यहां मासिक धर्म के दौरान जानवरों के साथ रहती हैं महिलाएं, पर नहीं उठती कोई आवाज
आश्चर्य है कि उत्तराखंडी समाज का बहुतायत इसे शोषण मानने की जगह परंपरा का नाम देता है। आधुनिकता और शहरी विकास के बावजूद इन पाखंडी और शोषक परंपराओं पर कोई रोक नहीं लग पाई है। उत्तराखंड के देहातों में स्थिति ज्यादा बदतर है। 'जनज्वार' संवाददाता ने महिलाओं से ही सीधे ये सवाल पूछे कि मासिक धर्म में जारी अंधविश्वासी मान्यताएं अभी समाज में कितनी बची हैं और उसके बदलाव के लिए क्या हो रही है पहल!
अल्मोड़ा से विमला की रिपोर्ट
जनज्वार। पीरियड्स आने को लेकर आज भी हमारे समाज में बहुत ही रुढिवादी सोच और कुप्रथाएं बनी हुई हैं,उसके वैज्ञानिक विशलेषण को अब भी स्वीकार नहीं किया जाता, उत्तराखंड जैसे पहाड़ी इलाकों मे जब भी महिलाओं को पीरियड्स आतें उन्हें किसी अलग से कमरे में रहने को कहा जाता है। उनका खाना, बिस्तर, बर्तन,सब कुछ अलग कर दिया जाता है, बहुत से घरों में आज भी दूध वाली चाय नहीं दी जाती इन 3,4दिनों तक उसे परिवार और समाज से अलग रखा जाता है।
नीलिमा भटृ माहवारी के बारे में अपनी बात रखते हुए कहती हैं उनसे पूछा जाना चाहिए जो लोग कहते हैं माहवारी के दौरान महिलाएं अपवित्र हो जाती हैं वो लोग कहाँ से पैदा हुए हैं। माहवारी की प्रक्रिया से ही इंसान का जन्म होता है। कोई आसमान से नहीं पैदा होता, महिला की कोख से ही पैदा होता है। माहवारी उतना ही पवित्र है जितना की इंसान का जन्म लेना माहवारी से निकलने वाला रक्त भी उतना ही पवित्र है, जितना कि शरीर के किसी अंग से कट जाने मे निकलने वाला रक्त है। माहवारी को लेकर बहुत सारी कुप्रथाएं हैं। उस दौरान महिलाओं पर कई तरह की पाबन्दियां लगाई जाती हैं।जिसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। इसकी जड़ें कहीं ना कहीं पितृसत्ता से जुड़ी हैं। पितृसत्ता महिलाओं के यौनिकता को नियंत्रित करना चाहती है। अपने नित्य कर्म के लिए भी खेतों या जंगलों में जाना पढ़ता है। घर के शौचालय और गुसलखाने का भी प्रयोग नहीं कर सकते।
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बीए प्रथम वर्ष की छात्रा भारती कहती हैं, 'जिस तरह से कालेज में छात्राओं का अंडरगारमेंट उतरवा के माहवारी को चैक किया गया हम उसका विरोध करते हैं। यह एक घृणित कृत है जो किसी भी महिला के साथ किसी भी समाज में नहीं होना चाहिए। अगर पहाड़ में माहवारी की बात करें तो यहां आज भी महिलाओं की बहुत बुरी स्थिति है। स्कूलों में भी जब माहवारी वाला चैप्टर आता है टीचर उसे पढ़ाना जरूरी नहीं समझते। गांव तो छोड़ो शहरों के स्कूलों में भी इस पर बात नहीं की जाती। अगर स्कूल में अच्छे से पढ़ाया जाए तो कुछ जागरूकता तो आएगी।
न्यूयॉर्क की लेखिका जर्मेन ग्रीयर ने अपनी पुस्तक ‘बधिया स्त्री’ में लिखा है शरीर के प्राकृतिक प्रक्रमों में मासिक धर्म अनूठा है क्योंकि इसमें रक्त की हानि होती है। ऐसा मान लिया जाता है प्रकृति योजना की चरम उपलब्धि है और इसका कोई प्रक्रम अपव्ययी नहीं है, न ही किसी प्रक्रम को उलटे जाने की जरूरत है। खासकर जब उससे स्त्रियों को असुविधा होती हो और इसलिए यह माना जाता है कि मासिक धर्म से किसी किस्म की असली पीड़ा के जुड़े होने की तो संभावना नहीं है। असल में हर वह लड़की जो एक ऐसे अंग से रक्तस्राव होते पाती है जिसके अस्तित्व का पता उसे तभी चल पाया जब वह उसके लिए असुविधाजनक होने लगा, अगर यह मानने से इनकार करती हैं कि प्रकृति योजना का अद्भुत नमूना है और जो हो रहा है वह ठीक है, सही सोचती है।
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डॉक्टर मानते हैं कि ज्यादातर महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान असुविधा होती है लेकिन वह इस पर सहमत नहीं हो पाते की कितनी प्रतिशत महिलाओं को असली पीड़ा होती है। इस बात का कोई महत्व नहीं की गर्भाशय के संकुचन किसी मायने में पीड़ाकारक है या किसी मनोचिकित्सक से उसमें आराम आ सकता है। कोई स्त्री अपने लिए मासिक धर्म खुशी-खुशी नहीं चुनती। ऐसी असुविधा को नापसंद क्यों न करें जिससे पहले, बाद में और जिसके दौरान भी तनाव बना रहता है। अप्रियता का भाव, गन्ध, दाग-धब्बे जो रजोनिवृत्ति तक उसके पाचवें से लेकिन सातवें हिस्से तक को चाट जाती है जो उसे साल में तेरह बार उर्वरा बना देती है जबकि जीवन में दो बार ही गर्भ वहन करना काफी है।
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दीपा बताती हैं कि मैने भी गांव में रहते हुए पीरियड्स के दौरान बहुत समस्याओं का सामना किया है। उस समय एक अलग से कमरे में रहने को कहा जाता था। अलग खाना दिया जाता है। ओढ़ने-बिछाने के लिए एक पतला सा चादर या कंबल उसी में रहना जिसके चलते स्वास्थ्य भी अक्सर खराब रहता था लेकिन अब हम नई पीड़ी को इस तरह नहीं देखना चाहते। उसके साइंटीफिक कारण को देखना चाहिए। पुरानी धारणाओं और मान्यताओं को बदलना चाहिए।