जिस अटाली गांव के मुसलमान विभाजन के समय नहीं भागे, वे भागे मोदी के समय में
मोदी को सत्ता में आये अभी सालभर भी नहीं बीता था कि अटाली के मुस्लिमों को गांव छोड़कर भागना पड़ा था और गांव वाले आज तक पूरे तौर पर नहीं लौट नहीं लौट सके हैं...
अटाली गांव पर पूर्व आईपीएस वीएन राय
इस बार मीडिया और एनजीओ बिरादरी के लिए ईद पर अटाली की खोज-खबर लेने जाना कहीं अधिक आसान होना चाहिए था, लेकिन कोई नहीं पहुंचा। इसी मई में प्रधानमन्त्री मोदी ने बड़े धूम धड़ाके से ईस्टर्न पेरिफेरल एक्सप्रेस वे का उद्घाटन किया था। पेरिफेरल एक्सप्रेस वे के फरीदाबाद में एकमात्र निकास, मौजपुर गाँव से बल्लभगढ़ कस्बे की दिशा में बढ़ने पर अगला गाँव ही तो अटाली हुआ।
ईस्टर्न पेरिफेरल एक्सप्रेस वे के खुल जाने से अब बड़े-बड़े ट्रक और ट्राले अटाली के बीच से गुजरती पतली-इकहरी सड़क पर चलने लगे हैं, जो बेतहाशा ट्रैफिक के इस नए बोझ को ढोने में पूरी तरह असमर्थ है। बेशक, अनवरत शोर, बढ़ते प्रदूषण और संभावित दुर्घटनाओं के बावजूद कोई शिकायत नहीं कर रहा, क्योंकि इस आमदरफ्त से दुकानों की बिक्री भी बढ़ गयी है। लोगों को प्रशासन की ओर से बताया गया है कि भविष्य में यह सड़क चौड़ी की जायेगी। कब? मोदी विकास मॉडल में इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है।
तीन साल पहले, मई 2015 में अटाली की करीब डेढ़ सौ घरों की समूची मुस्लिम आबादी गाँव से पलायन को विवश कर दी गयी थी। पहले उन्होंने बल्लभगढ़ पुलिस थाने में कुछ दिन शरण ली और फिर वे फरीदाबाद शहर और आसपास के इलाकों में रिश्तेदारों और दोस्तों की शरण में चले गए। अब तक करीब आधे घर ही गाँव लौटने का साहस कर पाए हैं। पूरी आबादी के वापस आते-आते न जाने कितने साल लग जाएंगे। गाँव में पुलिस की आज तक भी नियमित उपस्थिति इस दुखद प्रसंग के जल्द अंत की बानगी तो नहीं हो सकती।
अड्डा यानी गाँव का मुख्य बाजार, बीच में पड़ेगा। शुरुआत में, हरिजन चौपाल के पास जाटव (दलित) समुदाय के लोगों की चंद दुकानें पड़ती हैं। चाय, अंडा, किरयाना, मोबाइल रिचार्ज मार्का। वहां दबी जबान में बताया गया कि इस बार मुस्लिम समुदाय की ईद सौहार्दपूर्ण वातावरण में संपन्न हुयी। यह भी कि सभी वापस आ गए पलायित गाँव में सुरक्षित महसूस करते हैं और जिंदगी का सामान्य ढर्रा लौट आया है।
हालाँकि अविश्वास और तनाव भरे वे दिन कोई नहीं भुला सकता। ‘आग बुझ जाये, चिंगारी तो रहती है’, उस दौर के एक मुख्य किरदार बिजली ठेकेदार हाजी अली ने फोन पर कहा। वे अब नियमित रूप से गाँव से 25 किलोमीटर दूर फरीदाबाद सेक्टर 48 में रहते हैं।
हरियाणा में पहली भाजपा सरकार को अक्तूबर 2014 में शपथ लिए अभी बमुश्किल छह माह हुए थे। तभी, पंचायत चुनाव की बेला में, गाँव में दो भू-स्वामी जाट समूहों की परस्पर उठापटक ने मुख्यतः बेलदारी श्रम पर आधारित मुस्लिम आबादी को साम्प्रदायिक उत्पीड़न के चपेटे में ले लिया। तनाव बढ़ाने का बहाना बना, गाँव के बीच वक्फ बोर्ड की जमीन पर नमाज पढ़ने वालों के लिए मस्जिद बनाने की हलचल।
इस जमीन की मिल्कियत को लेकर स्थानीय निचली अदालत से फैसला मार्च 2015 में वक्फ बोर्ड के हक़ में आ चुका था। अब, इसी अप्रैल में, सेशंस अदालत से अपील भी उनके हक़ में हो चुकी है। फिलहाल, दूसरा पक्ष हाई कोर्ट में गया हुआ है और वहां का निर्णय आने तक विवादित भू-खंड पर निर्माण कार्य करने पर रोक लगी रहेगी।
एक जाटव दुकानदार ने कहा, बिना बात का बवाल है यह। ‘हिन्दुओं के इतने मंदिर हैं तो मुसलमानों को भी जगह चाहिए अपनी नमाज के लिये।’ यानी चिंगारी तो है और हाई कोर्ट के फैसले के बाद आग लगेगी या नहीं, कौन जानता है। हाँ, यह जाहिर है कि मोदी का पेरिफेरल वे भी समस्त विस्थापितों को गाँव वापस नहीं ला सका।
2015 में एक जाट धड़े ने नमाज स्थल को गाँव के बाहर कब्रिस्तान के पास स्थानांतरित करने का मुद्दा आक्रामक रूप से उठाया और अंततः मुसलमानों पर धावा बोल दिया गया। भाजपायी सरकारों की रणनीति के अनुरूप यहाँ भी प्रशासनिक निष्क्रियता ही रही। इसके चलते, मुस्लिम आबादी को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। उन्हें काम मिलना बंद हो गया और गाँव के बाजार में उन्हें सामान न देने का ऐलान लागू कर दिया गया। यहाँ तक कि उन्हें कहीं आने-जाने के लिए यातायात साधनों के भी लाले पड़ गए। समुदाय में सबसे समृद्ध, हाजी अली का घर फूंक दिया गया।
उस दौरान, राजनीति और मीडिया की दिलचस्पी से उभरे मिश्रित स्वरों का इतना असर जरूर हुआ कि कुल दर्ज हुए इक्कीस मुकदमों में एक सौ नौ व्यक्ति आरोपी बनाये गए। दो मुक़दमे पलायित मुस्लिमों पर भी कायम हुए। राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ अरसे तक पड़ताली टीमों की गूंज बनी रही। तमाम मुक़दमों में अभी भी पेशियाँ चल रही हैं, जबकि सभी आरोपी जमानत पर जेल से बाहर आ चुके हैं।
कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामाख्या तक भाजपा कमजोर पड़ रही है और हिंदुत्व उतना ही उग्र। अटाली पलायन के दो माह बाद अनेकों विस्थापितों से मिलने पर, उनके भीतर से निकलते डर और विवशता के स्वरों में तब भी यह ध्वनि मिली थी कि सुरक्षा का भरोसा होने पर वे वापस जाना चाहेंगे। इनके पुरखे विभाजन में भी गाँव से नहीं गये थे; जाहिर है, हिंदुत्व के समय में शासन-प्रशासन सभी को सुरक्षा का इत्मीनान नहीं दिला सका है| बहरहाल, इस बार गाँव में ईद तो मनी! (फोटो : इंडिया टुमारो)