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आंदोलन

जिंदा बचे रहने की उम्मीद में तमिलनाडु से हजारों किमी दूर पैदल ही निकल पड़े हैं यूपी-बिहार के मजदूर

Prema Negi
19 May 2020 1:21 PM IST
जिंदा बचे रहने की उम्मीद में  तमिलनाडु से हजारों किमी दूर पैदल ही निकल पड़े हैं यूपी-बिहार के मजदूर
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26 साल का मजदूर संतोष कहता है, मेरा परिवार नहीं जानता है कि मैं पैदल चल रहा हूँ। हममें से किसी ने भी अपने परिवारों को नहीं बताया है। अम्मा भावुक हो जाएंगी और रोने लगेंगी, फिर मैं भी भावुक हो जाऊंगा, इसलिए मैंने उन्हें फोन ही नहीं किया है....

नित्यानंद जयरमण की रिपोर्ट

भी कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आत्म-निर्भरता वाला अपना फालतू सा भाषण दे चुके हैं और मैं खड़ा हूँ चेन्नई-कोलकाता हाइवे यानी राजमार्ग के गुम्मिडिपुण्डी नामक स्थान पर। तमिलनाडु में फंसे सैकड़ों प्रवासी मज़दूर सच मायने में आत्म-निर्भरता की बात को चरितार्थ करते दिखाई दे रहे थे। ट्रेन के माध्यम से उन्हें उनके शहर तक पहुंचाने के सरकारी वायदे की राह देखते-देखते थक चुके चेन्नई के प्रवासी मज़दूर दस और बीस के झुण्ड बना पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखण्ड, बिहार, उत्तर प्रदेश और यहां तक कि अरुणाचल प्रदेश के लिए निकल पड़े थे।

वे पैदल चल रहे थे और साइकिल पर भी सवार थे। उन्होंने साइकिलें अपनी बचत के बचे-खुचे पैसों से खरीदीं थीं। वे खाली जेब और भारी दिल के साथ घर लौट रहे थे। गुम्मिडिपुण्डी से कोलकता की दूरी 1678 किलोमीटर है और अरुणांचल की दूरी लगभग 3000 किलोमीटर है।

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मैं 17 युवाओं के एक समूह में शामिल हो गया। इस समूह में सबसे ज़्यादा उम्र वाला युवक 26 साल का था। इनमें से 9 विहार जा रहे थे और बाकी सभी मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी जा रहे थे। लेकिन मोदी जी, योगी जी और एड़प्पादी जी जैसे महान नेता अपने ऊँचे रसूख के बावजूद इतना पैसा नहीं जुटा पाए कि इन बच्चों को इनके माँ-बाप के पास इज़्ज़त और उनकी जेबों में कुछ पैसों के साथ पहुंचा पाते।

मैं गुस्से में था लेकिन लाल बहादुर नहीं था। वो बोला-"वे अब हमारी मदद क्यों करेंगे? आपको लगता है कि अगर जहां हम रह रहे थे वहां पर हमारी मदद हो जाती तो क्या हम इतनी दूर आते?" मैं जिसे वैराग्य अथवा आत्म-संयम समझ रहा था, वो दरअसल हमारे नेताओं से रखी जाने वाली कम अपेक्षा से पैदा हुई उदासीनता थी।

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भारत का आम आदमी राजनीतिक वर्ग पर भरोसा नहीं करता है यह बात लोगों की उस भारी भीड़ से सिद्ध हो जाती है जो हमारे राजमार्गों पर पैदल मार्च करती हुयी, साइकिल से या दूसरे वाहनों से सफर करती हुयी दिखाई दे रही है। मैं तमिलनाडु में मुसीबत में फंसे प्रवासी कामगारों की मदद के लिए बनाई गयी स्वैच्छिक हेल्प लाइन का हिस्सा हूँ।

पिछले 50 दिनों में हमें कामगारों के 1000 विशिष्ट समूहों से कम से कम 20 हज़ार कामगारों के फोन आये हैं। अपनी रोज़ी-रोटी कमाने की खातिर जिस तमिलनाडु में वे आये थे, वही तमिलनाडु आज उनके लिए फंदा बन गया है। हमें जो फोन कॉल्स मिलती हैं उनमें दूसरी तरफ से 'हेलो' की बजाय अब 'हम तमिलनाडु में फंसे हैं' यह आवाज़ आती है।

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कोई सरकारी सहायता नहीं पहुँच रही है, निश्चित रूप से ज़रुरत के अनुरूप तो बिल्कुल ही नहीं। अगर किसी ज़िले या ऑफिस का प्रभारी संवेदनशील और क्षमतावान है तो निश्चित रूप में स्थितियां कुछ बेहतर हैं। लेकिन ऐसा होना अपवाद है, आम बात नहीं। अपने गांव की तरफ चल पड़े मज़दूर के लिए तो सरकार की प्रतीक लाठी भांजती पुलिस से डरना और दूरी बनाये रखना ही समझदारी दिखाना जान पड़ता है।

फिर भी सब कुछ खराब ही खराब नहीं है। भारी-भरकम जेबों और उससे भी भारी आवाज़ वाले बड़े-बड़े नेता मज़दूरों की परेशानियों को दूर करने के लिए भले ही कुछ नहीं करते हों लेकिन देश के आम आदमी के दिल में थोक के भाव बसी अच्छाई देश के पहियों को आगे की तरफ चलाती रहती है।

जिन लड़कों के साथ मैं पैदल चल रहा था उन्होंने कल से कुछ भी नहीं खाया था। सुबह के 9 बज चुके थे। हम चेन्नई-कोलकता राजमार्ग पर सड़क किनारे एक छोटे से ढाबे पर रुके। 13 लोगों द्वारा किये गए नाश्ते की कीमत 300 रुपये आई। ढाबे की मालकिन ने हमसे सिर्फ 260 रुपये लिए और बोली-"बकाया मेरा योगदान है। इस भीषण गर्मी में इन्हें पैदल चलते देख कर मेरा दिल भर आया है। मैं मुनाफा नहीं रख सकती।"

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कुछ किलोमीटर आगे चलने पर हमें एक बैनर लगा दिखा, जिसमें तमिल में लिखा था कि अन्नदानम (मुफ्त भोजन) चालू है। पंचैटी पंचायत के द्वार पर यह बैनर लगा था। इस पंचायत के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सभी वार्ड सदस्यों ने पैसे का सहयोग कर दिन के भोजन की 300 थालियों और रात के भोजन की 200 थालियों का इंतजाम किया था। एक फैले हुए वृक्ष ने छाँह दे रखी थी। एक किनारे पर कुछ नल लगे थे जिनमें से पानी बह रहा था। कुछ कामगार इधर-उधर खड़े थे जबकि कुछ अपने हाथ-पांव धो रहे थे।

उत्तर भारत की ओर जाने वाले प्रवासी मज़दूर आनंदम पर इस तरह टूट पड़े थे जैसे चीटियां शहद की ओर भागी चली जाती हैं। भले ही तमिल भाषा में लिखा बैनर उन्हें समझ में नहीं आ रहा हो, लेकिन ब्रिन्जी चावल की खुशबू उन्हें अपनी तरफ खींचे चली जा रही थी। आपस में कुछ भी बातचीत नहीं हो रही थी क्योंकि खानेवालों और खिलानेवालों की बोलचाल की भाषा एक नहीं थी।

पास ही में एक परिवार खड़ा था जिसमें तीन सदस्य थे। एक आदमी, एक औरत और एक जवान लड़का। कस्तूरी नाम का एक कुत्ता भी था जो लड़के के हाथ में पकड़ी हुई रस्सी में बंधा था। पैदल चलने वालों के बीच बांटने के लिए मेरे दोस्त चप्पलें लेकर चल रहे थे। और इस लड़के का पिता उसमें अपने लिए चप्पल का एक जोड़ा छांट रहा था। उसने अपना परिचय बूमबूम मटुकर के रूप में दिया। यह एक घुमन्तू आदिवासी समूह है जिसके सदस्य भविष्यवक्ता और मनोरंजनकर्ता होते हैं और आमतौर पर एक सजे-धजे बैल के साथ घूमते हैं।

दमी और उसके जवान बेटे ने कपडे से बंधे शानदार मुर्गे अपनी कांख में दबा रखे थे। पिता बोला-" ये बहुत हिंसक हैं और अनजान लोगों पर हमला बोल देंगे।" वो अचानक मुड़ा और तेजी से गर्म होते जा रहे गुंटूर हाईवे की ओर बढ़ चला। बहुत तेज क़दमों से चलने के बावजूद गुंटूर पहुंचने में उसे पूरे 15 दिन लग जायेंगे। उसका परिवार भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

ह राजमार्ग मशहूर स्वर्णिम चतुर्भुज योजना का हिस्सा है यानी 8 लेन वाली 100 मीटर लम्बी सड़क जिसके दोनों किनारे पर एक भी पेड़ नहीं दिखाई देता है। यह आधुनिक भारत का आधारभूत ढांचा है। अगर आपको चक्कर आ जाता है और पेड़ की छाया की ज़रुरत महसूस होती है तो बस अपने दुर्भाग्य को कोसते रहिये।

वही सड़क थी जो कुछ समय पहले तक दोनों किनारों पर इमली के पेड़ों से लदी-फदी ४ लेन की सड़क हुआ करती थी जिसके आसपास ग्रामीण आबादी थी। अब तो राजमार्ग एक सपाट मैदान में लेटे हुए विशाल अजगर जैसा दिखाई देता है। यहाँ-वहाँ जहाँ कहीं भी तीन मीटर की छोटी ऊंचाई वाला नीम का पेड़ या कोई झाड़ी दिखाई पड़ती तो चार-पांच पैदल यात्रियों का समूह इनकी छाँव में सुस्ताते हमें ज़रूर दिखाई दे जाता था।

विकास की दिशा में भारत के बढ़ते कदमों ने इस तरह के व्यापारिक आधारभूत ढांचों के निर्माण को गति दी है। तथाकथित राजमार्गों के दोनों ओर खड़े पेड़ों को सामान ले जाने वाले ट्रकों और तेज गति के वाहनों की खातिर बलिदान कर दिया गया। सड़कें आम जन के इस्तेमाल की सर्वोत्कृष्ट माध्यम थीं वे आवागमन का जरिया थीं। सड़कों के दोनों किनारे थकेहारों के लिए सुस्ताने के आराम-स्थल और वस्तुएं बेचने वालों के लिए स्टेशन थे। वर्षों पूर्व राजा-रानी सड़कों के किनारे आराम-गृह बनवाते थे। इन आराम-गृह में पीने के पानी के कुएँ या तालाब भी होते थे।

में दो किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ा तब जाके हमें ऐसी जगह मिली, जहां कुछ छाया थी। यह जगह थी निर्माणाधीन पुल के नीचे का हिस्सा। पुल के नीचे लगभग 100 प्रवासी मज़दूर अकेले एक समूह में बैठे थे। छाँव को शुक्रिया अदा करने के बाद मैं भी आराम करने लगा। तापमान 40 डिग्री से कम नहीं रहा होगा। ह्यूमिडिटी ऊपर से अलग। पसीना भी कुछ राहत नहीं दे रहा था। आपकी त्वचा से ज़्यादा ह्यूमिडिटी हवा में थी। थमी हुई हवा की तरह आपको चुपचाप बैठे रहना होता है। तब बहुत देर बाद जाकर आपको ठंडक महसूस होती है।

ही मैंने यात्रा दोबारा शुरू करने की इच्छा पैदा की और सांस भरी तभी दो मोपेड्स में पानी का बर्तन आगे टांगे चार लोग बैठे जाते दिखे। उत्सुकता भरी आँखों के उठने के साथ ही कुछ लोगों ने महसूस किया कि दोबारा पानी भरने का मौक़ा दिया जा रहा है। लेकिन एक मोपेड यह बुदबुदाते हुए निकल गयी कि यहां इकट्ठा हुए इतने सारे लोगों के लिए कहीं ज़्यादा पानी भरे बर्तनों की ज़रुरत होगी। एक युवक जब 5 लीटर के पीले रंग के कैन का पानी उलटने लगा तो मोपेड में बैठा आदमी तमिल में चिल्लाया-" ए! तुम्हारा सर फिर गया है क्या? तुम्हें पता है ये अच्छा वाला पानी है?"

त्तर भारत का मज़दूर उसकी शारीरिक भाषा को समझ गया। वह बोला-"पानी बहुत गरम है। हमारे किसी काम का नहीं है।" ये सच भी है। बोतल में भरा हुआ पानी गरम होकर ऐसे स्तर पर पहुँच जाता है जहां वो प्यास बुझाने में कम असरदार होता है। अगर सड़कें राजमार्ग विशेषज्ञ इंजीनियरों के बजाय पैदल यात्रियों द्वारा डिज़ाइन की गयी होतीं तो इनके दोनों तरफ बहुत सारे छायादार पेड़ होते, थोड़ी-थोड़ी दूर पर ठंडे पानी से भरे मिट्टी के घड़े होते और हर 10 से 15 किलोमीटर पर डुबकी लगाने के लिए एक तालाब होता।

म आंध्रा की ओर दो किलोमीटर और पैदल बढ़ते गए। मेरा साथी बिसहर, उत्तर प्रदेश का 26 वर्षीय युवा संतोष कुमार था। उसकी चाल कुछ अजीब सी थी, उसका दाहिना पैर जब उठता था तो मेहराब सी बना लेता था। मैंने ध्यान से देखा तो मुझे लगा कि उसके पैर तो ठीक हैं लेकिन उसकी चप्पलें ठीक नहीं हैं। वे पुरानी और जर्जर हो चुकी थीं। दाहिने पैर वाली चप्पल जोड़ी गयी थी। घोर आश्चर्य होगा अगर इस तपती सड़क पर वह चप्पल 10 किलोमीटर तक भी चल पाए।

संतोष से बात करने पर आपको पता चलेगा कि लोग दूरदराज के शहरों की ओर पलायन इसलिए नहीं करते हैं कि उन्हें भारत का नाम रोशन करना है, भारत का निर्माण करना है या कि मध्यवर्गीय भारतीयों की ज़िंदगी बेहतर बनानी है। संतोष ने बताया-" मेरी तीन छोटी बहनें हैं, उनमें सबसे बड़ी 19 साल की है, उसकी शादी होनी है। उसके लिए हमने एक लड़का भी पसंद कर लिया था। मैं उसकी शादी के लिए पैसा कमाने यहां आया था, लेकिन काम शुरू किये एक महीना ही हुआ था कि लॉकडाउन हो गया। मेरी सारी कमाई ख़त्म हो गयी है।"

वो फिर बोला-" मेरा परिवार नहीं जानता है कि मैं पैदल चल रहा हूँ। हममें से किसी ने भी अपने परिवारों को नहीं बताया है। अम्मा भावुक हो जाएंगी और रोने लगेंगी, फिर मैं भी भावुक हो जाऊंगा। इसलिए मैंने उन्हें फोन ही नहीं किया है।"

ब बॉर्डर चेकपोस्ट दिखाई देने लगा था। मेरे साथी घबड़ा रहे थे। एक युवक ने मुझसे पूछा-" क्या वो पुलिसवाला परेशान करेगा?" मैंने कहा-" नहीं, मुझे नहीं लगता है।" एक दूसरे युवक ने रूखेपन से अपना सर हिलाया। पिछले चेकपोस्ट पर उसने पुलिस की लाठी खाई थी। पैदल चलने वाले कुछ दूसरे लोगों ने मुख्य सड़क से ना जाने की सलाह दी। हमसे कहा गया कि मुख्य सड़क से उतर कर खेतों से होते हुए आंध्रा को पार कर जाइये फिर वापिस सड़क पर आकर कुछ किलोमीटर तक चलिए। इसलिए ऐलावूर के किनारे पर टोल गेट से 500 मीटर पहले ही हम राजमार्ग से उतर गए और पानी भरे मैदान को पार करते हुए पूर्व की ओर चल पड़े। एक बार फिर, पूरे रास्ते एक भी पेड़ नहीं दिखाई दिया।

पश्चिम की ओर 8 फ़ीट ऊंचा बाँध था जिसने जलाशय को झींगा-मछली की खेती से अलग कर दिया है। गनीमत है वहां दो बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ थीं जिनकी छाँह में लगभग ३० लोग बैठे थे। कुछ लोग चाय बना रहे थे। हम यूं ही चलते रहे, बिना यह जाने हुए कि हम जिधर जा रहे थे उधर से राजमार्ग की तरफ लौट कर कोई रास्ता आता है या नहीं।

मैं लगभग डेढ़ किलोमीटर तक चला गया तभी गुम्मिडिपुण्डी के मेरे दोस्तों ने मुझे आवाज़ लगाई। उन्होंने कहा कि इस रास्ते सड़क तक पहुंचने के लिए मुझे 10 किलोमीटर तक चलना पड़ सकता है। मेरे पास का पानी ख़त्म होने वाला था। मेरा दिमाग़ उबले हुए अंडे की तरह महसूस होने लगा था। मैंने वापिस लौटने का निश्चय किया। मैंने अपने साथियों से कहा- "ख़ुदा हाफ़िज़।" कुछ लोग ख़ुदा हाफ़िज़ बुदबुदाए और बाकी लोगों ने कहा-" राम-राम भइया।"

म एक-दूसरे को पीठ दिखा कर मुड़े और अपने-अपने रास्ते चल पड़े। मैं कुछ किलोमीटर दूर खड़ी अपनी कार की तरफ़ और वे 1000 किलोमीटर दूर अपने घर, अपने प्रियजनों और अपने जीवन की सुरक्षा की तरफ़।

(चेन्नई में रहने वाले लेखक और सामाजिक कार्यकर्त्ता नित्यानंद जयरमण की यह रिपोर्ट दि न्यूज़ मिनट से साभार।)

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