(योगी से केवल पत्रकार ही नहीं, विधायक और मंत्री भी नाराज हैं।)
वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह का विश्लेषण
जनज्वार। कानपुर में दुर्दांत विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद से ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कुर्सी छीने जाने की खबरें हवाओं में तैरने लगी थीं। बीते एक साल में मीडिया के एक वर्ग ने योगी की कुर्सी जितनी बार छीनी है, अगर उन कुर्सियों को इकट्ठा कर लिया जाये तो उस पर सौ लोगों की बारात आराम से बैठ सकती है! बीते कुछ दिन पहले एक वरिष्ठ पत्रकार के ट्वीट, जिसे संघ-भाजपा के बीच की हायरारर्की की जानकारी तक नहीं है, ने एक आभासी मीटिंग कराकर फिर से योगी की कुर्सी छीन ली।
इस ट्वीट के बाद योगी से छीनी गई कुर्सी पर कुछ मीडियावालों ने डिप्टी सीएम केशव मौर्या को बैठाने की कोशिश की, जब केशव उस कुर्सी पर नहीं बैठ पाये तो इन लोगों ने भाजपा प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह की कुर्सी छीनकर उस फिर से केशव को बैठाने की कोशिश की। यह बात एके शर्मा के लोगों को बुरी लगी तो उन्होंने सीएम योगी की छीन गई कुर्सी पर शर्माजी को बैठा दिया, क्योंकि मोदीजी ने बनारस मॉडल की तारीफ की थी। शर्मा जी को इस कुर्सी पर बैठाने में तीस-चालीस लाख लोगों की 'राय' एक हो गई।
योगी उत्तर प्रदेश में कोरोना से उपजी परेशानी के समाधान के लिये मंडलों-जिलों का दौरा करते रहे और मीडिया उनकी कुर्सी छीनती रही। जब संघ सरकार्यवाह दत्रातेय होसबोले लखनऊ पहुंचे तो मीडिया के एक धड़े ने फिर योगी की कुर्सी छीनकर छुपा दिया। जबकि होसबोले का कार्यक्षेत्र लखनऊ है, और वो रूटीन दौरे पर आये थे। इस छीनी गई कुर्सी को तब झाड़ा पोछा जाने लगा, जब भाजपा के संगठन महामंत्री बीएल संतोष भी लखनऊ पहुंचे और मीटिंग करनी शुरू की। इस बार इस झाड़ी-पोछी गई कुर्सी पर कलराज मिश्रा बैठा दिये गये।
मीडिया का यह वर्ग खुश था कि उनकी छीनी गई कुर्सी पर अब उनके लोग बैठेंगे, लेकिन इन लोगों को झटका तब लगा जब बीएल संतोष दिल्ली पहुंचकर योगी की तारीफ की। इस तारीफ के बाद फिलहाल मीडिया के इस वर्ग ने योगी की कुर्सी उन्हें मजबूरी में वापस कर दी है, लेकिन माना जा रहा है कि चुनाव से पहले यह कुर्सी फिर कई बार छीनी जायेगी। पर इस छीनाझपटी में सबसे चिंता की बात यह रही कि यह कुर्सी किसी ने भी डा. दिनेश शर्मा को नहीं दी, उनके लोग इससे दुखी है।
दरअसल, उत्तर प्रदेश की राजनीति और सियासी गलियारों में चल रही साजिशों के बारे में जानना हो तो आपको पुराने मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में पीछे जाना होगा। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से पहले बड़े पत्रकारों की पहुंच सीएमओ और सीएम तक आसान रहती थी। पुराने मुख्यमंत्री भी इन तथाकथित बड़े पत्रकारों को ओबलाइज करते हुए किसी को फ्लैट दिला देते थे, किसी के चहेते को खनन में हिस्सेदारी दिला दिया करते थे। किसी को अन्य तरीके से लाभांवित कर दिया करते थे।
यूपी तथा दिल्ली के लाभार्थी पत्रकारों की लखनऊ में लंबी लिस्ट है। कई लाभार्थी पत्रकार आज भी पुराने मुख्यमंत्रियों से सब्सिडी पर जमीन पाने और मकान बनाने के बाद सरकारी बंगलों में जमे हुए हैं। कुछ लोग सीएम को उनके जन्मदिन पर केक तक खिला देते थे, लेकिन योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने के बाद इस परिपाटी पर रोक लग गई। उनसे लाभ मिलना तो दूर वरिष्ठ पत्रकार उनके जन्मदिन पर केक खिलाने तक को तरस गये। सरकार और वरिष्ठ पत्रकारों के बीच पुरानी सरकारों में लेन-देन की जो म्यूचूअल अंडरस्टैंडिंग होती थी, योगी ने उसे ही खत्म कर दिया।
योगी आदित्यनाथ सियासी गलियारे में किसी के लिये लाभदायक नहीं हैं। वह उत्तर प्रदेश के बीमार लोगों के इलाज पर तो अरबों खर्च कर सकते हैं, लेकिन किसी पत्रकार को खनन का टेंडर दिलाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। और यही बुराई योगी की कुर्सी हर बार छीन लिये जाने का सबसे बड़ा कारण है। योगी कोई बहुत पॉलिटिकल नेता नहीं हैं, इसलिये वह चासनी में लपेट कर या बहुत घुमा फिराकर बात कहने की बजाय बिना लाग लपेट सीधा कह देते हैं। यह उन्हें तथा उनकी छवि को धक्का पहुंचाता है।
योगी से केवल पत्रकार ही नहीं, विधायक और मंत्री भी नाराज हैं। विधायक इसलिये नाराज नहीं हैं कि उन्होंने जनता की सुविधा के लिये सड़क बनाने को कही थी और वह नहीं बनी, बल्कि इसलिये नाराज हैं कि अपनी सरकार होने के बाद भी वह अपनी पसंद का डीएम, एसपी, एसडीएम, सीडीओ, तहसीदार या थानेदार पोस्ट नहीं करा पाये, जबकि पुरानी सरकारों में विधायक इन कामों के अलावा टेंडर और ठेके तक मैनेज करा देते थे। इस सरकार में कमीशन लेने तक में दिक्कत उठानी पड़ी।
किसी मंत्री के पास चले जाइये, वो जनता का जेन्यूइन काम करने की बजाय भी सारा दोष योगी पर थोपकर गंगा नहा लेता है। अपने भाई को दलिद्दर सवर्ण कोटा (ईडब्ल्यूएस) से असिस्टेंट प्रोफेसर बनवा देने वाले सतीश द्विवेदी भी बेसिक शिक्षा विभाग में काम लेकर जाने वालों को बताया करते थे कि योगी ने हाथ-पैर बांध दिये हैं, एक भी तबादला संभव नहीं है, लेकिन खुद की और पत्नी का तबादला संभव कर लिया। भाई को सुदामा कोटा से असिस्टेंट प्रोफेसर बनवाने में योगी ने हाथ-पैर खुला छोड़ दिया। करोड़ों की जमीन लाखों में लिखवाने में भी योगी आड़े नहीं आये।
दरअसल, योगी की कड़ाई की आड़ लेकर उनके मंत्रियों और विधायकों ने अपनी आर्थिक स्थिति में तो सुधार किया, लेकिन जब जनता की सेवा करने या उनकी समस्या का समाधान करने की बात आई तो सारा ठीकरा योगी पर फोड़ दिया और ऐसा माहौल तैयार किया कि योगी कुछ करने नहीं दे रहे हैं।
राजनाथ सिंह की शह पर अपर मुख्य सचिव चिकित्सा को पत्र लिखने वाले ब्रजेश पाठक ने दवाइयां बांटनी शुरू की तो योगी ने क्यों नहीं उनके हाथ रोक लिये? क्यों नहीं मना कर दिया कि जनता की सेवा नहीं करनी है? दूसरे मंत्री और विधायक जनता की सेवा करते तो क्या योगी रोक देते?
पूरे कोरोना काल योगी को छोड़ एक भी मंत्री या विधायक जनता की समस्या के समाधान को लेकर अस्पतालों की तरफ नहीं निकला। सारा ठीकरा फोड़ दिया गया कि अधिकारी नहीं सुन रहे हैं, लेकिन जब इन्हीं विधायकों के इलाके में विकास का काम होता है तो अधिकारी झट से सुन लेते हैं और इनके चहेतों को टेंडर देते हैं।
इन लोगों का कमीशन भी मिल जाता है, लेकिन जब जनता की सुविधा की बात आती है तो अधिकारी इनकी कतई नहीं सुनते हैं। एक उदाहरण है कि चंदौली सांसद और केंद्रीय मंत्री कोरोना काल में अपने संसदीय क्षेत्र में झांकने तक नहीं गये, संभव है कि योगी ने उनके हाथ-पैर बांध रखे हों!
योगी की कुर्सी छीनने वाले शायद इस बात से अंजान हैं कि योगी आदित्यनाथ भाजपा में भीड़ जुटाने वाले टॉप तीन के नेताओं में शामिल हैं। यूपी से बाहर भी मोदी-शाह के बाद योगी की ही सबसे ज्यादा मांग रहती है। यूपी में कोई भी दूसरा ऐसा चेहरा नहीं है, जो राज्य से बाहर भीड़ जुटा पाने में सक्षम हो।
योगी हिंदुत्व के चमकते चेहरे हैं, जो संघ और भाजपा का मूल एजेंडा है। संघ और भाजपा अपने ऐसे लीडर को हटाकर अपना नुकसान करेगी, यह सियासत की कम जानकारी रखने वाला भी नहीं सोच सकता, लेकिन मीडिया का एक धड़ा ऐसा रोज सोचता है। वह फिर योगी से कुर्सी छीनेगा इतना तो पक्का है!