सप्ताह की कविता में आज पढ़िए हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई की कविताएं
केदारनाथ अग्रवाल के यहां जो किसान जीवन के चित्र हैं वे एक जीवट की अभिव्यक्ति हैं, 'एक हथौडेवाला घर में और हुआ, सुन ले री सरकार, कहर बरपाने वाला और हुआ।'
हालांकि यह कहर बरपाना आज की बदली स्थिति में भावात्मक ज्यादा रह गया है, पर हथौड़ेवाले के एक और होने की जो यह खुशी है वह अपने बदले रूपों में लीलाधर मंडलोई की कविता में बारहा मिलती है। यहां केदारजी से भी आगे जा रही बात यह है कि कवि खुद एक हथौड़ेवाले के घर ही पैदा हुआ है और इसका मलाल नहीं है उसकी कविता में, बल्कि उसकी ताकत का भान है उसे, अपने जन्म की विपरीत स्थितियों को भी कवि किस तरह उत्साहजनक ढंग से सामने रखता है यह उनकी कविताओं को देखकर समझा जा सकता है। विस्थापित मजूरों की जिस बस्ती में जैसे-तैसे लेंडी की टहनियों से छाकर खड़ी की गयी जिस झोपड़ी में उसका जन्म हुआ था, उसे याद कर एक उदासी तो उपजती है उसमें पर तुरंत ही कवि अपने खिलंदड़ेपन के सहारे उससे उबरता है, 'सूराखों से टपक पडती धूप में हमार/ अजब-गजब खिलौने थे सर्वाधिक आधुनिक /...खपरैल की जर्जर छत इस तरह सुसज्जित शिक्षा केंद्रों /के मुकाबले हमारी प्रारंभिक पाठशाला बनी ...'- 'एक अबूझ बंदिश'।
तो काफी समय लगा है इस हथौड़ेवाले के हिन्दी कविता में सीधे प्रवेश में, जिसने झोपड़र के सुराख से आती धूप और बारिश की अबूझ बंदिशों से जीवन का पाठ सीखा है। उसके लिए जीवन अरुण कमल का 'नया इलाका' नहीं है, जहां कवि बारिश के भय से आकाश ताकता बिसूरने लगता है कि 'ढहा आ रहा अकास'। इतिहासकार ए एल बाशम ने एक जगह जिक्र किया है कि योरोप में लोग बारिश के आने पर घरों में छिपते हैं, जबकि भारत में खुशी से बहराते हैं, और 'भीतर से मोर' होने लगते हैं। अरुण कमल अंग्रेजी के शिक्षक हैं, उनकी कंडिशनिंग उसी भाषा में हुयी है, पर मंडलोई भारतीय माटी की उपज हैं, इस माटी के रंग उनके यहां बारहा अभिव्यक्त होते हैं, उनकी बारिश 'मल्हार गाती हुई' उतरती है उनके भीतर, अरुण कमल के घर के प्रवेशद्वार पर पिंजरे में बंद तोता नहीं है मंडलोई की कविता, 'पक्षियों की आवाजों का महारास' मंडलोई पहचानते हैं।
विष्णु खरे का आब्जर्वेशन महत्वपूर्ण होता है, वहां ज्ञान की प्रचंडता दृश्य को तार-तार कर देती है पर मंडलोई के यहां जीवन के अनुभव जब कविता में बदलते हैं तो सहज स्वीकार्य लगते हैं। इसीलिए जब वे 'आषाढ के बादलों की' मड़ई के नीचे बेसुध नाचते मोरों को देखते हैं भीतर से खुद 'मोर' होने लगते हैं। बचपन में सतपुड़ा के बाजरे के खेत में चीकक...चीकक... बोलते तीतरों से वे कभी अपना पीछा नहीं छुड़ा पाते ना छुड़ाना चाहते हैं।
मंडलोई आदिवासी जीवन से आने वाले कवि हैं और तलहथी के जीवन से उठकर आने के चलते उनके अनुभवों की विविधता अतुलनीय हो जाती है। श्रमपूर्ण जीवन के महत्व को वे कभी दरकिनार नहीं कर पाते और दीमकों और चींटियों की कारीगरी से प्रेरणा पाते हैं। मृत्यु के सम्मुख जीवन का गान वे दीमकों से सीखते हैं और दीमक घर को मनोरम पाते हैं। अपने आदिवासी जीवन से आई शब्दावली और उसे वरतने का तरीका मंडलोई ने विकसित किया है, वह उन्हें हिन्दी कविता में सबसे अलग करता है। इतने नये शब्दों का इतने सहज ढंग से प्रयोग कुछ ही कवियों ने किया है। विजेन्द्र के यहां देशज शब्द अपनी ताकत के साथ आते हैं तो ज्ञानेन्द्रपति के यहां शुद्धता के एक आग्रह के साथ आते हैं पर मंडलोई के यहां वे अपनी सहजता में रमे हुए से आते हैं जिनसे आदिवास की खुशबू और ताकत हमेशा आती रहती है। घउरा, सदापर्णी, मक्खीपानी, मावठा, समागन, सरमग, महुआर,खार, पूले, बिकवाली, फूंकन, रेठू, अबेरना आदि ऐसे ही शब्द हैं।
मंडलोई की कविताओं से गुजरते हुए मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और ज्ञानेंद्रपति याद आते हैं। इन कवियों की जद्दोजहद जैसे मंडलोई के यहां एक नया रूपाकार प्राप्त करने की कोशिश में छटपटा रही हो। उनकी 'अमर कोली´ को 'रामदास´ के आगे की कविता इन अथों में कहा जा सकता है कि रामदास की उदासी इन कविताओं में ज्यादा विस्तार पाती है और अपने समय के क्रूर यथार्थ को यह उसके ज्यादा आयामों के साथ अभिव्यक्त करती हैं।
मंडलोई के यहां प्रकृति अपनी पूरी ताकत और दर्द के साथ मौजूद है, प्रकृति से संबंधित कविताओं में लीलाधर मंडलोई की शैली ज्ञानेंद्रपति से मिलती है, पर जहां ज्ञानेंद्रपति के यहां अरण्यरोदन अपने ब्यौरों से उबाने लगता है, वहां मंडलोई के यहां वह सहज पीड़ा के बोध से भरा दिखता है। हालांकि दोनों का उद्देश्य एक है, आधुनिक सभ्यता के सर्वभक्षी प्रेतों की कुचेष्टाओं की ओर इंगित करना। मंगलेश डबराल ऋतुराज को आदिवासी सभ्यता का कवि बताते हैं इस रोशनी में देखा जाए तो ऋतुराज से ज्यादा शिद्दत से लीलाधर मंडलोई आदिवासी जीवने को उसकी करुण जीवन दृष्टि और जुझारूपन के साथ सामने ला पाते हैं। आइए पढ़ते हैं लीलाधर मंडलोई की कुछ कविताएं - कुमार मुकुल
नास्तिक
हत्यारा किराए का था
उसे नहीं मालूम हत्या की वजह
मरने वाला एक जीवित इकाई था
और उसकी कीमत तय
एक अंधेरा था आत्मा पर
जो बाजार के वर्चस्व का प्रतिफल
कहा गया जो मारा गया
शनि का शिकार हुआ
मरना उसे इसलिए पड़ा कि वह नास्तिक था
और बाकायदा पार्टी का कार्ड होल्डर
वरन् क्या मुश्किल था
न सही लोग ईश्वर तो बचा ही लेता।
जीवन के कुछ ऎसे शेयर थे
बाज़ार में
जो घाटे के थे लेकिन
ख़रीदे मैंने
लाभ के लिए नहीं दौड़ा मैं
मैं कंगाल हुआ और खुश हूँ
मेरे शेयर सबसे कीमती थे।
ओबामा के रंग में यह कौन है...
मैं पढ़ा-लिखा होने के गर्व से प्रदूषित हूँ
मैं महानगर के जीवन का आदी,
एक ऐसी वस्तु में तब्दील हो गया हूँ कि भूल-बैठा
अच्छाई के सबक
मेरा ईमान नहीं चीन्ह पाता उन गुणों को और व्यवहार को,
जो आदिवासियों की जीवन-पद्धति में शुमार मौलिक और प्राकृतिक अमरता है
और एक उम्दा जीवन के लिए, बेहतर सेहत के वास्ते विकल्पहीन
मैं कविता में बाज़ार लिखकर विरोध करता हूँ
मैं करता हूँ अमरीका का विरोध और मान बैठता हूँ
कि लाल झंडा अब भी शक्ति का अक्षय स्रोत है
वह था और होगा भी किंतु जहां उसे चाहिए होना, क्या वह है ...
मैं उसे देखना चाहता हूँ आदिवासी की लाल भाजी, कुलथी और चौलाई में
मैं उसे पेजा में देखना चाहता हूँ और सहजन के पेड पर
मैं एक आदिवासी स्त्री की टिकुली में उसके रंग को देखना चाहता हूँ
और उसके रक्तकणों में
लेकिन वह टंगा है
शहर के डोमिना पिज्जा की दुकान के अँधेरे बाहरी कोने में
वह संसद में होता तो कितना अच्छा था
बंगाल और केरल में वह कितना अनुपस्थित है और बेरंग अब
वह किसानों से दूर किन पहाड़ियों में बारूद जुटा रहा है
वह कितना टाटा में और कितना मर्डोक में
और आम आदमी में कितना
धर्म में कितना
कितना जाति व्यवस्था में
स्त्रियों में उसे होना चाहिए था और छात्रों में भी
क़िताबों में वह जो था हर जगह, अब कितना और किस रूप में
विचारों में उसका साम्राज्य कितना पुख़्ता
उसे कुंदरू में होना चाहिए था और डोमा में
बाटी में और चोखा में
एंटीआक्सीडेंट की तरह उसे टमाटर में होना चाहिए
उसे रेशेदार खाद्य पदार्थ की तरह
पेट से अधिक सोच में होना चाहिए
अब उसे सूक्ष्म पोषक आहार की तरह दिमाग में बसना चाहए
हालाँकि यह एक फैंटेसी अब
और विकारों को ख़त्म करने का ख़्वाब कि मुश्किल बहोत
लेकिन उसे शामिल होना चाहिए कोमल बाँस की सब्ज़ी की तरह
कि वह हाशिए पर बोलता रहे और ज़रूरत की ऐसी भाषा में
कि कोई दूसरा सोच न सके उन शब्दों को
जिसमें लाल झंडे के अर्थ विन्यस्त हैं
रोज़मर्रा के जीवन में शामिल रोटी, दाल और पानी की तरह
उसकी व्याप्ति के बिना, उस गहराई की कल्पना कठिन
जो लाल विचार की आत्मा है
महानगर की अंधी दिशाओं में,
एक अंतिम और साझे विकल्प के लिए,
मैं अब भी बस सोचता हूँ
मेरी इस सोच में पार्टी की सोच कहाँ...
कहाँ बुद्धिजीवियों की सहभागिता और कामरेडों की यथार्थ शिरकत...
दिल से सोचने के परिणाम में दिमाग को भूल बैठे सब
और डूब गए उन महानगरों में जिनपर कब्ज़ा अमरीका का
मैं अब भी लाल भाजी और कुंदरू के समर्थन में ठहरा हुआ
कि वह संगठन के लिए जरूरी
और पेजा और बाटी और हाशिए का जीवन,
जहाँ से अब भी हो सकती है शुरूआत...
यह मैं बोल रहा हूँ जिस पर विश्वास करना कठिन कि मैं बोलता हूँ
तो अपनी छूटी और बिकी ज़मीन पर खडा होकर
और वह तमाम उन लोगों की
जो न्याय के लिए अपने तरीके से लड़ रहे हैं
और उनके पास नहीं कोई मेधा और महाश्वेता ...
उनके पास है उनका भरोसा, कर्म और लड़ाई
मैं वहीं पहुँचकर, एक लाल झंडे को उठाकर कहना चाहता हूँ कि
पार्टनर, मैं भटकाव के बावजूद तुम्हारे साथ हूँ
कि मैं महानगर में किंतु आत्मा के साथ वहाँ
जहाँ अब भी सुगंध है हाशिए के समाज की, संघर्ष की
मैं कुछ नहीं, संघर्ष का एक कण मात्र
विचार जहाँ अपने लाल होने की प्रक्रिया में हैं
और उनकी दिशा वहाँ है
जो महानगर का वह अँधेरा कोना नहीं
जहाँ लाल झंडा डोमिनो के पास जबरन टाँग दिया गया है
ओबामा के रंग में यह कौन है...
मैं उसके ख़िलाफ़ हूँ...।