कर मारने का ख़याल आया होगा।
सोचिये, बलात्कारी कितने राजनीतिक रसूख वाले रहे होंगे। उनपर कोई आंच ना आये इसलिए चार निर्दोष लोगों को पुलिस ने पकड़ा, चार दिनों तक जनता को आश्वस्त किया कि यही बलात्कारी हैं और फिर उन्हें मार दिया। अब कोई बचा नहीं है, इसलिए सारा मामला ख़त्म हो गया। पुलिस इस जघन्य काण्ड के बाद भी हीरो बन गयी, मायावती ने तो पहले से ही नीरीहों की एनकाउंटर स्पेशलिस्ट उत्तर प्रदेश पुलिस और जेएनयू के आन्दोलनकारियों का दमन करने के लिए कुख्यात दिल्ली पुलिस को ही इस घटना से प्रेरणा लेने की अपील कर दी। असली बलात्कारी अपने अगले शिकार की तलाश में पुलिस संरक्षण में कहीं घूम रहे होंगे।
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देश को आजादी मिली, बहुत कुछ बदला, पर पुलिस का रवैया और जनता की सोच नहीं बदली। जिस जलियांवाला बाग काण्ड को हम आज भी याद करते हैं और उम्मीद करते हैं कि अंग्रेज सरकार इसके लिए माफी मांगे, उसमें भी केवल सात अंग्रेज अधिकारी थे, बाकी सभी पुलिसवाले जिन्होंने निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाई थीं, सभी भारतीय थे। पर, ना तो जनता और ना ही कोई सरकार इन भारतीय पुलिसवालों की कभी भर्त्सना करती है।
गुजरात, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, छत्तेसगढ, उत्तराखंड, झारखंड, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में फर्जी एनकाउंटर होते रहे और निहाथों और बेगुनाहों को मारकर पुलिसवाले तरक्की लेते रहे। उत्तर प्रदेश में तो मुख्यमंत्री तक दावा करते रहे कि अब अपराधी अपने जान की भीख माँगने लगे हैं, पर यही मुख्यमंत्री बढ़ते अपराधों पर चुप्पी साध लेते हैं और बलात्कारियों को बचाते रहते हैं।
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अब तो केवल पुलिसवाले ही एनकाउंटर कर रहे हैं, या फिर बेगुनाहों को मार रहे हैं, ऐसा नहीं है। पूरी की पूरी सरकारें इसमें संलिप्त हैं। कश्मीर का हाल पूरी दुनिया देख रही है, जहां सरकारी तौर पर 5000 से अधिक लोग नजरबन्द है या फिर जेल में हैं और गृह मंत्री सामान्य स्थिति का दावा करते हैं। नोटबंदी पूरी तरीके से फर्जी एनकाउंटर साबित हो चुका है, पर हमारे आका हैदराबाद पुलिस कमिश्नर की तरह उसका बचाव करते रहते हैं। रोजगार का एनकाउंटर तो बहुत पहले ही किया जा चुका है। अर्थव्यवस्था का एनकाउंटर तो रोज ही हो रहा है। अब तो बढ़ता प्रदूषण एनकाउंटर का एक नया हथियार बन चुका है। सामाजिक ताना-बाना तो वर्ष 2014 से ही मारा जा रहा है।
न्यू इंडिया अब देश जैसा नहीं रहा, यह तो एक कबीले जैसा हो चुका है जिसमें केवल सरदार का हुक्म चलता है और सरदार के खिलाफ बोलने वाले को मृत्यु। सोशल मीडिया ने सभी के सोचने की शक्ति क्षीण कर दी है, हमें एक भीड़ तंत्र का हिस्सा बना दिया गया है। हमें वास्तविकता से कोसों दूर कर दिया गया है, तभी हम कातिलों पर फूल बरसाते हैं और उस पुलिस की तारीफ़ करने लगते हैं जिसके ढाई सशत्र लोगों पर एक निहत्था हावी हो जाता है।