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राजनीति

कश्मीर पर चिंतित वै​ज्ञानिकों ने मोदी सरकार से की उच्च शिक्षण संस्थानों से पाबंदियां हटाने की मांग

Prema Negi
22 Sep 2019 11:42 AM GMT
कश्मीर पर चिंतित वै​ज्ञानिकों ने मोदी सरकार से की उच्च शिक्षण संस्थानों से पाबंदियां हटाने की मांग
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वैज्ञानिकों ने कहा कश्मीर में सबकुछ रुक गया है, सभी 5 विश्वविद्यालय लगातार बंद चल रहे हैं। यह स्थिति वैज्ञानिक अनुसंधान, विशेष तौर पर प्रयोगशाला में किये जाने वाले अध्ययन के लिए है बहुत खतरनाक है...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

पूरे कश्मीर को सरकार द्वारा पूरी दुनिया से अलग करने के लगभग डेढ़ महीने बाद अब अनेक वैज्ञानिक और शिक्षाविद खुले पत्र के माध्यम से सरकार से वहां से पाबंदी हटाने का अनुरोध कर रहे हैं। बीते 18 सितम्बर को 6 वैज्ञानिकों ने एक खुले पत्र के माध्यम से सरकार से कश्मीर के उच्च शिक्षा संस्थानों और शोध संस्थानों से सभी पाबंदियों को हटाने की मांग की है।

स पत्र पर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस के बी. अनंतनारायण, अशोक यूनिवर्सिटी के गौतम मेनन, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ एस्ट्रोफिजिक्स के जयंत मुर्ती, इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेथेमेटिकल साइंसेज के राहुल सिद्धार्थन, नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज की रीतिका सूद और नॅशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज के मुकुंद थत्ते के हस्ताक्षर हैं।

न वैज्ञानिकों ने विज्ञान के सभी संस्थानों पर से पाबंदियां हटाने के साथ ही सरकार से आग्रह किया है सरकारी पाबंदियों के कारण वहां शोध कार्यों में जितना नुकसान हुआ है उसकी शीघ्र ही भरपाई के कदम भी उठायें। पत्र के अनुसार कश्मीर में सब कुछ रुक गया है, सभी 5 विश्वविद्यालय लगातार बंद चल रहे हैं। यह स्थिति वैज्ञानिक अनुसंधान, विशेष तौर पर प्रयोगशाला में किये जाने वाले अध्ययन के लिए बहुत खतरनाक है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कश्मीर में अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक हैं और अनेक युवा वैज्ञानिक विदेशों की नौकरी त्याग कर कश्मीर में विज्ञान की तरक्की के लिए काम कर रहे हैं। इन युवा वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशाला भी स्थापित की है जिसमें अनेक स्थानीय युवा विज्ञान की बारीकियां सीख रहे हैं। अब ये सभी लगभग 6 सप्ताह से पूरी दुनिया से कट गए हैं और यह स्थिति कब तक चलेगी किसी को नहीं मालूम।

ज के युग में इंटरनेट शोध का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है, जिससे दुनियाभर के शोध की खबरें आती हैं और कहीं के भी वैज्ञानिकों से आप जुड़े रहते हैं। पर कश्मीर के वैज्ञानिक पूरी दुनिया से कट गए हैं।

त्र में आगे कश्मीर के जो लोग कश्मीर के बाहर शोध कर रहे हैं, उनकी समस्या को भी उजागर किया गया है। ये सभी शोध छात्र और वैज्ञानिक गहरे तनाव में हैं, उन तक उनके घर की कोई खबर नहीं आ रही है, छात्रों के पास फीस देने के पैसे नहीं हैं क्योंकि उनके अभिभावकों से संपर्क नहीं हो रहा है, यदि मुश्किल से संपर्क हो भी जाता है तो काम नहीं होने के कारण उनके पास पैसे भी नहीं हैं।

श्मीर में रहने वाले अनेक छात्रों ने विदेशों के विश्वविद्यालयों में आवेदन किये था, जहां उनका दाखिला भी हो गया था, पर इन्टरनेट नहीं चलने के कारण इन छात्रों तक कोई खबर पहुँची ही नहीं और उनका दाखिला रद्द हो गया।

इन 6 वैज्ञानिकों के पहले भी देश और विदेश के 504 वैज्ञानिक और शिक्षाविद् खुले पत्र के माध्यम से कश्मीर की जनता के साथ किये जा रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठा चुके हैं। इसमें आईआईटी, दिल्ली विश्वविद्यालय, टाटा इंस्टीट्यूट फॉर फंडामेंटल रिसर्च, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के प्रोफेसर भी शामिल हैं। ये सभी लोग कश्मीर की जनता के साथ खड़े हैं और जो कश्मीरी कश्मीर से बाहर हैं उनके मदद का आश्वासन देते हैं।

त्र में सरकार को याद दिलाया गया है कि सभी नागरिकों के अधिकारों और उनके कल्याण की जिम्मेदारी सरकार की है, पर शायद सरकार इसे भूल चुकी है। सरकार से आग्रह किया गया है कि शीघ्र ही संचार के सभी माध्यमों की बहाली की जाए, सुरक्षा के नाम पर खड़े किये गए अवरोध हटाये जाएँ, जिससे लोग अपना स्वाभाविक जीवन जी सकें, सभी तथाकथित विद्रोही या फिर विपक्षी पार्टियों के लोगों को रिहा किया जाए और फिर मानवाधिकार हनन के सभी शिकायतों की निष्पक्ष जांच कराई जाए।

स पत्र के अनुसार विपक्ष या फिर असहमति रखने वाले लोगों को कैद करना लोकतंत्र के विरुद्ध है, और सत्ता के रसूख से किसी को भी बिना कारण बताये या फिर बिना अपराध किये कैद नहीं किया जा सकता।

देश की वर्तमान सरकार कुछ भी कर सकती है, क्योंकि उसे किसी भी कीमत पर अपने हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा पूरा करना है। देश में विपक्ष बचा नहीं है, यदि बचा भी है तो ट्विटर से बाहर नहीं आता। मीडिया और न्यायपालिका पर सरकार का कब्जा है, और यह हरेक दिन दिखता है। हम मानव विकास के उस दौर में हैं जहां निरंकुश शासक लोकतंत्र का मसीहा मान लिया जाता है, हत्यारों को जनता रक्षक मान कर पूजती है, और मानवाधिकार का लगातार हनन करने वालों को अपना भगवान् मान लेती है।

स दौर की इंतहा यह है कि संयुक्त राष्ट्र से लेकर मानवाधिकार की माला जपने वाले अमेरिका या फिर यूरोपीय देश भी इसी कट्टरवादी, राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी विचारधारा से घिर गए हैं। अब देखना तो यह है की कट्टरवादी, उन्मादी और तथाकथित राष्ट्रवादी ताकतों का दौर और कितना आगे तक जाता है?

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