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विमर्श

गुंडे-अपराधियों को टिकट दिया तो बतानी होगी नेता बनाने की मजबूरी, चाल-चरित्र वाला बॉयोडाटा भी करना पड़ेगा सार्वजनिक

Prema Negi
14 Feb 2020 11:39 AM IST
गुंडे-अपराधियों को टिकट दिया तो बतानी होगी नेता बनाने की मजबूरी, चाल-चरित्र वाला बॉयोडाटा भी करना पड़ेगा सार्वजनिक
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आंकड़े बताते हैं अपराधियों के दुबारा जीतने की संभावना 18 प्रतिशत रहती है, जबकि स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों के लिए यह संभावना रहती है महज 6, यानी देश को गुंडे-मवाली पसंद हैं राजनेता के बतौर...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। हमारे देश में क़ानून बहुत अलग तरीके से काम करता है – बड़े नेताओं के लिए अलग क़ानून होता है और जनता के लिए अलग। निर्भया के बलात्कारियों को उम्र कैद की सजा होती है और उन्नाव के बीजेपी के नेता जी जब बलात्कार करते हैं, पीड़िता के पिता की ह्त्या करा देते हैं, पीड़िता की भी हत्या करने का प्रयास करते हैं, उसके पूरे परिवार को कैमरे के सामने ख़त्म करने की धमकी देते हैं, तब स्थानीय पुलिस, प्रशासन और सरकार भी उन्हें तब तक बचाते रहते हैं जब तक सर्वोच्च न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करता।

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सके बाद भी उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिलाती है, फांसी की नहीं। अनेक मामलों की सुनवाई करने वाले जज तक मार दिए जाते हैं, सरेआम गवाह मारे जाते हैं, पर ऐसे लोग देश चलाने लगते हैं और अपनी मर्जी से किसी को भी आतंकवादी, देशद्रोही, अर्बन नक्सल और टूकडे-टूकडे गैंग का सदस्य बताने लगते हैं। जिसे भीड़ बीच रास्ते पर जान से मार देती है वह तो मुजरिम हो जाता है और हत्यारे चुनाव में खड़े होते हैं और जीत भी जाते हैं।

किसी दल के नेता की फर्जी डिग्री उसे अपराधी की श्रेणी में खड़ा कर देती है तो दूसरे दल के नेता की फर्जी डिग्री पूरी दुनिया देखती है, पर वह अपराधी नहीं कहा जाता। आज के दौर में सही मायने में अपराधी, हत्यारे और बलात्कारी देश चलाने लगे हैं और यही न्यू इंडिया की सबसे बड़ी पहचान है।

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13 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि राजनीतिक दल चुनाव में जितने भी अपराधियों को अपना प्रत्याशी बनाते हैं, उनका पूरा ब्यौरा और उनके प्रत्याशी तय करने का कारण पार्टी की वेबसाइट और सोशल मीडिया द्वारा प्रचारित करेंगे। यह आदेश एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) नामक संस्था द्वारा दायर याचिका के तहत दिया गया है।

न्यायालय के अनुसार राजनीति का तेजी से अपराधीकरण होता जा रहा है और अब ठोस कार्यवाही का समय आ गया है। आश्चर्य तो तब होता है जब संसद में या बाहर भी जब सभी दलों में यह चर्चा की जाती है तब वही अपराधी नेता बेदाग़ राजनीति की वकालत करने लगते हैं, पर अगले चुनाव आते-आते तक पहले से अधिक दागी उम्मीदवारों को चुनाव में प्रत्याशी बना देते हैं, यह किसी एक पार्टी का सच नहीं है, बल्कि हरेक पार्टियां ऐसा ही कर रही हैं।

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र्ष 2004 के लोकसभा में 24 प्रतिशत सांसद दागी थे, अपराधी थे, वर्ष 2009 में इनकी संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत, 2014 में 34 प्रतिशत और 2019 में 43 प्रतिशत तक पहुँच गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा है की क्यों पार्टियां स्वच्छ छवि वाले प्रत्याशियों से बचती हैं? अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि पार्टियां किसी भी चुनाव में यदि अपराधियों को प्रत्याशी बनाती है तो पार्टी को प्रत्याशी का नाम घोषित करने के 48 घंटे के भीतर अपने वेबसाइट और सोशल मीडिया पर इसे प्रचारित करने होगा और साथ में यह भी बताना होगा की उसे प्रत्याशी क्यों चुना गया है, पर केवल जीतने की क्षमता बतान अपर्याप्त होगा।

सी 48 घंटे के अन्दर दलों को चुनाव आयोग को भी यह जानकारी देनी होगी, और इसमें असफल रहने को सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना समझा जाएगा। इस फैसले का क्या असर होगा, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा, पर इतना तो तय है की राजनीति में ऐसे ही लोगों का वर्चस्व बना रहेगा।

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निर्भया बलात्कार काण्ड की जांच करने वाली वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार जिन भी राजनीतिक नेताओं पर बलात्कार का इल्जाम है उन्हें राजनीति से बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए, पर बलात्कार के अभियुक्त तो देश के संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। इसी तरह कुछ वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि दो वर्ष या इससे अधिक समय तक कारागार में रहे अपराधी को चुनाव लड़ने का अधिकार ख़त्म कर दिया जाए, पर इस पर तो अभी तक अमल नहीं किया जा रहा है।

माने राजनीति विज्ञानी मिलन वैष्णव के अनुसार यह जो प्रचलित धारणा है कि अपराधी चुनाव इसलिए जीतते हैं की मतदाता अनपढ़ हैं, यह सरासर गलत है क्योंकि पर्याप्त शिखा वाले शहरों में भी ऐसे उम्मीदवार जीत कर आते हैं। दरअसल, राजनीति को अपराधियों से अलग करने की धारणा या विचार ही हमारे देश में नहीं है।

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आंकड़ों के अनुसार अपराधियों के दुबारा जीतने की संभावना 18 प्रतिशत रहती है, जबकि स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवारों के लिए यह संभावना महज 6 प्रतिशत है। मिलन वैष्णव के अनुसार राजनीतिक दलों के लिए अपराधी काले धन का स्त्रोत हैं। सभी दल कुछ भी कहें पर यह तो तय है कि बिना काले धन के आप चुनाव नहीं लड़ सकते हैं, ऐसे में कोई धनवान यदि अपराधी या हत्यारा हो तो क्या फर्क पड़ता है।

र्ष 2013 के एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2004 से 2013 के बीच संसद के प्रत्याशियों की औसत सम्पदा में 222 प्रतिशत की वृद्धि पायी गयी और चुने गए सांसदों की संपत्ति में एक सत्र में ही 134 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी।

राजनीतिक नेताओं में अपराधियों की संख्या इस कदर बढ़ गयी है कि अपराध और उनके हावभाव को छोड़ भी दें तो भी अब तो राजनीतिक भाषा भी पेशेवर अपराधियों जैसी हो गयी है, क्या सर्वोच्च न्यायालय इस पर भी कोई आदेश देगा?

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