सैनिकों की शहादत पर आक्रोशित देश गंगा के लिए साधुओं के बलिदान पर चुप क्यों?
हिन्दुत्व के नाम पर सत्ता में आई भाजपा सरकार, जिसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने वाराणसी से चुनाव लड़ते समय कहा था 'मां गंगा ने मुझे बुलाया है’ और आरएसएस से जुड़े तमाम संगठन जो किसी भी धार्मिक मुद्दे को भुनाने में पीछे नहीं रहते, ईमानदारी से गंगा को बचाने के लिए अनशन करने वाले साधुओं के साथ क्यों नहीं खड़े नजर आते...
वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पाण्डेय का विश्लेषण
वर्ष 2011 में नौजवान साधु स्वामी निगमानंद की हरिद्वार में गंगा में अवैध खनन के खिलाफ अनशन करते हुए 115वें दिन जान चली गई। जिस आश्रम मातृ सदन से वे जुड़े थे, ने आरोप लगाया कि खनन माफिया ने सरकार के साथ मिलकर अस्पताल में उन्हें जहर देकर मार डाला। 1998 में स्वामी निगमानंद के साथ अवैध खनन के खिलाफ पहला अनशन कर चुके स्वामी गोकुलानंद की 2003 में नैनीताल में खनन माफिया ने हत्या करवा दी।
वर्ष 2014 में वाराणसी में बाबा नागनाथ गंगा के संरक्षण हेतु अनशन करते हुए 114वें दिन चल बसे। पिछले वर्ष स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद की, जो पहले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर में प्रोफेसर गुरु दास अग्रवाल के नाम जाने जाते थे और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के संस्थापक सदस्य-सचिव रहे चुके थे, अपने छठे अनशन के 112वें दिन 11 अक्टूबर को मृत्यु हो गई।
24 जून, 2018 से गंगा के संरक्षण हेतु अनशन पर बैठे संत गोपाल दास 6 दिसम्बर से देहरादून से गायब हैं। स्वामी सानंद के जाने के बाद उनके संकल्प को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से 26 वर्षीय केरल निवासी ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद 24 अक्टूबर, 2018 से मातृ सदन के उसी स्थान पर जहां स्वामी सानंद ने अनशन किया था बैठे हैं। उनके अनशन के 135 दिन से ज्यादा हो चुके हैं। ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद के बाद मातृ सदन के ही स्वामी पुनयानंद अभी से अन्न त्याग अनशन पर जाने की तैयारी में बैठे हैं।
ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद अपने गुरु स्वामी शिवानंद के साथ अनशन के दौरान प्रयागराज के अर्धकुम्भ में भी करीब बीस दिन रहे, किंतु वहां भी आकर किसी सरकारी नुमाइंदे ने उनसे बात नहीं की। उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडल की बैठक वहां हुई, मुख्यमंत्री समेत कई शासक दल के प्रमुख नेता वहां आए, किंतु किसी को ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद से मिलने की फुरसत नहीं मिली।
मातृ सदन ने सवाल खड़ा किया है कि जब सरकार को बात नहीं करनी है और उसे न तो स्वामी सानंद के जान की चिंता थी और न ही ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद की है, तो फिर वह चिकित्सीय परीक्षण कराने के लिए अपने चिकित्सक क्यों भेजती है?
हकीकत यह है कि यदि टिहरी, हरिद्वार, बिजनौर, नरोरा में बने बांधों से पानी न छोड़ा गया होता तो प्रयागराज में स्नानभर का भी पानी नहीं मिलता। 15 जनवरी से 4 मार्च, 2019 अर्धकुम्भ की अवधि में कृत्रिम तरीके से गंगा का पानी साफ भी कर दिया गया, किंतु यह गंगा की जैव विविधता, यानी जीव-जंतुओं, के बगैर था। अतः यह अस्थाई व्यवस्था ही थी।
सवाल यह है कि सरकार राजनीतिक कारणों से प्रचार पाने के लिए जो काम कर सकती है वह स्थाई रूप से गंगा या लोगों के हित में क्यों नहीं कर सकती? वैज्ञानिक यह मानते हैं कि जब तक गंगा में न्यूनतम प्रवाह नहीं बना रहेगा, तब तक गंगा की निर्मलता नहीं रहेगी। इस प्रवाह को बांध बाधित करते हैं।
स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद की मांग भी यही थी कि गंगा को अविरल एवं निर्मल बहने दिया जाए। वे चाहते थे कि गंगा पर सभी प्रस्तावित व निर्माणाधीन बांधों का काम रोक दिया जाए व गंगा में अवैध खनन रोका जाए। उनके जाने के बाद जब सरकार ने मातृ सदन से पूछा कि उनकी न्यूनतम मांग क्या है तो स्वामी शिवानंद, जिनके नेतृत्व में साधुओं का अनशन आयोजित किया गया है और जिनका व्यक्तिगत संकल्प है कि मातृ सदन के एक साधु के बलिदान होने पर दूसरा अनशन पर बैठेगा और वे खुद अपने जान की बाजी लगाने को तैयार हैं, ने यह कहा कि कम से कम तीन पनबिजली परियोजनाएं, मंदाकिनी पर सिंगौली भटवाड़ी, अलकनंदा पर तपोवन विष्णुगाड व विष्णुगाड पीपलकोटी रद्द की जाएं और गंगा में खनन बंद हो।
जब सैनिक शहीद होते हैं तो देशभर के लोगों में आक्रोश देखने को मिलता है। लोग सड़कों पर निकल नारे लगाते हैं, शहीद सैनिकों के परिवारों की आर्थिक मदद करते हैं और उनकी मूर्तियां लगवाते हैं। सैनिकों के साथ क्या होगा इस पर तो सरकार का कोई नियंत्रण नहीं, किंतु साधुओं की जान तो सरकार बचा सकती है। नरेन्द्र मोदी की सरकार साधुओं से बात क्यों नहीं कर रही है? लोगों में भी साधुओं की उपर्युक्त बलिदानी परम्परा के प्रति कोई चिंता क्यों नहीं? खासकर ऐसे समय में जब देशभक्ति को धार्मिक भावना से भी जोड़ा जा रहा है।
एक तरफ अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर और दूसरी तरफ केरल के शबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को रोकने के लिए भी लोग सड़कों पर निकल आते हैं, जिसमें देश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा व कांग्रेस शामिल हैं, किंतु गंगा के लिए अपनी जान की बाजी लगाने वाले साधुओं के प्रति हमारी कोई सहानुभूति दिखाई नहीं पड़ती।
हिन्दुत्व के नाम पर सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार, जिसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने वाराणसी से चुनाव लड़ते समय कहा कि 'मां गंगा ने मुझे बुलाया है’ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े तमाम संगठन जो किसी भी धार्मिक मुद्दे को भुनाने में पीछे नहीं रहते, ईमानदारी से गंगा को बचाने के लिए अनशन करने वाले साधुओं के साथ क्यों नहीं खड़े नजर आते?
गंगा के साफ होने से देश के करीब 40 प्रतिशत लोगों को तो सीधा लाभ मिलेगा जो गंगा या गंगा की सहायक नदियों के किनारे रहते हैं, जबकि अयोध्या में राम मंदिर से किसको लाभ होगा मालूम नहीं, फिर भी संघ परिवार गंगा और उसके लिए अनशनरत साधुओं के प्रति संवेदनहीन है। यह दिखाता है कि हिन्दुत्व के नाम पर राजनीति करने वाले संगठनों का धर्म या धार्मिक मुद्दों से कोई मतलब नहीं जब तक वह उनके लिए मतों का ध्रुवीकरण न कर सके।
9 से 17 मार्च गंगा के लिए जो साधु अपनी जान दे चुके हैं, जो अनशनरत हैं और जो आगे अनशन पर बैठने वाले हैं उनकी मांगों के समर्थन में दिल्ली से मेरठ व मुजफ्फरनगर होते हुए हरिद्वार तक एक पदयात्रा का अयोजन किया जा रहा है।