नज़्म सुभाष हिंदी के युवतर कहानीकार होने के अलावा ग़ज़ल में भी हाथ आज़माते हैं। अभी हाल ही में उनका एक ग़ज़ल संग्रह "चीखना बेकार है" आया है। लखनऊ में छोटा मोटा कारोबार कर संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। जिंदगी की तल्ख हक़ीक़त से रू—ब—रू होने के कारण वे अपनी कहानियों में विडम्बनाबोध के लिए जाते हैं। फेसबुक पर उनकी टिप्पणियों में भी विडंबनाबोध देखा जा सकता है। 'नवाब के जूते' इसी विडम्बनाबोध की कहानी है। लखनऊ के नवाबों के जीवन पर हिंदी में पहले भी काफी कुछ लिखा गया है। इस कहानी के नाम से उनका नया कहानी संग्रह भी आने वाला है। आइए पढ़ते हैं नज्म सुभाष की कहानी—विमल कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और कवि
नवाब के जूते
नज्म सुभाष
लखनऊ तब भी आबाद था जब लुटी पिटी दिल्ली दाने-दाने को मोहताज थी। मगर सारी रियासतें जब भुरभुरी दीवार की तरह जमींदोज़ हो रही हों तब लखनऊ भी कैसे बचा रहता। "शाम-ए-अवध" को भी धीरे-धीरे अंग्रेजी हुकूमत का चंद्रग्रहण लगने लगा था। और एक समय ऐसा भी आया कि "शाम-ए-अवध" की सारी रूमानियत स्याह रात में तब्दील हो गयी। नवाबों के तमाम सारे वंशज मामूली पेंशन पर अपनी नवाबियत बचाने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे। उनके लिए पेंशन उनके जीने का सहारा से ज्यादा अपनी नवाबी शिनाख्त की जरिया थी।
ऐसी ही एक सुरमई किंतु उदास रात को नवाब साहब ने अपनी जरी वाली शेरवानी निकाली, जिसमें टंग सुनहले सलमे में जगह-जगह से सफेदी उतर आई थी। कलंगीदार ईरानी टोपी और नागरा जूते पहनकर तंग गलियों की तरफ निकल पड़े। एक निहायत ही पतली गली में कुछ जीने चढ़कर जब ऊपर वाले मकान के सामने खड़े हुए तो लगा वह तीस साल पहले के जमाने को लौट रहे हैं। बस फर्क इतना भर था कि अब इस कोठी की दीवार का पलस्तर जगह जगह से उधड़ रहा था। उन्होंने नक्काशीदार दरवाजे की कुंडी से दरवाजे को पीटा। एक बीस -बाईस साल की लड़की ने दरवाजा खोल कर उन्हें झुककर आदाब किया और अंदर ले गयी।
पिंजरे मे टंगे तोते ने बड़े गौर से तिरछी नजर डाली और बोल पड़ा-"नवाब साहब आ रहे हैं...नवाब साहब आ रहे हैं।"
शम्आ की मद्धम रोशनी में हीराबाई ने देखा कि नवाब साहब चले आ रहे हैं तो अपने मसनद से उठकर उसने नवाब साहब को झुक कर बड़े अदब के साथ सलाम बजाया। जवाब में नवाब साहब के चेहरे पर एक पल को दर्प चमका, मगर जल्द ही विलीन हो गया।
"हुजूर तशरीफ रखें"
नवाब साहब ने नजरें दौड़ाई सब कुछ कितना बदल गया था...कभी इसी हालनुमा कमरे में हारमोनियम और तबले की थाप गूंजती थी... आज सब सूना सूना..
नवाब साहब गाव तकिया के सहारे अधलेटे बैठ गये।
"आरजू बानो नवाब साहब के लिए हुक्का पेश करो" लड़की ने हुक्का करीब लाकर रख दिया।
नवाब साहब हुक्का गुड़गुड़ाने लगे।
"कहिए हुजूर क्या पेश किया जाए?"
"हम तो आपके हुस्न के दीवाने हैं हीराबाई"
जवानी को कोसों दूर छोड़ आयीं हीराबाई का चेहरा शर्म से सुर्ख हो गया।
"हुजूर मसखरी कोई आप से सीखे... आप तो इतने बड़े दीवाने हैं कि सालों बाद इधर का रुख किए हैं।"
"अब क्या बताऊं.... हम किस्मत के मारे हैं हीराबाई... बेवफाई का इल्ज़ाम मत दीजिए।"
"हुजूर आप लोगों के दम पर ही हमारी महफिलों की रौनक होती थी... अब आप ही नहीं आते.... जरा देखिए तो इन दीवारों को... घुंघरुओं की झनझनाहट सुनते सुनते जवां हुई थीं... अब कितनी उदास लगती हैं।"
"सो तो है हीराबाई..." नवाब साहब ने सहमति जताई।
"चलिए खैर छोड़िए... आज इतने दिनों बाद आए हैं तो अच्छी खासी पेशगी वसूलूंगी।" हीराबाई ने पानदान खोलकर एक पान नवाब साहब को पेश किया दूसरा स्वयं मुंह में बड़े करीने से दबा लिया।
नवाब साहब का चेहरा जर्द हो गया, मगर प्रत्यक्ष में "हां हां क्यों नहीं" कहकर एक खोखली हंसी हंस दिये।
"आइए करीब आइए."
नवाब साहब छुपाकर लाई कोई पोटली टटोलने लगे। हीराबाई करीब आ चुकी थी। पोटली हाथ लगते ही उन्होंने हीराबाई को पकड़ा दी। उत्सुकतावश हीराबाई ने उसे खोलकर देखा तो एक जोड़ी कनफूल थे।
"ये क्या नवाब साहब... आपने तो करीब आने तक का हक अदा नहीं किया। यह तो आधे तोले का भी न होगा।"
"हीराबाई वक्त-वक्त की बात है... तुम्हारी नथ उतरवाई में मैंने कितनी मोहरें लुटा दी थीं... और आज... खैर छोड़ो.... बेगम के कनफूल हैं अम्मीजान ने मुंह दिखाई में दिए थे।"
हीराबाई ने गौर से देखा भले ही आज कनफूल की चमक मद्धम हुई हो, पर कभी बेगम के कानों में चार चांद लगाते होंगे। काश! ऐसे ही कनफूल... हीराबाई की आंखें नम हो गयीं।
"नवाब साहब ...एक बार घर की इज्जत कोठे पर आ जाये तो ..." आगे के शब्द गले में ही रुंधकर रह गये।
उसने पोटली दोबारा लपेटकर नवाब साहब को पकड़ा दी। नवाब साहब हक्का बक्का...
"भले आज आपकी नवाबी न रही, मगर हम तो आज भी आपकी रिआया हैं।"
"बज़ा फरमाया हीराबाई... लेकिन हमारे पास इसके अलावा कुछ नहीं।"
"क्या बात करते हैं हुजूर... नवाबों के दाढ़ी का बाल भी सवा लाख का होता..."
"वो बहारें गयीं हीराबाई।" जमाने भर का दर्द नवाब साहब के लफ़्जों में उतर आया।
हीराबाई ने अफसोस में सिर हिलाया ।
"अब सब्र नहीं होता।"
"यूंकि खाली समंदर में हिलोरे
आप किसको डुबोना चाहते हैं।"
हीराबाई के इस तंजिया शेर की तासीर को नवाब साहब ने महसूस किया।
"तुम्हारा हुस्न जितना शफ्फाक है तुम्हारी जुबान उतनी ही स्याह..." नवाब साहब ने दबी जुबान में ही सही अपनी प्रतिक्रिया दर्ज कराई।
"जिस्म में कुछ स्याह भी होना चाहिए नवाब साहब... गोरी चमड़ी के दीवाने बनकर लोग स्याह चमड़ी की ख्वाहिश लेकर ही इधर आते हैं।"
"इतनी बड़ी बात... खैर आया तो बड़ी उम्मीद से था... मगर चलता हूं।"
नवाब साहब उठने लगे।
"हुजूर आप की रिआया हूं, खिदमत तो करूंगी ही मगर धंधे का वसूल भी तो बचा रहे ...।"
"फिर"
"आपके जूते ही आज का नजराना रहे।"
नवाब साहब खुश... सौदा बड़ा सस्ता था।
"आ जाइए"
हीराबाई ने उन्हें एक कमरे की तरफ का इशारा किया तो नवाब साहब उधर ही चल दिये।
करीब आधे घंटे के बाद लस्त पस्त कपड़ों में बाहर निकले तो जूते में पैर डालने लगे।
सामने पिंजरे में बंद तोता चीख पड़ा -"नवाब साहब नंगे पांव... नवाब साहब नंगे पांव।"
नवाब साहब को याद आया। उन्होंने गौर से जूतों को देखा दो बार मरम्मत करवा चुके हैं तल्ला घिस चुका है।
"क्या हुआ नवाब साहब" अपने कपड़ों को दुरुस्त करती हीराबाई उनकी तरफ आ रही थी ।
"कुछ नहीं" उन्होंने जल्दी से पांव खींच लिये।
"चलता हूं."
" हुजूर...कभी कभी खिदमत का मौका देते रहिएगा..."
नवाब साहब ने हां में सिर हिलाया और जाने के लिए पहला कदम रखा ही था कि उन्हें महसूस हुआ पांव जहन्नुम की आग में रख दिया है।