Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

हम अपने युवाओं को भी नहीं बचा सकते

Nirmal kant
7 Jan 2020 8:44 PM IST
हम अपने युवाओं को भी नहीं बचा सकते
x

कोम्परीटेक नामक टेक्नोलॉजी साईट के अनुसार वर्ष 2019 में दिल्ली उन शहरों में शामिल है जहां सुरक्षा और पुलिस की निगरानी सबसे सख्त है। इसी शहर में पुलिस के सामने गुंडे मारपीट कर आराम से चले जाते हैं और पुलिस कुछ नहीं देखने की बात करती है..

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जिस देश में मंच पर खड़े गृहमंत्री टुकड़े-टुकड़े गैंग को सबक सिखाने की बातें करते हों और केजरीवाल, राहुल और प्रियंका का नाम लेकर उनको देश के विभाजन का जिम्मेदार बताते हों, जहां प्रधानमंत्री कपड़े देखकर आन्दोलनकारियों की पहचान करते हों और फिर सरकारी नीतियों का विरोध करते लोगों को संविधान के विरुद्ध आन्दोलन करने वाला घोषित करते हों, उस देश में जेएनयू जैसे मामलों पर बहुत आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए।

हां बीजेपी के दूसरे नेता कभी शहर जलाने की, कभी पाकिस्तान भेजने की तो कभी हत्या करने की बातें खुलेआम करते हों, वहां कुछ भी हो सकता है। जिस देश में सोशल मीडिया पर प्रतिबन्ध का मतलब यह होता है कि आप सरकारी नीतियों के विरोध में कुछ नहीं लिख सकते, पर सरकारी भाड़े के लोग आपके लिए कुछ भी लिख सकते हैं।

भारत एक अकेला देश होगा, जहां के गृहमंत्री यह जानते हैं कि केजरीवाल, राहुल और प्रियंका टुकड़े-टुकड़े गैंग में हैं, पर कार्यवाही नहीं करते। दूसरी तरफ पुलिस के सामने गुंडे लाठियां बजाते रहते हैं पर कोई गिरफ्तार नहीं होता। सोशल मीडिया पर जहर उगलने वाले से मीडिया वाले बात कर लेते हैं, पर पुलिस उन्हें खोज भी नहीं पाती। अब तक इतना कुछ हो चुका है कि सरकार और पुलिस की इन मामलों में संलिप्तता पर कोई संदेह ही नहीं रह गया है।

संबंधित खबर : प्रधानमंत्री मोदी का स्वच्छ भारत अभियान और सर पर मैला उठाते लाखों लोग

पुलिस तो अब एक और हथियार का गैर-कानूनी तरीके से इस्तेमाल कर रही है। यह हथियार है, फेसिअल रिकग्निशन का – यानि आप के चेहरे की तस्वीर से आप को आसानी से खोजा जा सकेगा। किसी जन रैली में इसका इस्तेमाल पहली बार प्रधानमंत्री की नई दिल्ली में 22 दिसम्बर की रैली में किया गया था। ऑटोमेटेड फेसिअल रिकग्निशन सिस्टम सोफ्टवेयर का इस्तेमाल अब तक केवल अपराधियों या फिर गुमशुदा बच्चों को खोजने में किया जाता था और इसका इस्तेमाल हवाईअड्डों, कुछ कार्यालयों और बड़े होटलों तक सीमित था।

दिल्ली पुलिस इसका इस्तेमाल सार्वजनिक तौर पर कर रही है। किसी भी आन्दोलन की किसी न्यूज़चैनल पर वीडियो फुटेज देखिये। कुछ पुलिस कर्मी अपने स्मार्टफोन या फिर कैमरे से केवल विडियो बनाते दिखेंगे। संभव है कि पुलिस इन वीडियोस को फिर ऑटोमेटेड फेसिअल रिकग्निशन सिस्टम में इस्तेमाल कर रही हो।

इन्टरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अपार गुप्ता के अनुसार इस तरह के सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर के लोगों के समूह की निगरानी और इनके प्रोफाइल का विकास गैरकानूनी और संविधान के विरुद्ध है। ऐसा करना सामान्य जनता के समूह बनाने, बोलने और राजनैतिक पसंद के मौलिक अधिकारों का हनन है। ऑटोमेटेड फेसिअल रिकग्निशन सिस्टम क्लाउड कंप्यूटिंग और आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस की मदद से समूह में शामिल लोगों का प्रोफाइल तैयार करता है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2017 में आधार पर फैसले में कहा था कि व्यक्तिगत निजता एक मौलिक अधिकार है। दूसरी तरफ सरकार पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल के जरिये किसी भी संस्थान से उसके किसी भी स्टाफ की निजी जानकारी माँगने की तैयारी कर रही है।

कोम्परीटेक नामक टेक्नोलॉजी साईट के अनुसार वर्ष 2019 में दिल्ली उन शहरों में शामिल है जहां सुरक्षा और पुलिस की निगरानी सबसे सख्त है। इसी शहर में पुलिस के सामने गुंडे मारपीट कर आराम से चले जाते हैं और पुलिस कुछ नहीं देखने की बात करती है। बीबीसी की साईट पर 6 जनवरी को जेएनयू से सम्बंधित दो समाचार आये थे, पहला समाचार तो जेएनयू की घटना के साथ-साथ वहां के छात्रों के समर्थन में देशभर में होने वाले प्रदर्शनों का वर्णन था।

दूसरा समाचार था, क्या भारत अपने युवाओं को सुरक्षित रखने में असमर्थ है। इस खबर में पहले जेएनयू की विशेषताओं की विस्तार में चर्चा है। यह विश्विद्यालय विविधता का एक नायाब नमूना है और गरीब-अमीर, गांव-शहर, हरेक जाति और धर्म का प्रतिनिधित्व करता है। इस सन्दर्भ में यह सही तरीके से पूरे देश का एक आईना है।

संबंधित खबर : अपनी कौम के लोगों के लिए क्यों खड़ा नहीं हो पाया कोई भी इस्लामिक मुल्क ?

सके पूर्व छात्रों में अनेक राजनीतिज्ञ, डिप्लोमैट, कलाकार और विद्वान के साथ-साथ अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता, और नेपाल और लीबिया के पूर्व प्रधानमंत्री भी शामिल हैं। यह भारत की शीर्ष यूनिवर्सिटी है और अनुसंधान और शिक्षण के सन्दर्भ अंतराष्ट्रीय स्तर पर सबसे प्रसिद्द है।

सके बाद बताया गया है कि जिस समय पुलिस मूक दर्शक बने खड़ी थी, उस समय गुंडों का एक दल अन्दर छात्रो को बेरहमी से पीट रहा था, संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहा था तो दूसरी तरफ गेट के बाहर एक गैंग तथाकथित राष्ट्रवादी नारे लगाते हुए पत्रकारों से मारपीट और एम्बुलेंस तोड़ने में व्यस्त था।

रिपोर्ट के अनुसार प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के बदला लेने, संविधान के दुश्मन, अर्बन नक्सल और देशद्रोही जैसे बयानों के कारण एक निश्चित समूह द्वारा हिंसा लगभग कानूनी बन गयी है। इसके बाद बताया गया है कि इस घटना से इतना तो स्पष्ट है कि दिल्ली में क़ानून और व्यवस्था जैसी कोई चीज नहीं बची है और बीजेपी ब्रैंड पॉलिटिक्स का क्या चेहरा है।

राजनैतिक विज्ञानी सुहास पल्शिकर के अनुसार देश में सरकार की नीतियों का समर्थन करती हिंसा और उन्माद अब कानूनी हो चला है और सन्देश और घृणा का वातावरण तैयार हो रहा है। अब समाज उन्मादी हो चला है और इसमें सहनशीलता ख़त्म हो गयी है। एक पत्रकार और जेएनयू के भूतपूर्व छात्र रोशन किशोर के अनुसार हम ऐसे समाज का निर्माण कर चुके हैं जिसमें शिक्षा संस्थानों में भी अलग विचारों को दबाने के लिए दमन के हथकंडे अपनाए जाने लगे हैं और सरकार मूक दर्शक की तरह इसे देखने लगी है।

संबंधित खबर : ऐसी दमनकारी पुलिस इमरजेंसी तो दूर, अंग्रेजों के समय भी नहीं रही

जेएनयू – द मेकिंग ऑफ़ अ यूनिवर्सिटी के लेखक राकेश बताब्याल के अनुसार रविवार को जेएनयू में जो हुआ वैसी मिसाल इसके इतिहास में कभी नहीं मिलती। हालां कि हिंसा के उदाहरण पहले भी मिलते हैं पर वर्ष 2014 के बाद से जिस तरीके से सरकार लगातार इसे निशाना बना रही है, वह पहले कभी नहीं हुआ।

रकार इसके छात्रों की समस्याएं सुनाने के बजाय इनकी आवाजों को कुचलने का काम करने लगी है। ऐसा एक बार नहीं हो रहा है, पर लगभग रोज की घटना हो चली है। यह सब अब दूसरे विश्विद्यालयों में भी किया जा रहा है, हाल में ही जामिया और अलीगढ में हम यह सब देख चुके हैं।

मनेस्टी इंटरनेशनल के अविनाश कुमार के अनुसार यह संकेत खतरनाक है, विरोध का स्वर उठाने वाले युवा अब सीधे सरकार के निशाने पर हैं। इतना तो तय है कि यदि युवाओं को बचाना है तो अब देश को जगना ही पड़ेगा, नहीं तो आपके बच्चों के साथ भी यही होगा।

Next Story

विविध