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विमर्श

मुखर्जी सर! चरित्र प्रमाणपत्र देने से पहले एक बार हेडगेवार का बायोडाटा तो देख लेते

Janjwar Team
12 Jun 2018 9:18 AM GMT
मुखर्जी सर! चरित्र प्रमाणपत्र देने से पहले एक बार हेडगेवार का बायोडाटा तो देख लेते
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'भारत माता के महान सपूत' को हिंदू-मुस्लिम एकता से ज़बरदस्त नफरत थी। आरएसएस के दस्तावेजाें से स्पष्ट है कि कांग्रेस से हेडगेवार के मोहभंग का विशेष कारण था कि कांग्रेस हिंदुआें आैर मुसलमानों के बीच एकता की हिमायती थी...

भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नाम स्वयंसेवक संघ के जानकार प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम का खुला पत्र

महामहिम प्रणब मुखर्जी आपने हेडगेवार को मातृभूमि का महान सपूत बता भारत माता का घोर अपमान किया है

आदरणीय महोदय,

आप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता रहे हैं। पिछले चार दशकों से अधिक समय से अापकी सैद्धांतिक प्रतिबद्घता लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के प्रति रही है। अाप देश के राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुके हैं, जो कि देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है। महोदय, कल (7 जून, 2018) को आपने नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के रेशम बाग, स्थित मुख्यालय पर संघ के चुनिंदा स्वयं सेवकों की एक सभा को संबोधित किया।

इस सभा में मुख्य अतिथि के तौर पर आपने संबोधन किया तथा मुख्य संबोधन संघ के सर्वोच्च प्रमुख मोहन भागवत ने किया। इस संबोधन में आपने संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार का स्मरण किया आैर आगंतुक पंजिका में उनकी प्रशंसा में लिखा,"आज मैं भारत माता के महान सपूत के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने आया हूं"।

मान्यवर, इससे बड़ा झूठ आैर कोर्इ नहीं हो सकता। एक एेसे शख़्स को "भारत माता का महान सपूत" बताना, जिसने समावेशी भारत के निर्माण के लिए संयुक्त स्वतंत्रता संघर्ष का विरोध करने के लिए ही 1925 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना की थी। हेडगेवार ने देश की आज़ादी के आंदोलन में इसलिए भाग नहीं लिया क्योंकि यह संघर्ष समावेशी भारत के लिए लड़ा जा रहा था, न कि हिंदू राज्य के लिए। उन्होने घोषित किया था कि भारत के दुश्मन धार्मिक अल्पसंख्यक, खास तौर पर मुसलमान हैं, न कि ब्रिटिश। वे कट्टर जातिवादी थे।

1930 के बाद बरतानिया साम्राज्य से भारत की मुक्ति के संघर्ष का परचम बना तिरंगे झंडे के प्रति हेडगेवार शत्रुतापूर्ण थे। उसका हिंदुत्व का आदर्श विनायक दामोदर सावरकर हिंदू महासभा के नेता थे। 1942 में जिस समय कांग्रेस पर प्रतिबंध था, हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बंगाल, सिंध आैर सरहदी सूबे (NWFP) मे साझा सरकार बनार्इ थी। यह वही दौर था जब पूरा देश जेलखाना बना दिया गया था। सैंकड़ों देशभक्त तिरंगा फहराते हुए देश की आज़ादी के लिए जान कुरबान कर रहे थे। हेडगेवार की आस्था भारतीय राष्ट्रवाद के विरूद्ध हिंदू राष्ट्रवाद में थी।

महोदय, हेडगेवार काे "भारत माता के महान सपूत" बता कर आपने जो चरित्र प्रमाणपत्र दिया है, वह न केवल भारत के महान आैपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष का अपमान है बल्कि भगत सिंह, अशफाकुल्ला खान,चंद्रशेखर आजाद, जतीन दास और अन्य हजारों क्रांतिकारियों की कुर्बानियों की अहमियत को कम करता है, जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के लिए अपने प्राण न्यौछावर किए आैर अकूत कुरबानियां दी हैं। भारतीय गणराज्य के लिए यह एक दुखद दिन था,जब हेडगेवार को आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले अाप एक एेसे व्यक्ति थे जिसने देश की आज़ादी की लड़ार्इ की अगुआर्इ करने वाली कांग्रेस में रहकर भारतीय संवैधानिक राजनीति के श्रेष्ठतम प्रतिफलों का रसास्वादन किया है।

महोदय, मैं आरएसएस अभिलेखागार से कुछ तथ्यों को पुन: प्रस्तुत कर रहा हूं जो यकीनी तौर पर साबित करते हैं कि आपने हेडगेवार को 'भारत मात के महान सपूत' घोषित कर भारत के गौरवशाली स्वतंत्रता संग्राम पर कीचड़ उछालने आैर उसे जलील करने का काम किया है। आप, कृपया, आरएसएस के इन दस्तावेजों की सच्चाई की जांच कर स्वयं आत्ममंथन करें। अगर मैं गलत साबित हुआ, तो अाप जैसा उचित समझें कार्यवाही कर सकते हैं।

हेडगेवार को तिरंगे से नफरत थी

मान्यवर, आपको स्मरण होगा कि तिरंगा झंडा,दएकताबद्ध आैर संयुक्त भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक है। इसके बावजूद, आज़ादी के संघर्ष के दौरान आरएसएस को इससे सख्त नफरत रही है। कांग्रेस के काची अधिवेशन में भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए प्रस्ताव पारित करते हुए तिरंगा झंडा फहराकर 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाने का (आैर उसके बाद से हर 26 जनवरी को तिरंगे झंडे को सलाम कर स्वतंत्रता दिवस मनाए जाने का) आह्वान किया था।

हेडगेवार ने अत्यंत शातिराना अंदाज़ में इसका विरोध किया। उन्होंने आरएसएस के स्वयं सेवकों को निर्देश दिया कि वे तिरंगे झंडे की जगह भगवा ध्वज के सम्मुख शीश नवा कर ध्वज प्रमाण करें। यह निर्देश सभी शाखाआें के प्रमुखाें को प्रेषित कर कहा गया कि सभी शाखाआें से संबंधित स्वयं सेवक 26 जनवरी 1930 रविवार शाम 6 बजे जहां शाखाएं लगती हैं (संघस्थान पर) एकत्रित हों आैर भगवा ध्वज ही राष्ट्रीय ध्वज है इसे समझाएं :

“राष्ट्रीय स्वंय सवेक संघ की सभी शाखाएं रविवार दिनांक 26-1-30 को सांय ठीक छह बजे अपने संघ स्थान पर अपनी-अपनी शाखाओं में सभी सभी स्वयं सेवकों की सभा लेकर राष्ट्रीय ध्वज का अर्थात भगवा ध्वज का अभिनंदन करें। भाषण के रूप में सभी काे स्वतंत्रता का सही अर्थ आैर यही ध्येय प्रत्येक को अपने सामने किस प्रकार रखना चाहए यह व्याख्या सहित स्पष्ट...”

तिरंगे झंडे के प्रति नफरत की यही परंपरा थी कि आरएसएस के अंग्रेजी साप्ताहिक मुखपत्र 'अार्गनाइज़र' ने स्वतंत्रता की पूर्व संध्या (14 अगस्त 1947) को राष्ट्रीय ध्वज की तौहीन करते हुए लिखा था : "वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं, वे भले ही हमारे हाथों तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदओं द्वारा न तो कभी इसे सम्मानित किया जा सकेगा न ही अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है। और एक ऐसा झंडा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसान दायक होगा।"

हेडगेवार ने आरएसएस की स्थापना इसलिए की क्योंकि वे हिंदू-मुस्लिम एकता के खिलाफ थे

महोदय, मुझे उम्मीद है कि आप अभी भी मानते हैं कि भारत के हित के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एकता होनी चाहिए, लेकिन आपके इस 'भारत माता के महान सपूत' को हिंदू-मुस्लिम एकता से ज़बरदस्त नफरत थी। आरएसएस दस्तावेजाें से स्पष्ट है कि कांग्रेस से हेडगेवार के मोहभंग का विशेष कारण यह था कि कांग्रेस हिंदुआें आैर मुसलमानों के बीच एकता की हिमायती थी।

आरएसएस द्वारा प्रकाशित हेडगेवार की आधिकारिक जीवनी में से एक में यह स्पष्ट बताया गया है कि हेडगेवार कांग्रेस नेतृत्व के स्वतंत्रता संघर्ष से क्यों अलग हुए : "यह साफ़ है कि गांधीजी हिंदू-मुस्लिम एकता को को हमेशा केंद्र में रखकर ही काम करते थे...लेकिन डाक्टरजी को इस बात में खतरा दिखायी दिया। दरअसल वे हिंदू-मुस्लिम एकता के नए नारे को पसंद तक नहीं करते थे।"

हेडगेवार इस तथ्य को कभी छुपा नहीं पाए कि कांग्रेस से उनकी दूरी की वजह यह थी क्योंकि कांग्रेस हिंदू-मुस्लिम एकता में विश्वास रखती थी। 1937 में महाराष्ट्र के अकोला में मध्यप्रांत आैर बेरार (अब महाराष्ट्र ) हिंदू महासभा के प्रांतीय अधिवेशन (सावरकर की अध्यक्षता में) से लौटने पर, कांग्रेस छोड़ने की वजह पूछे जाने परहेडगेवार का जवाब था "क्योंकि कांग्रेस हिंदू-मुस्लिम एकता में विश्वास करती है।"

हेडगेवार के आधिकारिक जीवनी के लेखक सीपी भीष्कर ने हेडगेवार के कांग्रेस से अलग होने के कारणो पर प्रकाश डालते हुए लिखा है : "महात्मा गांधी द्वारा संचालित असहोग आंदोलन की वजह से समूचे देश का उत्साह ठंडा पड़ रहा था और सामाजिक जीवन में बुराइयां भी सर उठा रही थीं,जिनको इस आंदोलन ने जन्म दिया था। जैसे-जैसे राष्ट्रीय संघर्ष की धारा कमजोर पड़ने लगी, आपसी दुर्भावनाएं भी सतह पर आ गर्इं। चारों तरफ व्यक्तिगत संघर्ष भी खड़े हो रहे थे। अलग-अलग समुदायों के बीच के आपसी संघर्षों में भी तेजी आर्इ। ब्राह्मण ग़ैर ब्राह्मण विवाद भी सबके सामने था। कोर्इ भी समूह एकीकृत या असंगठित नहीं था। असहयोग आंदोलन के दूध पर पले यवन सांप(इसका तात्पर्य मुसलमानों से था- लेखक)अपनी ज़हरीली फुफ्कारों के साथ देश में दंगे फैला रहे थे।"

इस प्रकार आरएसएस के अनुसार मुसलमान सांप थे। सांप जहां नज़र आता है उसे अक्सर मार देना होता है।

हेडगेवार सांप्रदायिक दंगों को भड़काने का कुकर्म भी करते थे

महोदय, अापके पसंदीदा हेडगेवार सांप्रदायिक गोलबंदी के लिए एक गुंडे की तरह व्यवहार करने वाले आैर सांप्रदायिक दंगों को भड़काने वाले शख्स के रूप में जाने जाते थे। उनकी एक जीवनी में बताया गया है कि जब कभी-कभी बैंड (संगीत) बजाने वाली टोली मस्जिद के सामने बैंड बजाने में हिचकिचाती तो हेडगेवार "खुद ड्रम लेते और शांतिप्रिय हिंदुओं को उत्तेजित कर उनकी मर्दानगी को ललकारते थे।"

गौरतलब है कि 1926 तक, मस्जिदों के बाहर ढाेल-बाजे बजाना सांप्रदायिक दंगों के उकसाने की मुख्य वज़ह था। हेडगेवार ने हिंदुआें में आक्रामक सांप्रदायिकता उकसाने में निजी तौर पर भूमिका अदा की।

इस तथ्य को उनके घनिष्ठ आैर आरएसएस के संस्थापक सदस्यों मे रहे नागपुर के इस्पात मिल मालिक अन्नाजी वैद का कथन पुष्ट करता है। उन्होंने बताया है : "सन् 1926 में कर्इ जगह हिंदू-मुसलमान दंगे होना प्रारंभ हुआ था। (इससे साफ़ पता चलता है इससे पहले सांप्रदायिक दंगों का इतिहास नहीं था आैर मस्जिदों के आगे संगीत बजाना भी कोर्इ मुद्दा नहीं था- लेखक) किंतु हम लाेगों ने निश्चय किया कि अहिंदुआें का यह अकारण हठ हिंदुआे के न्यायपू्र्ण हक़्क़ो पर आक्रमण है, इसलिए हर एक मस्जिद के सामने जुलूस जाते समय वाद्य बजने ही चाहिए। एक बार शुक्रवार के दिन जब वाद्य बजाने वाले एक मस्जिद के दरवाजे पर पहुुंचे तो संगीत बजाना बंद कर दिया। तब डाक्टरजी ने स्वयं ढोल खींच कर अपने गले में बांध कर बजाया। उसके बाद ही बाजा बजना प्रारंभ हुआ।"

हेडगेवार कट्टर जातिवादी थे

मान्यवर, आपने आरएसएस मुख्यालय में बहुत सी बातों के बारे में बताया, लेकिन जातिवाद के अभिशाप पर आप मौन रहे जो कि आरएसएस की मौलिक मान्यताओं में से एक है। आप शायद इसलिए इस विषय पर खामोश रहे कि आप अपने जातिवादी मेजबानों को शर्मिंदा नहीं करना चाहते थे। आपकी इस मुद्दे पर चुप्पी आज एेसे माहौल में है जब आरएसएस/भाजपा शासन में पिछले चार वर्षों के दौरान दलितों पर हमले कई गुना बढ़े हैं, जो अत्यंत शर्मनाक है।

बहरहाल, समकालीन आरएसएस साहित्य इस बात को प्रमाणित करता है कि हेडगेवार जातिवाद में विश्वास करते थे और अस्पृश्यता जैसी अपमान जनक, पतित आैर अमानवीय प्रथा से उन्हें कोर्इ आपत्ति नहीं थी क्योंकि वे उच्च जाति के हमदर्दों को नाखुश नहीं करना चाहते थे। नासिक में हेडगेवार अपने साथी कृष्ण राव वाडेकर और भास्कर राव निनवे के साथ डॉ. गायध नामक एक ब्राह्मण के घर गए। इनमें निनवे निम्न जाति से संबंधित थे। जब भोजन का वक्त आया तो निनवे नेहेडगेवार से पूछा कि क्या उन्हें भोजन के लिए अलग बैठना चाहिए, जैसा कि आमतौर पर होता था। वाडेकर ने सुझाव दिया कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है,क्योंकि गायधजी जानते ही नहीं थे कि निनवे की जाति क्या है।

हेडगेवार ने वाडेकर का सुझाव से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि निनवे को ब्राह्मणों से अलग बैठना चाहिए। हेडगेवार का तर्क था कि अगर साथ बैठाकर भाेजन किया गया तो वास्तविकता ज्ञात होने के बाद गायधजी को भारी संताप होगा। हेडगेवार ने अपने साथ आए आरएसएस के सदस्यों को हिंदू राष्ट्रवाद का ज्ञान बांटते हुए फ़रमाया :

"आैर इस प्रकार करने से अपने को भी क्या लाभ है? इसके विपरीत ये अलग से भाेजन करने बैठे तो गायधजी पर अधिक अच्छा प्रभाव पड़ेगा। हमारे स्वयं सेवक को थोड़ा दुख हाेगा पर कार्य की दृष्टि से इतना कष्ट सहना ही चाहिए। पहले हम उन्हें प्रेम से जीत लें से तो यह भेद आप ही नष्ट हो जावेगा।"

यह सुविदित तथ्य है कि हेडगेवार ने अस्पृश्यता के खिलाफ सहभाेज को हतोत्साहित किया था। सुधारवादी हिंदुओं के द्वारा छूआछूत के विरोध में ये सहभोज आयोजित किए जाते थे। इन सहभोज में सभी जातियाें के लाेग बिना किसी भेद-भाव के साथ-साथ बैठकर भोजन करते थे।

हेडगेवार ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ निर्लज्ज विश्वासघात किया

महोदय, आपका मनभावन भारत माता का यह "महान सपूत' ब्रिटिश शासन द्वारा ढहाए जा रहे अभूतपूर्व दमन आैर लूट का मूक दर्शक मात्र था। कांग्रेस के आह्वान पर हेडगेवार दो बार निजी तौर पर जेल गए। परंतु आरएसएस को एेसे किसी भी आंदोलन से दूर रहने का उनका निर्देश था, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ हो सकता है।

आरएसएस के ही एक प्रकाशन के मुताबिक: "संघ की स्थापना के बाद डाक्टर साहब ने अपने भाषणों में हिंदू संगठनों के बारे मे ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर ही रहती थी।"

हेडगेवार ने अपने ब्रिटिश आकाआें के खिलाफ चुप्पी के लिए मजेदार बहाना तलाशा था। जब लोगों ने उससे इस बारे में सवाल किया तो उनका जवाब था, "जब लोगों ने उनसे पूछा, 'संघ में अंग्रेज विरोधी भाषण क्यों नहीं होते?' डाक्टरजी ने उत्तर दिया, 'केवल अंग्रेजों को निकाल देने का उद्देश्य रखने मात्र से अंग्रेज भागने वाले नहीं हैं। अंग्रेजों के हिंदुस्थान में आने का कारण राष्ट्र की जो असंगठित अवस्था है, उसी को दूर करना, सामर्थ्य-संपन्न आैर अनुशासित समाज का निर्माण करना, संघ का उद्देश्य है।"

अंग्रेज़ शासकों को हटाने की तमाम कोशशों आैर आैर आंदोलनों को हेडगेवार "उथली धारणा” कहते थे। हेडगेवार ने गांधीजी के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को स्वतः स्फूर्त तरीके से सम्मिलित होने से रोकने के लिए उन्हें स्पष्ट निर्देश देते हुए कहा, "इन दिनों जेल जाना सच्ची देशभक्ति का प्रतीक समझा जाता है।... देश को तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती जब तक इस किस्म की भावना के स्थान पर समर्पण आैर निरंतर प्रयास की सकारात्मक आैर टिकाऊ भावन लोगों में नहीं छा पाती।"

श्रीमान, हेडगेवार के ऐसे सभी राष्ट्र-विरोधी और मानवता विरोधी कृत्यों आैर मान्यताओं के बावजूद, आपने उन्हें "भारत माता का महान सपूत" घोषित कर दिया। अगर वे ऐसे थे तो गांधी जी कौन थे जिन्होंने आरएसएस का विरोध किया था और हिंदुत्ववादी हत्यारों ने उन्हें मार डाला था। ये हत्यारे भी आरएसएस की ही तरह खुद को हिंदू राष्ट्रवादी कहते थे।

तथ्य यह है कि या तो गांधीजी या फिर आपके नए पसंदीदा हेडगेवार में से कोर्इ एक ही "भारत माता का महान सपूत" हो सकता है। कृपया हिंदुत्व के इस कट्टरपंथी को आपने जो यह चरित्र प्रमाण पत्र जारी किया है इसे वापस ले लें। आैर भारत मां आैर इसको प्यार करने वाले देशभक्त भारतवासियों से माफी मांगे। आपका यह कृत्य स्वतंत्रता सेनानियों के उन सपनों क तौहीन है, जो सपना उन्होंने स्वतंत्र भारत के बारे में देखा था आैर महान कुर्बानियां दी थीं।

मैं बिना किसी संकोच यह कहकर अपनी बात खत्म करना चाहता हूं कि आने हेडगेवार काे मादर-ए-हिंद को महान सपूत बताकर भारत मां का घोर अपमान किया है। इतिहास आपको कभी माफ नहीं करेगा।

(प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जानकार हैं उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है। इस लेख का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद कमल सिंह ने किया है।)

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