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विष्णु खरे हैं और रहेंगे अपने अक्खड़पन और खिलंदड़ेपन के साथ
उनके जाने के बाद तो लग रहा था कि अरे कितनी सारी बातें हैं जो अभी दिख रही हैं मुझे। पूरी कहानी को वे कैसे समेट देते थे कविताओं में पूरा इतिहास साथ-साथ। उनसे प्यार बढ़ता ही जा रहा उनके जाने के बाद...
ब्रेन स्ट्रोक के बाद आज अलविदा कहने वाले हिंदी कवि—साहित्यकार विष्णु खरे के साथ की उनकी आत्मीयता की यादों को साझा कर रहे हैं कवि और पत्रकार कुमार मुकुल
जिस तरह विष्णु जी बेहोशी के बाद कोमा में चले गये थे, आशंका घर कर रही थी। पर वे सचमुच इस तरह अलविदा कह देंगे, यह सोचना अब भी कष्टकर लग रहा।
उनसे कुल आठ-दस मुलाकातें थीं। मेरे अक्सर साइलेंट रहने वाले फोन पर साल दो साल पर कभी कभार उनका मिसकॉल दिख जाता तो फिर मैं फोन करता।
मुझे लेकर वे चिंतित रहते थे। अंतिम बातचीत में भी पूछ रहे थे कि पैसा आदि काम भर मिल रहा है न। दिल्ली जब संकट में आया था तो उनसे भी मिला था। वे परेशान से हो गये थे - 'पूछा, मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं।' मैंने कहा - 'नहीं, लिखना-पढना जारी रहे बस, इलाज चल रहा।' उन्होंने कहा - 'मंगलेश से मिलो। मैंने उन्हें नहीं बताया कि मैं मंगलेश डबराल से मिलकर ही आ रहा।'
उन्होंने उसी समय उन्हें फोन लगाया और बोले कि 'यार, मुकुल संकट में है, उससे कुछ लिखवाओ। इससे पहले मंगलेश जी ने मुझसे कभी लिखवाया नहीं था कुछ, आशा भी नहीं थी, पता नहीं क्यों? पर विष्णु जी के फोन के बाद सहारा समय में लगातार समीक्षाएं लिखवाई उन्होंने।'
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अपनी जानकारी में मैंने कविताओं पर जो कुछ लिखा है उसमें कुछ विस्तार से विष्ण्ुा जी पर ही लिखा है। पहली बार वह समकालीन कविता में छपा था अरसा पहले। फिर दस साल बाद वही आलेख फिर 'कल के लिये' में छपा।
तब एक दिन एक अनाम फोन आया - 'आपने यह विष्णु खरे पर क्या लिख डाला है। वह इस लायक तो नहीं।'
मैंने जवाब में कहा, 'अब मुझे जो लगा सो लिख दिया, लायक हों या नहीं पता नहीं।'
तब एक हंसी उभरी फिर मुझे लगा कि खुद विष्णु जी ही हैं।
मैंने कहा - 'सर आप।'
वे हंसने लगे, फिर कहा - 'अच्छा लिखा है तुमने।'
फिर देर तक बातें होती रहीं। फिर उसी लेख पर नरेश सक्सेना जी का फोन भी पहली बार आया और लंबी बात की उन्होंने।
उसके बाद साल-दो साल पर उनका फोन कभी आता अचानक। उनका मेल भी जब तब आता। जब वे कुछ लिखते सोशल मीडिया पर तो उसका लिंक मेल करते। इधर पाखी से उनकी प्रतिनिधि कविताएं उठा लाया था, उसमें कुछ नयी कविताएं मिली थीं उनकी। पढ़ रहा था।
उनकी कविताएं अभी देख रहा हूं। उनके जाने के बाद तो लग रहा था कि अरे कितनी सारी बातें हैं जो अभी दिख रही हैं मुझे। पूरी कहानी को वे कैसे समेट देते थे कविताओं में पूरा इतिहास साथ-साथ। उनसे प्यार बढ़ता ही जा रहा उनके जाने के बाद। वे हैं और रहेंगे अपनी निर्भीकता में, अपने अक्खड़पन में, अपने खिलंदडेपन के साथ अभी उनसे बहुत कुछ सीखना है।
विष्णु खरे की चर्चित कविता 'सरस्वती वन्दना'
तुम अब नहीं रहीं चम्पावेल्ली चंद्रमा और हिम जैसी श्वेत
तुम्हारे वस्त्र भी मलिन कर दिए गए
यदि तुम्हारे वीणा के तार तोड़े नहीं गए
तो वह विस्वर हो गयी है
जिस कमल पर तुम अब तक आसीत् हो वह कब का विगलित हो चुका
जिस ग्रन्थ को तुम थामे रहती थीं
वह जीर्ण-शीर्ण होकर बिखर गया
तुम्हारा हंस गृध्रों का आखेट हुआ
मयूर ने धारण किया काक का रूप
जिस सरिता के किनारे तुम विराजती थीं वह हुई वैतरणी
सदैव तो क्या कदाचित भी कोई तुम्हारी स्तुति करने नहीं आता
तुम किसी की भी रक्षा नहीं कर पा रही हो जड़ता से
मुझ मूर्खतम की क्या करोगी
वीणावादिनि वर दे यही
जा कालिका में विलीन हो जा अब
बनने दे उसे उस सबकी देवी
जिसकी तुझे बनने नहीं दिया गया
आओ चंडिके कटे हाथों का अपना प्राचीन कटि-परिधान तज कर
छोड़ आओ अपनी बासी मुंड-माल
फेंक दो खप्पर-सहित रक्तबीज का सजावटी सिर
शारदा के समस्त विश्वासघाती भक्तों-पुरोहितों-यजमानों की प्रवृत्तियां
हो चुकी हैं तामसिक और आसुरी
कितना कलुष कितना पाखण्ड कितना पाप कितना कदाचार
मानव ही रक्त पी रहे हैं मानवों का
कितना करणीय है इधर तुम्हारे लिए कराली
तुममें समाहित सरस्वती तजे अपने रूधिर-पथ्य
तुम्हारी तृषा तुष्ट करने हेतु प्रचुर है यहाँ
क्षुधा का शमन करने के लिए पर्याप्त
टटके कर मुंड महिष शुम्भ-निशुम्भ रक्तबीज हैं
हंस पर नहीं शार्दूल पर आओ भवानी
और रचने दो यहां अपना नूतन स्त्रोत
या देवी सर्वभूतेषु विप्लवरूपेण तिष्ठिता।