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आंदोलन

मोदी सरकार के जन विरोधी रवैये के खिलाफ हजारों किसानों-आदिवासियों का जंतर-मंतर पर कल होगा व्यापक प्रदर्शन

Prema Negi
20 Nov 2019 8:28 AM GMT
मोदी सरकार के जन विरोधी रवैये के खिलाफ हजारों किसानों-आदिवासियों का जंतर-मंतर पर कल होगा व्यापक प्रदर्शन
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file photo

मोदी सरकार के जन-विरोधी रवैये और आदिवासी-जंगलवासी समुदाय के अधिकारों के हनन और उनके खिलाफ ऐतिहासिक अन्याय की पुनरावृत्ति की ख़िलाफ़त के लिए जंतर मंतर पर भूमि अधिकार आंदोलन तथा वनाधिकार संगठन 21 नवंबर को करेंगे एक संयुक्त प्रदर्शन का आयोजन...

जनज्वार। एक के बाद एक सरकार के यह जन-विरोधी निर्णयों, करोड़ों आदिवासियों के अधिकारों और अमूल्य जंगलों की कीमत पर मुनाफ़ा कमाने की योजना के खिलाफ कल 21 नवंबर को दिल्ली स्थित जंतर मंतर पर एक व्यापक प्रदर्शन आयोजित होने जा रहा है, जिसमें दर्जनों सामाजिक कार्यकर्ता भी हिस्सेदारी करेंगे। यह भूमि अधिकार आंदोलन तथा वनाधिकार संगठनों का एक संयुक्त प्रदर्शन होगा।

एक प्रेस रिलीज जारी कर इन संगठनों ने कहा कि तथाकथित पर्यावरणवादी संगठनों की याचिका पर 13 फरवरी 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में यह कहा कि जिन आदिवासियों और अन्य पारम्परिक वनवासियों के दावे ख़ारिज हो गए हैं, उन्हें वन विभाग विस्थापित कर सकता है। इस आदेश के पश्चात देशभर में ज़बरदस्त विरोध के बाद और केंद्र व राज्य सरकार, एवं आंदोलनों के हस्तक्षेप ने सर्वोच्च न्यायालय को इस बात के लिए मजबूर कर दिया वह अपने निर्णय को 10 जुलाई 2019 तक स्थगित कर दे। उसके बाद से इस मामले में सुनवाई अभी तक चल रही है।

सुनवाई की अगली तारीख यानी कि 26 नवम्बर 2019 तक सर्वोच्च न्यायलय का आदेश है कि लम्बित मामलों में कहीं भी कोई भी बेदख़ली की कार्यवायी वन विभाग नहीं कर सकती। फिर भी वन विभाग वनवासियों के घरों और खेतों को तबाह कर उन्हें जंगल छोड़ने पर मजबूर कर रहा है। इस प्रक्रिया में कई जगह हिंसक घटनाओं की भी खबर आई है। मध्य प्रदेश के बुरहानपुर और उत्तर प्रदेश के सोनभद्र इसके दो उदाहरण हैं। 13 फरवरी 2019 से अब तक ऐसी तमाम घटनाएं प्रकाश में आई हैं।

न अधिकार कानून 2006 के द्वारा हमारा देश, आदिवासियों के प्रति सदियों से हुए ऐतिहासिक अन्याय को स्वीकार करता है। इस कानून का मूल सार ही यही है कि देश इस ऐतिहासिक अन्याय को स्वीकार करे और उसे ठीक करे। उल्लेखनीय है कि नवंबर 2001 में ऐसे ही एक बेदखली के आदेश के बाद देश में आदिवासी व वन-आश्रित समुदायों के हकों के लिए सक्रिय जन संगठनों, आंदोलनों, राजनीतिक दलों, पर्यावरणविदों, पत्रकारों और आकादमिक जगत से जुड़े सक्रिय नागरिक समुदायों के लंबे संघर्ष के बाद ही यह कानून अस्तित्व में आ पाया था। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय उस संघर्ष का अपमान है और उसे कुचलने का प्रयास है।

नाधिकार कानून को लागू हुये लगभग 12 वर्ष पूरे हो गये हैं, लेकिन अभी तक इस ऐतिहासिक कानून का ज़मीनी तौर पर प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो सका है। क्रियान्वयन के शुरूआती दौर से ही वनविभाग, सामन्ती तबके, वनमाफिया, निहित स्वार्थ वाले वर्ग तथा कुछ पर्यावरण संस्थाएँ लगातार नित-नयी रूकावटें पैदा करते चले जा रहे हैं।

प्रशासन और राजनीतिक शक्तियां भी इस ऐतिहासिक कानून के प्रभावी क्रियान्वयन के लिये कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखा रही हैं, बल्कि इस कानून के प्रति संवेदनहीन बनी हुई हैं। जिसके कारण ऐतिहासिक अन्याय बदस्तूर ज़ारी हैं और अब सरकारें भी कम्पनियों से सांठ-गांठ कर इस ऐतिहासिक कानून को निष्प्रभावी करने पर तुली हुयी हैं।

रकार द्वारा इस कानून को धरातल पर लागू न करने के पीछे की उसकी मंशा स्पष्ट है। सरकार को यह जंगल, जिन पर आदिवासी तथा वनवासी काबिज हैं, कॉर्पोरेट के लिए खाली करवाने हैं। 12 साल से यह कानून होने के बावजूद कंपनियां सरकारों के साथ सांठ-गांठ कर कहीं खनन तो कहीं निर्माण के लिए आए दिन आदिवासियों से जमीनें छीनती ही रहती हैं और जब भी आदिवासी तथा वनाश्रित आबादी इसका विरोध करती है तो उन्हें भीषण दमन का शिकार होना पड़ता है। इसका ताज़ा उदाहरण छत्तीसगढ़ में हसदेव अभयारण्य में बिना वनाधिकार क़ानून लागू किए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू करना।

पिछले सात महीनों से देश के 20 करोड़ से भी ज़्यादा आदिवासी-जंगलवासी, ना केवल विस्थापन बल्कि जीवन जीने की मूलभूत ज़रूरतों को लेकर चिंता और अनिश्चितता की स्थिति मे हैं। केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में 2008 से चल रहे इस केस की पैरवी के लिए कोई वकील तक नहीं खड़ा करना, साफ तौर पर उनके आदिवासी विरोधी तेवर दिखाता है।

र्तमान सरकार का कॉर्पोरेट लॉबी के साथ तालमेल और सरकारी विकास का मौजूदा औद्योगिक स्वरूप देश के किसान-मज़दूर तबके के प्रति जितना उदासीन है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार को ना तो जंगलों की फ़िक्र है और ना ही वहाँ रहने वाले आदिवासी और जंगलवासी समुदायों की। सरकार ने जंगलों की परिभाषा बदली है, जंगलों से गुजरने वाले बड़े बड़े राजमार्ग आदि को वन विभाग से मंज़ूरी की शर्त हटा दी है और अन्य कई कदम उठाए हैं जिससे जंगल और जंगलवासी दोनों ख़त्म हो जाएँगे।

देश के जंगल-ज़मीन और संसाधनों पर कॉर्पोरेट कब्ज़े को पुख्ता करने की दिशा में केंद्र सरकार ने एक और बड़ा कदम उठाते हुए, भारतीय वन कानून में संशोधन का प्रस्ताव राज्य सरकारों को भेजा है। अगर यह प्रस्ताव पारित हो जाता है तो वन विभाग को, जंगलों की रक्षा के नाम पर गोली चलाने का अधिकार मिल जाएगा। साथ ही वन विभाग किसी भी आदिवासी या जंगलवासी की संपत्ति ज़ब्त कर सकेंगे, उन्हें बिना वारंट गिरफ्तार कर सकेंगे। यूएपीए (UAPA) कानून की तर्ज़ पर लोगों को वन विभाग द्वारा लगाए गए आरोपों से खुद को बेकसूर साबित किए जाने तक उन्हे अपराधी ही माना जाएगा।

क के बाद एक सरकार के यह जन-विरोधी निर्णय, करोड़ों आदिवासियों के अधिकारों और अमूल्य जंगलों की कीमत पर मुनाफ़ा कमाने की योजना प्रतीत होते हैं। भारत सरकार के इस जन-विरोधी रवैये और आदिवासी-जंगलवासी समुदाय के अधिकारों के हनन और उनके खिलाफ ऐतिहासिक अन्याय की पुनरावृत्ति की ख़िलाफ़त के लिए राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 21 नवंबर, 2019 को दिल्ली के जंतर मंतर पर भूमि अधिकार आंदोलन तथा वनाधिकार संगठनों द्वारा एक संयुक्त प्रदर्शन आयोजित किया जाएगा।

स प्रदर्शन में देश के हर वनक्षेत्र से हज़ारों आदिवासी व वनाश्रित समुदाय शामिल होंगे। सभी सामाजिक—राजनीतिक कार्यकर्ताओं से इन संगठनों ने अपील की है कि ज्यादा संख्या में 21 नवंबर 2019 को नई दिल्ली के जंतर मंतर पर होने वाले विरोध प्रदर्शन में शामिल होकर अपनी राजनीतिक शक्ति को मजबूती से दर्शायें। यह एक निर्णायक संघर्ष है जिसे हर हाल में हम सभी को मिलकर कामयाब बनाना हैं।

नन मोलह, मेधा पाटकर, जितेंद्र चौधरी, अशोक चौधरी, उल्का महाजन, रोमा, अतुल अंजान, प्रफुल्ला समंत्रा, ब्रायन लोबो, डॉ. सुनीलम, संजय बसु मलिक, गौतम बांधोपाध्याय, एड. आराधना भार्गव, दयामनी बारला, तीस्ता सीतलवाड़, वीरेंद्र विद्रोही, सुनीत चोपड़ा, राघवेंद्र, वीजू कृष्णन, प्रेम सिंह, सत्यवान, अनिल चौधरी, भूपिंदर सिंह रावत, मधुरेश कुमार, अशोक श्रीमाली, कृष्णा प्रसाद, दीप सिंह शेखावत, मुन्नीलाल, जयराम, शिबो, चित्रा,संजीव कुमार, अनिल वर्गीस, और भूमि अधिकार आंदोलन से जुड़े लोग इसमें हिस्सेदारी करेंगे।

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