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संस्कृति

थोड़ी सी शर्म है इस हँसी में ढेर सारी मौका परस्ती

Janjwar Team
23 Feb 2018 12:38 PM GMT
थोड़ी सी शर्म है इस हँसी में ढेर सारी मौका परस्ती
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'सप्ताह की कविता' में आज कवि विजय कुमार की कविताएँ

ऐसे समय में जब हमारे नामवर आलोचक, कवि रचनाओं की पड़ताल के बजाय प्रकाशकीय वक्तव्यों के पृष्ठपोषण में ज्यादा रुचि ले रहे हों, काल से ज्यादा ‘मुहूर्त’ या ‘कालक्षण’ के क्षणवादी लेखन की महत्ता बताने में लगे हों, विजय कुमार की कविताएँ न्याय और सहृदयता को जिस ताकत और विश्वास के साथ सामने लाती हैं वह एक त्रासद विस्मय से भरतीं हमें हमारे भूले हुए रास्तों की याद दिलाती हैं –'एक डूबती शाम यह दुनिया किसी नियान साइनबोर्ड की तरह/ चमक रही है बेमतलब और हम घर का रास्ता भूल गए हैं...'

विजय कुमार की कविताएँ मिसाल की तरह हैं कि वे आत्मविश्वास से पूर्ण जिजीविषा की ताकत को सादे ढंग से व्यक्त करते हैं। यह जिजीविषा सामान्यतः कवियों में ढूँढ़ ली जाने वाली जिजीविषा नहीं है, यह चैतरफे हमले से मिटा दिए जाने की कोशिशों के बरक्स खुद को बचा ले जाने वाली जिजीविषा है...'चिथड़े फड़फड़ाते हैं चूमती है आधी रात हर बड़े शहर में कंगालों को भिखमंगों के चेहरे फरिश्तों से ज्यादा चमकीले हैं...' इस वक्त (सड़क के बच्चे)

मुंबई जैसे महानगर में रहनेवाले इस कवि के यहाँ जिस तरह जीवन की बारीकियाँ पथरीली जकड़नों को तोड़ खुद को जाहिर करती हैं, वह नई कविता पीढ़ी के लिए आक्सीजन की तरह है? ‘...लोग सिर्फ दुर्घटनाओं की चपेट में हैं एक दिन खत्म हो जाती है सहनशक्ति प्यार तो कभी खत्म नहीं हुआ था ...'

यहाँ जो जीवनी-शक्ति है, सबसे मामूली इच्छाओं में भी प्रेम को तलाश पाने की, वह हिंदी कविता में के नए विस्तार को दर्शाती है। ऐसे समय में जब उत्तर-आधुनिकता और महानगरीय बोध हमारी सहज ग्रामीण चेतना को ग्रहण लगाता जा रहा है और नियान की बेमतलब की रोशनी से आजिज गाँवों के किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं विजय कुमार अपनी कविता में शहर के इस तिलिस्म को तार-तार करते दिखते हैं –' ...मैं भूख के सबसे अंदरूनी इलाकों में एक शहर की लाचारी पढ़ रहा हूँ...'

अपनी बुनावट में विजय कुमार की कविताएँ आलोक धन्वा के निकट पड़ती हैं। आलोक की तरह ही वे अपनी आत्मीयता में पाठकों को अपने साथ लेती चलती हैं। आलोक जिसे भाषा और लय के बिना केवल अर्थों में घटित चीख कहते हैं, उसे विजय कुमार ज्यादा संपूर्णता में अभिव्यक्त कर पाते हैं। आइए पढते हैं विजय कुमार की कविताएं - कुमार मुकुल

बम्बई-2
बाहर तब रात थी
हमने पाँव
घुटनों तक समेट लिए थे

पूरी रात हमने देखा
ख़ाली जगहों पर इमारतें खड़ी हो रही थीं
पूरी रात
लाचार समुद्र
शहर से कुछ और दूर खिसक रहा था
पूरी रात
पिता बग़ल में पोटली दबाए
शहर में पता ढूंढते फिर रहे थे
पूरी रात
क्षितिज पर इंजन गरज रहे थे

काग़ज़ों के ढेर पर ढेर
लगते गए इमारतों से भी ऊँचे
घने कोहरे में
चीखें और आत्महत्याएँ थीं
पूरी रात
हवाएँ लाती रहीं अपने साथ
जलते हुए रबड़ की दुर्गन्ध

आकाश
यह कैसा आकाश था
इतनी रात और अंधेरे में
अपने साथ
कोई स्मृति भी नहीं
इस तरह हम
छूटते गए अकेले
नहीं यह बुख़ार नहीं था
हम स्तब्ध पड़े थे
ख़ामोश
वह हँसी
हमारी नहीं थी
छाती से निकलती हुई
खोखली हो...हो...।

वसुन्धरा
दूर उपनगर के प्लेटफार्म नम्बर तीन पर
एक नंग धड़ंग औरत खड़ी है
दिन दहाड़े
सरे आम
बेखबर
आसमान तकती

यह रेनुआँ का कोई पुराना चित्र नहीं है

इस औरत को दो आदमी घूर रहे हैं
बीस आदमियों ने घूरा उसे
फिर तो दो सौ आदमी घूर रहे हैं

पगली है, पगली है
हँसे दो आदमी
बीस आदमी हँसे ज़ोर से
अब तो दो सौ आदमियों की डरावनी हँसी है
प्लेट्फार्म पर यहाँ से वहाँ तक

थोड़ी सी शर्म है इस हँसी में
ढेर सारी मौका परस्ती
और एक छापामार क़िस्म का सुख
बीसवीं सदी के अंतिम दशक का

पर हँसते हुए ये लोग पिछले ज़माने के
कि हँसे तो हँसते ही चले जाएं
ये हँसते हुए दो सौ आदमी
पल भर में गायब हो जाते हैं
सिर्फ एक गाड़ी के आते ही

दूर उपनगर के प्लेटफार्म नम्बर तीन पर सुबह साढ़े नौ बजे खड़ी हुई
हे सृष्टि की अनमोल रचना!
अब इस प्लेटफार्म पर सिर्फ तुम्हारा
निपट नंगापन बचा है
अगली गाड़ी आने तक

तुम धरती की जिस खोह से निकलकर
हमारे संसार में अचानक चली आई
अपनी उस खोह में लौट जाओ

अगले वक़्त में हम तुम्हारे लिए थोड़ा सा रेशम
थोड़े से फल
एक आईना
और एक स्मृति जुटा लेंगे

देखो हमें ध्यान से देख लो ज़रा
शायद इस संसार के अंतिम मनुष्य गिने जाएं।

कुंभ-4
क्या यह मेरी अंतिम मृत्यु है
क्या इसके बाद मेरा जीवन अमर हो जाएगा
मैंने चीख़ कर पूछा साधु से

साधु, जो एक टांग पर खड़ा था बरह बरस से
उसके गुप्तांग पर चांदी का ढाल
लोहे की चेन से बंधा हुआ जिसमें उसका तूफ़ान
बारह बरस से

वह मुस्कराया, वह डालडा के डिब्बे से
शहद निकालकर खाता हुआ
वह बड़ी-बड़ी जटाओं वाला रीछ।

Janjwar Team

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