जलवायु परिवर्तन के कारण कमाई में हो जायेगी 20 फीसदी तक की कमी : शोध में हुआ खुलासा
Climate Emergency से भारत समेत तमाम गरीब देशों पर बढ़ रहा है कर्ज का बोझ (photo : janjwar)
Climate chahnge effect : वायुमंडल में पहले से मौजूद ग्रीनहाउस गैसों और सामाजिक-आर्थिक जड़ता के चलते आने वाले 50 सालों में वैश्विक अर्थव्यवस्था औसतन 19% आय में कमी की ओर अग्रसर है. इस कमी का असर लगभग सभी देशों में देखने को मिलेगा. भारत की बात करें, तो यह आंकड़ा 22% हो जाता है, जो कि वैश्विक औसत से 3% अधिक है.
दरअसल "नेचर" पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन के अनुसार अगर कार्बन एमिशन में आज से ही भारी कटौती कर ली जाए, तब भी जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में 19 प्रतिशत की आय में कमी आने का अनुमान है. यह नुक़सान उन उपायों की लागत से छह गुना अधिक है, जो तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए ज़रूरी हैं.
जर्मनी के पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पीआईके) के वैज्ञानिकों ने पिछले 40 वर्षों के दौरान दुनिया भर के 1600 से अधिक क्षेत्रों के आंकड़ों का अध्ययन कर जलवायु परिवर्तन के आर्थिक विकास पर भविष्य के प्रभावों का आकलन किया है.
अध्ययन के मुख्य लेखक मैक्सिमिलियन कोट्ज़ का कहना है कि, "अधिकांश क्षेत्रों, जिनमें उत्तरी अमेरिका और यूरोप भी शामिल हैं, में आय में भारी कमी आने का अनुमान है. दक्षिण एशिया और अफ्रीका सबसे अधिक प्रभावित होंगे. इसका कारण यह है कि जलवायु परिवर्तन कृषि उत्पादन, श्रम उत्पादकता या बुनियादी ढांचे जैसे आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण पहलुओं को प्रभावित करेगा."
वैश्विक वार्षिक नुक़सान का अनुमान 2050 तक 38 खरब डॉलर है, जिसकी संभावित सीमा 19-59 खरब डॉलर के बीच मानी जा रही है. यह नुक़सान मुख्य रूप से बढ़ते तापमान के कारण होता है, लेकिन बारिश में बदलाव और तापमान में उतार-चढ़ाव से भी जुड़ा है. अगर तूफान या जंगल की आग जैसी अन्य मौसम संबंधी अतिशयोक्तियों को भी इसमें शामिल कर लिया जाए, तो यह नुक़सान और भी बढ़ सकता है.
अमेरिका और यूरोपीय संघ को भी भारी आर्थिक जोखिम
अध्ययन का नेतृत्व करने वाली पीआईके वैज्ञानिक लियोनी वेंज का कहना है कि, "हमारा विश्लेषण बताता है कि जलवायु परिवर्तन अगले 25 वर्षों में दुनियाभर के लगभग सभी देशों में भारी आर्थिक नुक़सान करेगा, इसमें जर्मनी, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देश भी शामिल हैं." ये निकट भविष्य में होने वाले नुक़सान हमारे अतीत में किए गए एमिशन का परिणाम हैं. अगर हम इनमें से कुछ को भी कम करना चाहते हैं, तो हमें अनुकूलन के लिए अधिक प्रयासों की आवश्यकता होगी. साथ ही, हमें तुरंत और भारी मात्रा में अपने एमिशन में कटौती करनी होगी, नहीं तो इस सदी के उत्तरार्ध में आर्थिक नुक़सान और भी बढ़ जाएगा, जो वैश्विक औसत पर 2100 तक 60% तक हो सकता है. इससे स्पष्ट रूप से पता चलता है कि जलवायु की रक्षा करना, न करने से कहीं अधिक सस्ता है, और इसमें हमने जीवन या जैव विविधता के हानि जैसे गैर-आर्थिक प्रभावों को भी शामिल नहीं किया है.
जो कम ज़िम्मेदार हैं, वो ज़्यादा भुगतेंगे
अध्ययन में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों में असमानता पर भी प्रकाश डाला गया है. अध्ययन में पाया गया है कि लगभग हर जगह नुक़सान हो रहा है, लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के देश सबसे अधिक प्रभावित होंगे, क्योंकि वे पहले से ही गर्म हैं. वहां तापमान में और वृद्धि सबसे अधिक हानिकारक होगी.
जलवायु परिवर्तन के लिए कम ज़िम्मेदार देशों को उच्च आय वाले देशों की तुलना में आय में 60% अधिक और अधिक एमिशन करने वाले देशों की तुलना में 40% अधिक आय में कमी का सामना करना पड़ेगा. उनके पास जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए संसाधन भी कम हैं. यह निर्णय लेना हमारे ऊपर है: अपनी सुरक्षा के लिए और धन बचाने के लिए हमें रिन्यूबल एनेर्जी प्रणाली की ओर संरचनात्मक बदलाव की ज़रूरत है. अगर हम मौजूदा रास्ते पर ही चलते रहे, तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे. पृथ्वी के तापमान को स्थिर करने के लिए हमें तेल, गैस और कोयले का जलना बंद करना होगा."