मोदी और महबूबा का सत्ता स्वार्थ कश्मीर को ले जाएगा लंबे आतंकी दौर में
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अमित शाह से मिलने पहुंचे अजित डोवल,संघ परिवार के लिए यह खबर प्रचारित करने की जरूरत क्या रही होगी? यही कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की सलाह पर भाजपा अध्यक्ष ने महबूबा मुफ्ती सरकार से समर्थन वापस लिया है। यानी वे अपनी तोता रटंत जारी रख सकते है- राष्ट्र हित सर्वोपरि!
नेहरू-गांधी परिवार और शेख अब्दुल्ला परिवार के बीच कश्मीर में साठ के दशक से चल रही नूरा कुश्ती से सभी वाकिफ हैं। पहले बख्शी गुलाम मोहम्मद और मीर सादिक को फ्रंटमैन बनाकर, शेख अब्दुल्ला को अलग-थलग रखने की रणनीति रही| फिर जगमोहन को फ्रंटमैन बनाकर, फारुख अब्दुल्ला को साथ लेने की। बाद में उमर अब्दुल्ला से मिलीभगत का दौर आने तक दोनों पक्ष इस ‘राज’ को छिपाने की हद से बाहर आ चुके थे।
देखा जाये तो मोदी और महबूबा ने इस बार, कांग्रेस और उमर अब्दुल्ला की ही तर्ज पर, कुछ छिपाया नहीं है। अगर दोनों साथ मिलकर चुनाव लड़ते तो घाटी में महबूबा का और जम्मू में भाजपा का सफाया तय था। अब वे एक दूसरे को चुनाव तक कोसेंगे और बाद में सत्ता में आने के लिए हिस्सेदारी करेंगे। कश्मीर को और देश को भी कांग्रेस की जरूरत नहीं है, भाजपा है न!
अस्सी के दशक में कांग्रेस और फारुख अब्दुल्ला की नूरा कुश्ती के क्रम ने घाटी में एक बड़े आतंकी दौर की शुरुआत की थी। तब नागरिकों और सुरक्षा बालों की व्यापक कुर्बानी के बाद ही, बतौर प्रधानमन्त्री अटलबिहारी वाजपेयी ‘जम्हूरियत-इंसानियत-कश्मीरियत' का नारा देने की स्थिति में आ सके थे। डर है कि कहीं मोदी और महबूबा की नूरा कुश्ती का वर्तमान दौर भी उसी तरह एक और लम्बे आतंकी दौर को न जन्म दे।
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इस बार स्थिति और खतरनाक दिखती है। संघ से संचालित मोदी सरकार के कश्मीर नीतिकारों के पास कश्मीर में युद्ध विराम लागू कर पाने के कौशल का अभाव स्पष्ट है। उनकी योजना के केंद्र में फ़ौज का ऐसा जिद्दी जनरल है जो देश को एक और आइपीकेएफ़ को अपमानजनक हश्र के रास्ते पर ले जाने को अड़ा दिखता है।
लिट्टे से श्रीलंका में पिटने वाली भारतीय फ़ौज (आइपीकेऍफ़) के सामने फिलहाल कश्मीर में विषम समीकरण है। वे पाकिस्तानी फ़ौज को जीतने की मंजिल तय नहीं कर सकते और कश्मीरियों पर सैन्य विजय जैसी कोई मंजिल है ही नहीं।
वियतनाम में अमेरिकी फौजों और बांग्लादेश में पाकिस्तानी फौजों का हश्र सामने है। अफगानिस्तान जैसे सामन्ती समाज से भी पहले रूसियों को और बाद में अमेरिकियों को हटना पड़ा था।
दरअसल आधुनिक दुनिया के इतिहास में हर फ़ौज को नागरिकों के प्रतिरोध के सामने अंततः झुकना पड़ा है। आज नहीं तो कल, कश्मीर के नागरिक जीवन से भी सेना को हटाकर उन्हें सीमा पर केन्द्रित करना पड़ेगा ही, क्योंकि यह कश्मीर में स्थायित्व की पूर्व शर्त होगी।
लगता नहीं कि मोदी की टीम, वैसी पहल का साहस जुटा पाएगी जैसा वाजपेयी ने अपने समय में दिखाया था या आपातकाल के बाद आयी जनता सरकार के प्रधानमन्त्री मोरारजीदेसाई ने। दोनों ने कश्मीर में बिना दखल के चुनाव करवाये और सेना को नागरिक जीवन से दूर रखा, जबकि अब बिना गठबंधन के मोदी और महबूबा परस्पर विरोधी अतिवादी तर्क लेने को विवश होंगे।
क्या मोदी और राजनाथ कश्मीर में बिना तैयारी के परिणाम हासिल करने की वैसी ही जल्दी में नहीं थे जैसे कभी राजीव गांधी, पंजाब अतिवाद के भीषण दौर में रहे? राजीव-लोंगोवाल समझौता बड़े अरमानों के साथ लेकिन रणनीतिक शील्ड के अभाव में किया गया था।
एक ओर तो तमाम प्रचार माध्यम इसे पंजाब में आतंक के सफाये की कुंजी बताते नहीं थक रहे थे और दूसरी ओर लोंगोवाल की हत्या नहीं रोकी जा सकी। आज के कश्मीर में भी सुरक्षा और पुलिस कर्मियों की बढ़ती मौतों और पत्थरबाजी की रोज की घटनाओं के बीच हुयी कश्मीर टाइम्स के संपादक बुखारी की हत्या में भी रणनीतिक शील्ड के अभाव का यही सन्देश छिपा है।
नूरा कुश्ती का वर्तमान दौर भाजपा और महबूबा को अगर कुछ चुनावी सीटें देने का दिलासा दे भी दे,आने वाले दौर में राष्ट्र का कश्मीर हित तो निश्चित ही मार खायेगा।