Begin typing your search above and press return to search.
समाज

अयोध्या वाले शरीफ चाचा को पदमश्री मिलना देश के लिए सम्मान की बात

Janjwar Team
27 Jan 2020 4:00 PM IST
अयोध्या वाले शरीफ चाचा को पदमश्री मिलना देश के लिए सम्मान की बात
x

कल गणतंत्र दिवस यानी 26 जनवरी के मौके पर मोदी सरकार ने देशभर के 118 लोगों को विभिन्न क्षेत्रों में काम करने के लिए पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया है। इन्हीं में से एक नाम है मोहम्मद शरीफ, जोकि लावारिस लाशों के मसीहा के बतौर जाने जाते हैं और लोग उन्हें प्यार से शरीफ चाचा बुलाते हैं। शरीफ चाचा उन लाशों का अंतिम संस्कार करते हैं, जिन्हें दुनिया लावारिश कहकर फेंक देती है। अब तक वे 27 सालों में 30 हजार से भी ज्यादा लावारिश लाशों का अंतिम संस्कार कर चुके हैं...

अयोध्या से शरीफ चाचा पर राजीव यादव

जनज्वार। अयोध्या यानी पिछले दो दशकों का ‘प्राइम टाइम आइटम’। इस नाम के आने के बाद ही हमारे मस्तिष्क में अनेकों छवियां बनने लगती हैं। पर पिछले दिनों मात्र पन्द्रह मिनट की डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘राइजिंग फ्रॉम द एशेज’ ने जो छवि हमारे दिमाग में बनायी उसने हर उस मिथकीय इतिहास की छवि को धुधंला कर दिया। यह फिल्म अयोध्या के मो0 शरीफ के जीवन पर आधारित है, जो लावारिस लाशों के वारिस हैं।

जो परिचित हैं वह शरीफ चाचा कहते हैं और जो कामों से जानते हैं वह लाशों वाले बाबा बोलते हैं। फैजाबाद रेलवे स्टेशन पर उतरकर किसी से इन दोनों में से किसी संबोधन से उनके बारे में पूछिये तो घर पहुंचाने वाले बहुतेरे मिल जायेंगे। और उनके कामों की मिसाल देने वालों का तो कोई अंत ही नहीं कि लोग कहते हैं जिसका कोई नहीं होता उसके शरीफ चाचा होते हैं।

रीफ चाचा पेशे से एक साइकिल मिस्त्री हैं। शहर में उनकी ‘मोहम्मद शरीफ साइकिल मिस्त्री’के नाम से एक झोपड़ीनुमा दुकान है जिसमें बेटे के साथ मिलकर रोज वह डेढ़ से दो सौ कमा लेते हैं। ऐसे कमाने वाले देश में करोड़ों हैं,फिर शरीफ चाचा ने ऐसी क्या इंसानी पहचान बनायी है जिसकी वजह से वह फैजाबाद की 28लाख आबादी के बीच सर्वाधिक कद्र के काबिल माने जाते हैं।

हर में तैनात किसी अफसर-हुक्मरान से पूछिये,मैदान में खेल रहे बच्चों से कहिये,राह चलते मुसाफिरों को बताइये सब उन्हें सलाम बोलते हैं। लोग कहते हैं शरीफ चाचा आदमी की पहचान धर्मों, जातियों और ओहदों से नहीं सिर्फ आदमी होने से करते हैं। जाहिर है फैजाबाद के वाशिंदों के लिए इससे बड़ी सामाजिक नेमत और क्या हो सकती है जहां इंसानी पहचान को बरकार रखने वाला आदर्श उनके बीच हो।

पिछले दो दशकों के इतिहास में जिस अयोध्या को मैंने लाशों के सौदागरों की राजधानी के रुप में जाना था,वहां लाशों के वारिस की मौजूदगी ने दिमाग में इस सवाल को पैदा किया कि आखिर मो0 शरीफ क्यों नहीं कभी प्राइम टाइम में राष्ट्रीय उत्सुकता का विषय बने।

फैजाबाद के खिड़की अली बेग मुहल्ले के रहने वाले चाचा शरीफ साइकिल मिस्त्री हैं,पर ये सिर्फ उनकी जिंदगी का आर्थिक जरिया है, मकसद नहीं। मकसद,तो हर सुबह की नमाज के बाद ऐसी लाशों को खोजने का होता है, जो किसी रेलवे टै्क,सड़क या फिर अस्पताल में लावारिश होने के बाद अपने वारिस चचा शरीफ का इंतजार कर रही होती हैं।

चाचा के ऐसा करने के पीछे एक बहुत मार्मिक कहानी है,जो व्यवस्था की संवेदनहीनता से उपजी है। दरअसल, अठारह साल पहले चचा के बेटे मो0 रईस की जब वो सुल्तानपुर गया था, किसी ने हत्या करके लाश फेंक दी थी, जिसे कभी ढूंढा नहीं जा सका। तभी से चचा ऐसी लावारिश लाशों को उनका मानवीय हक दिला रहे हैं।

वे कहते हैं ‘हर मनुष्य का खून एक जैसा होता है, मैं मनुष्यों के बीच खून के इस रिश्ते पर आस्था रखता हूं। इसलिए मैं जब तक जिंदा हूं किसी भी मानव शरीर को कुत्तों से नुचने या अस्पताल में सड़ने नहीं दूंगा।’ बानबे के खूनी दौर में भी चचा ने अस्पतालों में भर्ती कारसेवकों की सेवा की। इसी तरह अयोध्या की रामलीला में लंबे अरसे से हनुमान का किरदार निभाने वाले एक अफ्रीकी नागरिक जब लंका दहन के दौरान बुरी तरह जल गए तब किसी भी ‘राम भक्त’ ने उनकी सुध नहीं ली ऐसे में चचा ने उसकी सेवा की।

चाचा ने अयोध्या-फैजाबाद को लावारिस लाशों की जन्नत बना दिया है। अब तक सोलह सौ लाशों को उनके धर्म के अनुसार दफन और सरयू किनारे मुखाग्नि देने वाले चचा को सरयू लाल हो गयी वाली पत्रकारिता ने इतिहास में अंकित न करने की हर संभव कोशिश की। पर शाह आलम,शारिक हैदर नकवी,गुफरान खान और सैय्यद अली अख्तर ने ‘राइजिंग फ्रॉम द एशेज’ के माध्यम से उन्हें इतिहास में सजो दिया है।

हरहाल, अयोध्या फैसले के बाद लोग क्या सोच रहें हैं, यह जानने की उत्सुकता में मैंने बहुतों से बात की। अंशु जिसने एक बार बताया था कि जब बाबरी विध्वंस हुआ था तो उसके आस-पास घी के दीपक जलाए गए थे, जिसका मतलब तब वो नहीं समझ पायी थी। लेकिन जब आज वो बड़ी हो गयी है तो मैंने उससे जानना चाहा कि इस फैसल पर घर वाले क्या सोच रहे हैं? तो उसने कहा, ‘मैं एक ओर थी और सब एक ओर।’ इस पर मैंने उससे पूछा कि दूसरे क्या कह रहे हैं तो उसने कहा कि उनका मानना है कि फैसले ने ‘अमन-चैन’ बरकरार रखा।

खिर क्यों आज एक तबका इस फैसले को इतिहास और तथ्यों को दरकिनार कर आस्था और मिथकों पर आधारित राजनीतिक फैसला मानता है तो वहीं दूसरा इसे अमन-चैन वाला मानता है? आखिर अमन चैन के बावजूद इसने कैसे हमारी न्यायपालिका की विश्वसनीयता,संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्य जिनके तहत आदमी और आदमी के बीच धर्म,जाति और लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न करने का आश्वासन दिया गया है को खंडित कर दिया हैै?

मन-चैन वाला फैसला मानने वालों में एक तबका भले ही बानबे में घी के दीपक जलाया था पर एक तबका था जो इसके पक्ष में नहीं था। पर आज बानबे में घी के दीपक जलाने वालों की जमात बढ़ गयी है। जो कल तक बाबरी विध्वंस पर घी के दीपक जलाते थे,आज वो इसे अमन चैन की बहाली कहते हैं,जिसे अब न्यायिक तौर पर भी वैधता मिल गयी है।

यानी शासक वर्ग ने अपने लिए एक नयी तरह की जनता का निर्माण किया है, जिसे अब आक्रामक होने की भी जरुरत नहीं है,क्योंकि न्याय के समीकरण उसके साथ हैं। ठीक इसी तरह पिछले कुछ वर्षों से हमारे यहां युवा राजनेताओं की बात हो रही है कि अब भारत युवाओं का देश है। क्या इससे पहले आजादी के बाद देश के सबसे बड़े आंदोलन नक्सलबाड़ी और जेपी आंदोलन के दौरान यह युवाओं का देश नहीं था? था लेकिन अब शासक वर्ग को अपने युवराज की ताजपोशी करनी है सो अब भारत युवाओं का देश है।

स जनता निर्माण में न्यायपालिका की भाषा भी शासक वर्ग की हो गयी है। जैसे रामलला अपने स्थान पर विराजमान रहेंगे। राम हिंदू समाज की पहचान हो सकते हैं, लेकिन 1949 में बाबरी मस्जिद में रखे गए राम लला हिंदू नहीं बल्कि हिंदुत्ववादी विचारधारा वाले अपराधिक गिरोह की पहचान हैं,जिस पर एफआईआर भी दर्ज है। ठीक इसी तरह मीडिया भी यह कह कर पूरे हिंदू समाज को राम मंदिर के पक्ष में खड़ा करती है कि अयोध्या के संत राम मंदिर बनाने के लिए एक जुट होंगे।

राम मंदिर के पक्ष वाले हिंदुत्वादी संत,पूरे संत समाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। क्योंकि अयोध्या में संतों का एक तबका इन हिंदुत्ववादियों का विरोध करता है। पर हमारी मीडिया ने हिंदू धर्म को हिंदुत्व जैसे फासिस्ट विचारधारा का पर्याय बना दिया है। इसी तरह पिछले दिनों इंदौर में संघ के पथ संचलन के दौरान मुस्लिम महिलाओं द्वारा फूल फेकने वाले अखबारी चित्रों में कैप्सन लगा था-एकता का पथ।

Next Story