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विमर्श

साधु-तांत्रिक पहले आपको आर्थिक-सामाजिक रूप से करते हैं बर्बाद, फिर कह देते हैं 'ईश्वर की मर्जी'

Janjwar Team
6 Jun 2018 10:54 AM GMT
साधु-तांत्रिक पहले आपको आर्थिक-सामाजिक रूप से करते हैं बर्बाद, फिर कह देते हैं ईश्वर की मर्जी
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यह ईश्वर की मर्जी कोई रहस्य नहीं, किसी तीसरी ताकत की माया नहीं बल्कि हमारी अज्ञानता, मूर्खता और लालच की देहरी पर खड़ा वो शैतान है जो आपको तबाह-बर्बाद कर भी बड़े गुमान से आपके दरवाजे पर दस्तक दिए रहता है और आप उसे भगाने की बजाय अगली बार फिर अपनी बर्बादी का अगला मौका देने को आतुर होते हैं...

संजय जोठे, युवा समाजशास्त्री

एक गांव में एक छोटा बच्चा बीमार हुआ। उसके माता पिता दिहाड़ी मजदूर थे। वे दवाई खरीदने की बात तो छोड़िए डॉक्टर की फीस तक नहीं भर सकते थे। उन्हें किसी बाबा के चमत्कार और ईश्वर में विश्वास था। अक्सर ही जो लोग जरूरी चीजें नहीं करना चाहते उन्हें चमत्कारों और ईश्वर पर भरोसा होता है।

जो लोग काम की चीजों पर खर्च नहीं कर सकते या नहीं करना चाहते उन्हें चमत्कारों और ईश्वर में विश्वास हो ही जाता है। असल में कुछ न करने देने के लिए ही चमत्कार और ईश्वर बनाये गए हैं।

उस बच्चे की "जीवन रक्षा" के लिए बाबाजी ने एक अनुष्ठान बताया, गरीब माता पिता ने बाबाजी के बताए अनुसार पीपल के पेड़ और तालाब के देवता की पूजा की, लाल धागे बांधे, उपवास रखा और ये क्रम चार पांच दिन चला।

इस बीच बच्चा इतना कमजोर हो चुका था कि वह अपना कष्ट रोकर या मचलकर भी जाहिर नहीं कर पा रहा था। इसी सब में वो दुधमुंहा बच्चा मर गया। अनुष्ठान भी खत्म हो गए।

गांव में खबर फैल गयी। मातमपुरसी के लिए लोग आने लगे। आश्चर्य की बात ये कि उसी हत्यारे बाबा के लोग चरण छू रहे थे और उस मृत बच्चे के अभागे माता—पिता को दामन भर भर के सहानुभूति मिल रही थी।

लोग कह रहे थे कि ये तो सब भाग्य का लेखा है। बाबाजी कह रहे थे कि ये प्रारब्ध है, ईश्वर ने सबकी सांसें गिनकर लिखी हुई हैं, कोई काल की गति नहीं बदल सकता।

सबसे महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया उन बदनसीब माँ बाप की थी जिन्होंने अभी अपना लाल खोया है। वे रोते रोते कहते जाते थे कि इस बच्चे को बचाने के लिए "जो भी किया जा सकता था वो सब हमने किया" अब "आगे भगवान के मर्जी" और भगवान की मर्जी से कोई लड़ सकता है क्या??

"जो भी किया जा सकता था" से उनका मतलब था बेकार के कर्मकांड करना और उनमें फंसे रहकर समय बर्बाद करते हुए वास्तविक कामों को स्थगित रखना। "भगवान की मर्जी" से क्या मतलब है वो कहने की जरूरत नहीं!

भारत के सनातन दुर्भाग्य को इस सच्चे उदाहरण से समझिये। इस मुल्क को "कर्मकांडीय संतोष" के हथियार से ही नपुंसक और कायर बनाया गया है। व्यक्ति और समाज को बदलने के लिए जितने भी जरूरी काम हैं वे नहीं करने दिए जाते, उनकी जगह सांकेतिक और मूर्खतापूर्ण कर्मकांड करवाये जाते हैं।

उदाहरण के लिए किसी शहर या राज्य में शांति स्थापित करने के लिए लोगों में संवाद, बातचीत, रोटी-बेटी संबन्ध और खुलापन बढ़ाने की जरूरत होती है, लेकिन वे ये नहीं करेंगे। ये लोग दंगे भड़काने का काम करेंगे, हिन्दू सिख या हिन्दू मुस्लिम दंगे भड़काने के लिए भयानक रणनीति बनाकर हजारों कार्यकताओं के माध्यम से लागू करेंगे।

लेकिन ये ही लोग ऊपर ऊपर से सभ्य नजर आते हुए विश्व शांति महायज्ञ करेंगे। ये राष्ट्र को गृहयुद्ध में झोंककर राष्ट्र रक्षा यज्ञ भी करेंगे। इस तरह जन सामान्य को एक "कर्मकांडीय संतोष" पकड़ा देते हैं कि भाई देख लो यज्ञ हवन कर्मकांडों के जरिये जो किया जा सकता वो हमने किया अब आगे विधि का विधान, ईश्वर की मर्जी।

ये ही लोग जब चुनाव जीतने निकलते हैं, जब दंगे भड़काने निकलते हैं तब ये भाग्य और ईश्वर और कर्मकांडों पर बिल्कुल भरोसा नहीं करते। तब ये हजारों लाखों कार्यकर्ताओं को अफवाह और दंगे फैलाने के लिए वेतन देकर नौकरी पर रखते है, उन्हें प्रशिक्षण देते हैं, और बेहतरीन तकनीक और उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं।

यज्ञ हवन और कर्मकांड उन माता—पिताओं के लिए होते हैं जिनके बच्चो को ये लोग अपनी योजनाओं में पहले ही मार चुके होते हैं। इन मरे हुए बच्चों का और उनके मां बाप के आंसुओं का इस्तेमाल ये अपनी पाखण्डी धर्मसत्ता और राजनीति की फसल को मजबूत करने में करते हैं।

इस उदाहरण को भारत के सामाजिक राजनीतिक इत्यादि सभी आयामों में काम करते हुए देखा जा सकता है।

भारत में एक मासूम बच्चे की जिंदगी से लेकर परिवार का सौहार्द्र, मुहल्ले की शांति और पर्यावरण ही नहीं बल्कि सभ्यता, संस्कृति, इंसानियत, कॉमनसेंस और विज्ञान तक से क्या व्यवहार होता है, वह आप इस फोटो में देखिये।

ये फोटो भारतीय संस्कृति, धर्म और मनोविज्ञान का बेहतरीन उदाहरण पेश करता है। बिना कुछ किये भी "कुछ" करते रहने का संतोष बनाये रखना और किसी अन्य दिशा में "असंतोष" को बारूद की तरह इकट्ठा करते जाना ही इस पाखण्ड लीला का एकमात्र लक्ष्य होता है।

ये बारूद बाद में बहुत सोच समझकर इस्तेमाल की जाती है। हर दस पांच साल में होने वाले दंगे, हत्याकांड, रोजाना के बलात्कार हर मिनट और सेकंड चलने वाली घृणा इसी खेल से, इसी बारूद से पैदा की जाती है। कोई इनसे सवाल करे तो ये तुरन्त खड़े होकर कहने लगते हैं "जो किया जा सकता है वो कर तो रहे हैं, आगे ईश्वर की मर्जी"

ये "कर्मकांडीय संतोष" एक बार पैदा हो जाये तो इंसान ही नहीं बल्कि पूरा समाज, राष्ट्र और सभ्यता तक बर्बाद हो जाती है। पूरे भारत के गली मुहल्ले और परिवारों में झांककर देखिये "अब और क्या कर सकते हैं" बहुत तेजी से फैल रहा है, अब इसके तुरन्त बाद का चरण "आगे ईश्वर की मर्जी" आने वाला है।

और ध्यान रखिएगा कोई ईश्वर और उसकी मर्जी नहीं होती। असंतोष की इस बारूद को आपके ही घर और जिंदगी में आग लगाने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा, उसे ही ये "ईश्वर की मर्जी" कहते हैं।

और मजा ये कि आप कुछ नहीं कर पाते। ये इतना बड़ा और बारीक खेल है कि जिसके बच्चों की हत्या होनी है, जिसके घर मे आग लगनी है वो खुद इस काम में सबसे बडी भूमिका निभाता है। इस खेल को तोड़े बिना भारत को सभ्य और समर्थ नहीं बनाया जा सकता।

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