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संस्कृति

इसमें हमारी भी मौन सहमति है

Prema Negi
5 Oct 2019 9:50 AM GMT
इसमें हमारी भी मौन सहमति है
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file photo

मज़दूरों संघर्षों से जुड़े युवा कवि खालिद ए खान की 5 कवितायें

आज़ादी की बात

खूँ में लिपटी पाज़ेब को

मैंने झेलम के पानी से धोया

चिनारों के जख्मो दिया बोसा

गंधक से महकते

बदहवास परिंदों को डाल दाना

जली हुई गुड़ियों को

बहुत देर तक सीने से लगाया

भगदड़ में छूट गई चप्पलों को

एक जगह इकट्ठा किया

मैंने बच्चों के खेल के मैदानों से

गोलियों के खोखे चुने

बर्फ निशान छोड़ते सरकारी

बूटों को वहाँ से मिटाया

कब्रिस्तान की सबसे छोटी कब्र पर

बैठ कर घण्टों की बातें

एक पूरी रात

जमीन से लिपट कर रोया

नहीं मैंने नहीं की

कोई आज़ादी की बात

फिर क्यों ले जा रहे हो मुझे

जमीं पर खींचते हुए

कत्लगाह की तरफ़ तुम....

अपना डर छुपाये

उसकी कविता

अपने समय की सबसे

बकवास कविता थी

की आलोचकों ने उस पर

एक नजर डालना भी

जरूरी नहीं समझा

जो की एक रद्दी के कागज़ पर लिखी गई

जिसे बड़ी बेतरकीब ढंग से लिखा था

की जगह—जगह खून दाग़ पड़ गए थे

उसमें गलती से छूट गए

मैले हाथों के फिंगरप्रिंट

बताते हैं कोई जिन्दा नहीं बचा

उसे पढ़ने के बाद में

सबके पास थे

अपने अपने कारण

उससे नजर चुराने के

क्योंकि लोग इस समय

समय से नजरें बचाकर

निकलते थे घर से बाहर

काँपते हुए कदमों से

अपना डर छुपाये

एक दूसरे से

हाँ मैं डरने लगा हूँ

हाँ मैं डरने लगा हूँ

मेरे अपने हाथ

खुद ही कहीं

मेरा गला न घोट दें

मेरे अपने हाथ

मेरे खिलाफ होते जा रहे हैं

हर रोज धीरे धीरे

हाँ मैं डरने लगा हूँ

अपने दिमाग से

कहीं वह कर न रहा हो

मेरे ही खिलाफ कोई साज़िश

हाँ मैं डरने लगा हूँ

अपने सबसे प्यारे दोस्त के साथ

चलते हुए भी

जाने वो कौन सा पल हो

जब उसके अंदर एक भीड़

कर ले कब्ज़ा

हाँ मैं डरने लगा हूँ

स्कूल जाते बच्चे से

नौकरी जाते आदमी से

मज़दूरी के इंतजार में खड़े मज़दूर से

सुबह कूड़ा लेने वाले लड़के से

सब्ज़ी बेचने वाले से

उस बुढ़िया से भी जो हर रोज

सुबह देखकर सिर्फ मुस्कुराती है

हाँ मैं डरने लगा हूँ

उस गाय से जो

बस अभी मेरे पास से गुज़री है

जैसे कि वो कोई नरभक्षी हो

हाँ मैं डरने लगा हूँ

किसी से भी आंख मिलाने से

जैसे कि हर आंख में

एक आततायी की भीड़

हो हमलावर

हाँ मैं डरने लगा हूँ

सपने देखने से

क्योंकि मैं देखता हूँ

टहनी पर झूलते हुए

अपने ही माँस के लोथड़े को

क्योंकि मैं देखता हूँ

सड़कों पर जमे अपने ही लहू को

क्योंकि मैं देखता हूँ

एक भीड़ जो लगातार पीटे

जा रही है मुझे

क्योंकि मैं देखता हूँ

एक स्त्री की अधजली लाश को

जिसका चेहरा

अब पहचाना नहीं जाता मुझसे

क्योंकि मैं देखता हूँ

अपने घर के जले हुए दरवाजे पर खड़ी

तमाशबीन भीड़ को

जो कुछ शर्मिंदा-सी

कुछ बर्बर-सी है

हाँ मैं डरने लगा हूँ

ट्रेन सड़क बस से

कहीं राह चलते कोई पूछ न बैठे

मेरा नाम

मेरा धर्म

मेरी जाति

मैं कुछ भी पूछे जाने से डरता हूँ

आज हर आदमी

एक दूसरे को उसके डर से पहचानता है

यही डर है हमारा

जो आदमी को बदल देता है

एक हिंसक आदमखोर भीड़ में जिसका

न कोई चेहरा है

न कोई नाम है

न कोई धर्म है

न कोई ईमान है

एक डर है

जो खड़ा है

दूसरे डर के खिलाफ

भीड़तंत्र में बदलने को आतुर

यह डर है

जो डराता है एक को दूसरे से

यह डर है

जिसे हम जानते नहीं

जिसे हम पहचानते नहीं

यह डर है

जिसे सत्ता नियंत्रित कर रही है

अपने पालतू सूचनातंत्र से

हर पल हर दिन

क्योंकि हम नहीं जानते

इस डरी हुई सत्ता के डर को

हमें इस डर की शिनाख्त करनी होगी

हमें अपने अपने डर से

गढ़ने होंगे हथियार

सत्ता के खिलाफ

मानवता के पक्ष में

आज आँखों में आँखें डाल कर

करना होगा इस डर से सामना

नहीं तो यह डर निगल लेगा

एक पूरा का पूरा देश...

सब जगह शांति है

हक़ीम में कहा

मंत्रियों से

सब जगह शांति है

मंत्रियों ने कहा

जनरलों से

सब जगह शांति है

जनरलों ने कहा

पत्रकारों से

सब जगह शांति है

पत्रकारों ने कहा

कलाकारों से

सब जगह शांति है

कलाकारों ने कहा

जनता से

सब जगह शांति है

पर किसी ने

किसी से नहीं कहा

ये हत्या के दम पर आयी है

इसमें हमारी भी मौन सहमति है

मैं सोचता हूँ

और सोचने भर डर जाता हूँ

लगता हूँ निहारने

अगल से बगल, दायें से बायें

एक खतरा जो दिखता नहीं

पर होता है मेरे इर्द-गिर्द

एक महीन जाल सा बुना

लफ्ज़ अटके हुए से मालूम

होते हैं मेरे हलक में

जब अपनी आवाज को कुचल देता हूँ

मैं अपनी ही बेरहम चुप्पी से

तो खुद को पाता हूँ

कातिलों के बीच

एक मौन सहमति के साथ

असहमति की हर आवाज

को कुचलता लश्कर चलता जाता है

सत्ता की मौन सहमति पर

तो मैं साथ साथ चलता जाता हूँ

अपने भारी कदमों से

जाने ऐसे कब तक

सुरक्षित रहेंगे आप

अपनी महफूज़ चारदीवारी में

सहमे, खामोश डरे हुए

जाने कौन से दरवाजे पर

हो हमारी अगली दस्तक

मरने से पहले

आप नहीं जान पाएंगे

नहीं नहीं ऐसी कोई

जगह अब बची

जहाँ चिल्ला चिल्ला कर

मैं कह सकूं

हाँ मेरा भी नाम दर्ज़ करो

अख़लाक़, पहलू खान, जुनैद

पानसरे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश के

हत्यारों की फेहरिस्त में

इसमें हमारी भी मौन

सहमति है...

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