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संस्कृति

मैंने आसमान को सलीब धरती को कब्र बनते नहीं देखा

Janjwar Team
20 May 2018 1:05 PM GMT
मैंने आसमान को सलीब धरती को कब्र बनते नहीं देखा
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युवा कवि सौम्य मालवीय की कविता 'फ़िलिस्तीनी बच्चों के नाम'

बचपन के कुछ अपने ही दर्द होते हैं
खास इसी उम्र से जुड़े हुए
सीधे, सरल, मारक, तीखे,
सच्चे, चमकदार, ख़ालिस दर्द
ना कोई चिकित्सीय पेंचीदगी,
ना कोई जटिलता
कारण भी ज्ञात होता है और निवारण भी

शरीर के किसी कोने से दर्द उठता है
और कुछ देर में पूरा बदन दर्द का वाद्य यंत्र होता है
पसीने में नहाया, थरथराता हुआ
दो भागों में बंट जाता है शरीर
एक जहाँ तक दर्द की तरंगें पहुंचती हैं
और दूसरा उसके परे
हम दर्द से बोझिल, गर्म और कांपते हिस्से में होते हैं
हम दर्द रहित, हल्के और प्रफुल्लित हिस्से में होना चाहते हैं
ये बचपन के तय, अपेक्षित, स्मरणीय और अनिवार्य दर्द होते हैं
इनसे बचना संभव नहीं
इनके बिना बचपन नहीं

उम्र बढ़ने के साथ गहराते हैं रोग भी
कमज़ोर पड़ता है बदन भी
पर वो शरीर तोड़ने वाली बात नहीं होती
और हर दर्द अंततः दिमागी होता है
हम दर्द की नहीं दर्द के वाहमे की दवा लेते हैं
और कभी ठीक नहीं होते
बचपन के उन दर्दों में सबसे भयावह होता है
कान का दर्द

दिन भर
शोर-शराबा
सही-ग़लत
अच्छा-बुरा
गीत-संगीत
चुटकुले, ठहाके
उमेठियां, तमाचे
और जाने क्या-क्या सहने, सुनने, समझने के बाद
एक उधम भरे चमकीले शरारती दिन के उपरांत
शाम के उतरने के साथ ही
कोई एक कान अपनी ही धुन में चिलकने लगता है
कनपटी गर्म होने लगती है
त्वचा नर्म होने लगती है
शरीर का गुरुत्व केंद्र कान वाले हिस्से में खिसक जाता है
दांये या बांये
हम पहले दो हिस्सों में बंटते हैं

और फिर कुछ देर में समूचे एक कान हो जाते हैं
लाल दर्द से वाइब्रेट करता हुआ कान
हमें अपने कान से कोफ़्त होती है
दूसरा कान प्यारा, मासूम, दोस्त सा जान पड़ता है
काश वही दोनों ओर होता!
मन होता है अपने बाग़ी कान को
काट के फ़ेंक देने का!

मुझे याद है
दर्द बढ़ने के साथ ही मैं अपना बिस्तर छोड़ कर
अम्मा-पापा के बीच जाकर लेट जाता था
वे सौम्यता से, निश्चिंतता से,
बिना हड़बड़ाए,
मेरे दर्द को पहचानते हुए
मेरी तकलीफ़ को मानते हुए
मुझे आश्वस्त करते थे, दुलारते थे, पुचकारते थे
मेरे दर्द को दुत्कारते थे
एक अचूक पेनकिलर
कुछ स्नेहिल थपकियाँ
और दर्द जैसे आया था वैसे ही चला जाता था

मैं हल्की हरारत में, पसीने में तरबतर
नींद के आग़ोश में समा जाता था
रात भर दर्द के बादल के बरसने के बाद
फूल सी हल्की होती थी सुबह
फिर एक अच्छा क्लीनिक
एक मिलनसार डॉक्टर
हरे-नीले-पीले टैबलेट्स
और अगली बार खूंट जमने तक
या तेज़ ज़ुकाम होने तक
कान का दर्द मुल्तवी हो जाता था

मेरे बचपन की सबसे बड़ी तक़लीफ़
यही कान का दर्द रहा
इन दर्द से भरी रातों के अलावा
बचपन में मैंने अपनी नींद कभी नहीं खोयी
जानी नहीं इससे बड़ी यातना कभी

मेरा बचपन किसी जंग के साये में नहीं बीता
किसी प्राकृतिक आपदा में मैं कभी फँसा नहीं
भूख, गरीबी, लाचारी, बेबसी इन सबसे मैं अनजान था
शायद इसीलिए महज़ कान के दर्द से परेशान था!

मैं गाज़ा में रह रहे
बच्चों के दर्द को क्या समझूँ
मैंने जलते हुए घर नहीं देखे
मैंने मलबे के नीचे दफन होते अपने परिजनों को नहीं देखा
टैंक, मिसाइल, रॉकेट ये मैंने टीवी पर देखे हैं
अपने सामने नहीं
सैनिकों को मार्च करते मैंने नहीं देखा
मैं धुंए के ग़ुबार में कभी ग़ुम नहीं हुआ
मैं डर के बुखार में कभी तपा नहीं
मैंने अपने स्कूल को गिरते
घर को उजड़ते नहीं देखा
मैंने बमवर्षकों से भरा आसमान नहीं देखा
मैंने आसमान को सलीब
धरती को कब्र बनते नहीं देखा

मैंने बहता हुआ ख़ून बिखरे हुए मांस के लोथड़े नहीं देखे
मैं बेवतन पैदा नहीं हुआ
मैं अर्स-ऐ-बेज़मीन पर जन्मा नहीं
मेरे गालों पर हमेशा बोसों की लज़्ज़त होती थी
सर पर शफ़क़त भरी छाया होती थी
मैं उन तकलीफों को कभी महसूस नहीं कर सकता
बयान नहीं कर सकता
मुझे उन मुसीबतों का इल्म नहीं
मुझ पर ऐसी आफतें कभी टूटी नहीं
मैं उन ज़ख्मों से वाकिफ नहीं
मैंने कान के दर्द से ज़्यादा कोई दर्द कभी जाना नहीं!
मुझे कभी-कभी अपने सुखद,आरामदायक,और महफ़ूज़ बचपन से घिन आती है!

हालाँकि, मैं कान के दर्द से भली-भाँति परिचित हूँ
मैं उसकी आहट मात्र से सिहर उठता हूँ
वह लाइलाज हो जायेगा इस कल्पना मात्र से
मेरी रीढ़ ठंडी हो जाती है
और जब मैं ये सोचता हूँ
कि हर रात फिलिस्तीन की धरती पर
दर्दों की, ग़मों की,
बेचैन आमद-ओ-रफ्त के बीच एक दर्द कान का भी दौड़ता होगा
तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं!
बच्चे छोटी और संकरी झोपड़ियों में
दर्द से हलाकान बिलखते होंगे
सड़े हुए लाल कानों से मवाद रिसता होगा
सुन्न पड़ता होगा मस्तिष्क
बर्गे गुल से होंठ नीले पड़ते होंगे

जिस्म तेज़ बुखार में तपते होंगे
सारे जहाँ का दर्द
पूरी बिंदु समग्रता के साथ
एक कान में उतरता होगा
पर उनके माता-पिता के चेहरों पर
वह निश्चलता, निश्चिंतता, सौम्यता नहीं होती होगी
जो मेरे माता-पिता के चेहरों पर होती थी
मुझे आश्वस्त करती
मेरी तकलीफ हरती
मुझमें सुरक्षाबोध जगाती
उनके चेहरों पर एक असमर्थता, एक शून्य, एक शिकस्त
होती होगी
कोरी आँखों में उपेक्षा नाचती होगी
उनसे यह कहती हुई कि
इस दर्द को इतनी तवज्जो मत दो
इसे बिसराओ
या लाओ कान ही काट कर फेंक दें!
न कोई डॉक्टर
न कोई क्लीनिक
बेरहम रात के बाद बेशरम सुबह
डॉक्टरी ज़द से बाहर जाता दर्द
बम की गर्जना में ग़ुम होती चीखें....

खामोश होती चीखें …
फिलिस्तीन एक बुखार से कांपता जिस्म
गाज़ा एक दर्द से चिलकता कान
बच्चों से कहते उनके माँ-बाप
कान के दर्द को भूलो
इन बचकानी शिकायतों से बाज़ आओ
जब्र ने तुम्हारे लिए ज़्यादा नए और नीले
दर्द ईजाद कर लिए हैं!

खैर छोड़िये...

कहाँ आ गए
मैं तो कह रहा था
कि बचपन के कुछ अपने ही दर्द होते हैं
ख़ास उसी उम्र से जुड़े हुए
सीधे, सरल, मारक, तीखे, सच्चे, चमकदार,
ख़ालिस दर्द
उन्हें तो जानते ही होंगे न
आप भी!

Janjwar Team

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