दिल्ली से ठेले पर 1100 किमी की दूरी तय कर बीवी-बच्चों समेत गृहस्थी उठा बिहार पहुंचा सुरेंद्र, अब सता रही है भविष्य की चिंता
प्रवासी मजदूर हांफते हुए, भविष्य संवारने के सपने और योजनाओं को लिए अपने घरों की ओर लौट रहे हैं, इन मजदूरों को महानगरों में अपनी बसी-बसाई गृहस्थी और रोजगार उजड़ने का गम भी है...
मनोज पाठक की रिपोर्ट
गोपालगंज, जनज्वार। कोरोना के संक्रमण काल में सरकार ने भले ही प्रवासी मजदूरों के लिए विशेष ट्रेनों की व्यवस्था कर दी हो, लेकिन इस 'संक्रमण काल' में प्रवासी मजदूरों की परेशानी समाप्त होने का नाम नहीं ले रही। देश की राजधानी दिल्ली हो या व्यवसयिक राजधानी मुंबई हो, राजस्थान हो या पंजाब रोजगार करने गए प्रवासी मजदूरों के वापस अपने गांव लौटने का सिलसिला जारी है। अन्य राज्यों से कोई पैदल, तो कोई साइकिल तो कोई ठेले से पत्नी और बच्चों को लेकर घर लौटने को मजबूर है।
ऐसी कई तस्वीरें उत्तर प्रदेश-बिहार सीमा के समीप गोपालगंज जिले के बलथरी चेकपोस्ट पर देखने को मिली। प्रवासी मजदूर हांफते, भविष्य संवारने के सपने और योजनाओं को लिए अपने घरों को लौट रहे हैं। इन मजदूरों को अपनी गृहस्थी उजड़ने का गम भी है।
दिल्ली से करीब 1100 किलोमीटर की दूरी ठेले से तय कर पहुंचे समस्तीपुर के सुरेंद्र पासवान की मजबूरियों को उसकी आंखें बयां कर रही हैं। ठेले पर मां की गोद में बैठे 4 साल के मासूम और उसकी पथराई आंखें उनके दर्द को लाख छिपाने की कोशिश के बीच सब साफ—साफ झलक आता है उसकी आंखों में।
भूखे-प्यासे बच्चे और पत्नी के साथ मजबूर प्रवासी मजदूर सुरेंद्र पासवान अपने घर की ओर जाते हिम्मत नहीं हारा है। बल्कि दिन-रात ठेला चलाकर परिवार को लेकर मीलों सफर तय कर अपने मंजिल पर पहुंचना चाह रहा है। सरकारी व्यवस्था भले ही नहीं मिली हो, लेकिन वह अपने जज्बे के साथ ठेले के पायडिल को चलाते हुए समस्तीपुर के लिए निकल पड़ा।
परिवार को ठेला पर लेकर जा रहे सुरेंद्र पासवान ने आईएएनएस से कहा, "लकडाउन की वजह से खाने-पीने की बहुत समस्या हो रही थी। पैसे भी नहीं थे। किसी तरह से पैसे का जुगाड़ किया और ठेला खरीदा। परिवार को लेकर अब बिहार के समस्तीपुर घर जा रहा हूं। अब कभी दोबारा दिल्ली नहीं जायेंगे, क्योंकि कभी प्रदूषण को लेकर कंपनी बंद हो जाती है, तो अब लॉकडाउन की वजह से कंपनी बंद हो गई।"
पासवान यहीं नहीं रुकते। उनके चेहरे पर कभी बेवसी तो कभी आक्रोश उभरता है। वे कहते हैं, "किसे शौक होता है अपने घर को छोड़कर बाहर कमाने जाने को। पूरा परिवार इस क्षेत्र में है। परदेस जाना मजबूरी है, सर।"
आगे वे अपनी पत्नी और बच्चों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, "आखिर यहां रहेंगे तो कमाएंगे क्या और इन्हें खिलाएंगे क्या? सरकार अगर यहीं काम दे तो क्यों कोई बाहर जाएगा। आखिर मेहनत तो कहीं करनी है।"
सुरेंद्र दिल्ली से अपनी पूरी बसी-बसाई गृहस्थी उजाड़कर एक ठेले पर रखकर अपने गांव के रास्ते में है। ठेला चलाने से हुए जख्म को दिखाते सुरेंद्र कहते हैं, 'मेरी पत्नी व बच्चों के चेहरे सूज जाने से बीमार होने की आशंका बन गई है। ठेले पर घर का सारा सामान सहित साईकिल लाद लिया। आखिर वहां छोड़ने का क्या मतलब।"