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राजनीति

इस बार यूपी की राजनीति में अहम सवाल - चुनावी सीजन में हाशिए पर क्यों हैं मायावती?

Janjwar Desk
25 Dec 2021 9:59 AM GMT
इस बार यूपी की राजनीति में अहम सवाल - चुनावी सीजन में हाशिए पर क्यों हैं मायावती?
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गठबंधन की राजनीति के दौर में मायावती यूपी में आयरन लेडी के रूप में UP Election 2022 : लोकप्रिय हुईं। यूपी की चार बार सीएम बनीं, लेकिन 2012 चुनाव के बाद पतन का जो दौर शुरू हुआ वो आज भी जारी है। वह, अब राजनीति में हाशिए पर दिखाई देने लगी हैं। वोट शेयर के मामले में वो आज भी भाजपा के बाद यूपी में दूसरे नंबर पर हैं।

राजनीति में मायावती के उतार-चढ़ाव पर धीरेंद्र मिश्र की रिपोर्ट

नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव ( UP Election 2022 ) नजदीक होने की वजह से सियासी उठापठक भी जोर पकड़ता जा रहा है, लेकिन पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से दलितों की राजनीति कर केंद्र में रहने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ( BSP Supremo Mayawati ) इस बार हाशिए पर नजर आ रही हैं। फिलहाल, प्रदेश का सियासी माहौल बीजेपी बनाम एसपी ( BJP VS SP ) के बीच दिख रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर दलित राजनीति को एक नया मुकाम देने वाली बीएसपी ( BSP ) अपने ही गढ़ यूपी में मुकाबले से बाहर दिख रही है। बसपा का चुनाव दर चुनाव पार्टी के प्रदर्शन में गिरावट जारी है।

आइए, हम आपको बताते हैं पिछले 3 दशकों में 4 बार यूपी की मुख्यमंत्री बनी मायावती की बीएसपी इस बार के चुनाव में है कहां है और मुख्य मुकाबले से बाहर क्यों नजर आ रही है।


Why Mayawati marginalized in election season?


मायावती की एकला चलो की नीति

उत्तर प्रदेश ( Uttar Pradesh ) में एक-आध अवसरों को छोड़कर हर बार बीएसपी एकला चलो रे की नीति पर चलती रही है। 1990 के दशक में गेस्ट हाउस कांड के बाद समाजवादी पार्टी से गठबंधन टूटने का अनुभव इतना कड़वा रहा कि मायावती ने चुनाव पूर्व गठबंधनों से एक तरह से तौबा कर लिया। बीजेपी के साथ चुनाव बाद गठबंधन कर भले ही मायावती ने सरकार बनाई हो लेकिन कभी चुनाव से पहले गठबंधन नहीं किया। 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने समाजवादी पार्टी से बहुचर्चित गठबंधन किया लेकिन प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा और जल्द ही गठबंधन टूट भी गया। इसलिए उन्होंने प्रियंका गांधी से गठबंधन का न्यौता मिलने के बाद भी यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में अकेले चुनाव का फैसला किया है। चौंकाने वाली बात यह है कि इस बार बीएसपी अपना चुनाव घोषणा पत्र भी जारी नहीं करेगी।

यूपी में बसपा का अब तक का प्रदर्शन





1984 में कांशी राम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी। उन्होंने अपने जीते जी मायावती को सियासी वारिस बनाया। 1993 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी की पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर धमक दिखी जब वह यूपी विधानसभा चुनाव में 67 सीटों पर जीत हासिल की। यूपी में करीब 21 प्रतिशत दलित वोटर हैं। इसके अलावा 20 प्रतिशत के करीब मुस्लिम मतदाता हैं। बीएसपी की ताकत दलित और मुस्लिम मतदाता रहे हैं। 2 साल बाद ही 1995 में मायावती पहली बार न केवल यूपी की बल्कि देश पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनींं वह 4 महीने तक ही सत्ता में रहीं। 1997 में वह दूसरी बार सीएम बनीं और इस बार भी महज 6 महीने कुर्सी पर रह पाईं। 2002 में मायावती तीसरी बार मुख्यमंत्री बनीं और इस बार वह 15 महीने तक मुख्यमंत्री रहीं।

दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण के दम पर ऐतिहासिक प्रदर्शन

साल 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी का प्रदर्शन ऐतिहासिक रहा। 403 में से 206 सीटों पर जीत हासिल कर पहली बार बीएसपी पूर्व बहुमत के साथ सत्ता में आई। बसपा को 30.43 प्रतिशत वोट मिला। ऐतिहासिक सफलता का श्रेय बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग को दिया जाता है। सतीश चंद्र मिश्र को आगे कर बीएसपी गैरदलित खासकर ब्राह्मणों को साधने में कामयाब रही। दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण फॉर्म्युले से बीएसपी ने यूपी में ढाई दशकों से चले आ रहे गठबंधन सरकारों के दौर को खत्म किया।

2012 से जारी है पतन का दौर

2007 में ऐतिहासिक प्रदर्शन के बाद बीएसपी का ग्राफ हमेशा गिरता गया। 2012 में बीएसपी सिर्फ 80 सीटें जीत सकी। वोट शेयर घटकर 25.95 प्रतिशत रह गया। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी खाता तक नहीं खोल पाई। 2017 विधानसभा चुनाव में पार्टी 19 सीटों पर सिमट गई और वोट शेयर गिरकर 22.24 प्रतिशत रह गया।

बीएसपी का बुरा हाल क्यों?

बतौर मुख्यमंत्री मायावती का 2007 से 2012 का कार्यकाल नकारात्मक वजहों से ज्यादा सुर्खियों में रहा। विरोधी दलों के लोग उन्हें 'दौलत की बेटी' कहने लगे। जन्मदिन और यहां तक कि चुनावी सभाओं में भी मायावती का स्वागत 'नोटों की माला' पहनाकर होने लगा। एनआरएचएम घोटाले में उनके मंत्रियों और विधायकों का नाम आने लगा। एक के बाद एक सीएमओ की हत्याएं होने लगीं। मायावती ने जो पार्क बनवाएं उनमें दलित महापुरुषों के साथ अपनी भी मूर्तियां लगवाईं। हाथियों की बड़ी-बड़ी मूर्तियां लगवाई गईं। विरोधी दलों के नेता उनकी छवि विकास के बजाय हाथियों की मूर्तियों पर पानी की तरह पैसे बहाने वाली नेता की बनाने में कामयाब रहे। 2012 में समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई। 2014 में मोदी लहर में बीएसपी उड़ गई। गैर-जाटव दलित वोट खिसककर बीजेपी के पास चला गया।

सत्ता से दूर होते ही ये लोग छोड़ गए माया का साथ

सत्ता से दूर होने के बाद मायावती के भरोसेमंद नेता एक-एक कर बीएसपी छोड़ने लगे। नसीमुद्दीन सिद्दीकी, बाबू सिंह कुशवाहा, स्वामी प्रसाद मौर्य, हरिशंकर तिवारी जैसे बीएसपी के कभी दिग्गज कहे जाने वाले नेता या तो दूसरी पार्टियों का दामन थाम लिए या फिर पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में उन्हें निकाल दिया गया। बीएसपी की दुर्गति की एक बड़ी वजह मायावती की कार्यशैली भी रही।

इसके अलावा 2017 में हुए उत्‍तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 403 में से बसपा ने 19 सीटें जीती थीं। निष्‍कासन और पार्टी छोड़ने की वजह से विधानसभा में बसपा के अब महज 5 विधायक ही बचे हैं, जिनमें से एक मुख्‍तार अंसारी जेल में हैं,​ जिनकी सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की चर्चा तेज है। जीते हुए 19 में विधायकों में से असलम राईनी, असलम अली चौधरी, मुज्तबा सिद्दिकी, हाकिल लाल बिंद, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल, वंदना सिंह, लालजी वर्मा, रामचल राजभर, रामवीर उपाध्याय, अनिल सिंह, शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली अब पार्टी का हिस्‍सा नहीं हैं। आजमगढ़ के दीदारगंज विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे सुखदेव राजभर का इसी साल 18 अक्‍टूबर को लखनऊ में निधन हो गया। इससे ज्‍यादा तो बसपा के 10 सांसद हैं। बसपा विधायकों की वर्तमान संख्‍या के लिहाज से देखें तो बसपा से ज्‍यादा विधायक अपना दल (एस) और कांग्रेस के हैं।

इन लोगों को मायावती ने पार्टी से निकाला

साल 2021 में हुए पंचायत चुनाव के बाद मायावती ने विधानमंडल दल के नेता लालजी वर्मा और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व राष्ट्रीय महासचिव राम अचल राजभर को पार्टी से निकाल दिया। ये दोनों वे नेता थे जो 2017 में भाजपा की लहर में भी अपनी सीट बचाने में सफल रहे थे। लालजी वर्मा अंबेडकरनगर के कटेहरी और राजभर अकबरपुर विधानसभा सीट से विधायक हैं। दोनों नेता बसपा के साथ कांशीराम के जमाने से थे। राजभर 1993 में पहली बार बसपा के टिकट पर विधायक बने। तब से उनकी जीत का सिलसिला जारी है। वर्मा 1986 में पहली बार एमएलसी बनाए गए। इसके बाद उन्होंने 1991, 1996, 2002, 2007 और 2017 का विधानसभा चुनाव भी जीता।

12 माह में कई दिग्‍गज ने छोड़ा साथ

जनवरी 2021 से अब तक कई दिग्‍गज नेता बसपा छोड़ चुके हैं। जुलाई में दो बार विधायक रहे डॉ. धर्मपाल सिंह और बसपा के वरिष्ठ नेताओं में शुमार कुंवरचंद वकील भी सपा में शामिल हो गए। जनवरी में बसपा नेता सुनीता वर्मा, पूर्व मंत्री योगेश वर्मा सहित कई नेता बसपा छोड़ समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। अगस्‍त 2021 में बसपा विधायक मुख्‍तार अंसारी के बड़े भाई सिब्कातुल्लाह अंसारी अपने समर्थकों के साथ सपा में शामिल हो गए। सिब्कातुल्लाह अंसारी मोहम्मदाबाद विधानसभा क्षेत्र से 2007 में सपा और 2012 में कौमी एकता दल से विधायक रहे। 2017 में बसपा से मैदान में उतरे थे लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इसके अलावा बसपा नेता अंबिका चौधरी भी घर वापसी करते हुए साइकिल पर सवार हो गए।

बसपा को नजरअंदाज करना मुश्किल क्यों?

यूपी चुनावी आंकड़ों को देखें तो 2019 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी 19 प्रतिशत वोट शेयर के साथ यूपी में दूसरे नंबर की पार्टी है। 10 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रही लेकिन उसका श्रेय समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन को जाता है। बीएसपी अपने बुरे दौर में भी करीब 20 प्रतिशत वोट शेयर बरकरार रखने में कामयाब रही है। कहने का मतलब यह है कि बुरे दौर में होने के बावजूद बसपा को नजरअंदाज तो नहीं ही किया जा सकता।

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