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समाज

Cairo 678 : पुरुषों के लिए एक बेहद जरूरी फिल्म

Janjwar Desk
16 Oct 2021 9:26 AM GMT
Cairo 678 : पुरुषों के लिए एक बेहद जरूरी फिल्म
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Cairo 678 : जब भी औरतें संघर्ष में उतरती हैं तो तमाम संस्थाओं का पितृसत्तात्मक रवैया हर कदम पर उनकी राह रोक कर खड़ा हो जाता है।

मनीष आजाद की टिप्पणी

Cairo 678। पहला दृश्य- रात में बेडरूम में जब फायजा को उसका पति स्पर्श करने की कोशिश करता है तो फायजा गुस्से से उसे झटक देती है। पति को नहीं पता कि आज नौकरी से लौटते समय बस नम्बर 678 में वह कई बार अनचाहे स्पर्श का शिकार हो चुकी है। और अभी उसके लिए 'कानूनी' और गैर कानूनी स्पर्श में अंतर करना मुश्किल है।

पति का गुस्सा सातवें आसमान पर- 'मैं तुम्हे लूडो खेलने के लिए ब्याह कर नहीं लाया हूँ।' कैमरे का फोकस फायजा के चेहरे पर है, जहाँ सदियों की वेदना मानो ठहर सी गयी है।

दूसरा दृश्य- मिस्र (Egypt) का फुटबॉल मैच जिम्बाब्वे से चल रहा है। 'देशभक्ति' उफान पर है। स्टेडियम में सभी 'मिस्र' 'मिस्र' के नारे लगा रहे हैं। इसी स्टेडियम में नव दंपति सेबा और उसका पति भी है और वे भी जोर-शोर से अपने देश 'मिस्र' का उत्साह बढ़ाते हुए नारे लगा रहे हैं। मिस्र मैच जीत गया। भीड़ खुशी से पागल। वो अपनी 'खुशी' किस पर निकाले। 50-60 लोग सेबा को घेर लेते हैं और फिर सैकड़ों उंगलियां सेबा के शरीर को नोचने लगती हैं। यह एक 'नर्क का घेरा' (Circle of Hell) था, जहां महिला के शरीर को मनचाहे तरीके से नोचा जा रहा था और इस नर्क के मंथन से 'पुरुषों' के लिए 'आनंद' निकाला जा रहा था। औरत का दुःख, 'पुरुष' का सुख।

उसका पति चाहकर भी अपनी पत्नी को इस 'देशभक्ति' के हमले से नहीं बचा सका। आखिर 'देशभक्ति' का झंडा औरतों की छाती पर ही तो गाड़ा जाता है।

2007 में मुंबई में नए साल के जश्न पर भी तो यही हुआ था। सैकडों-हज़ारों लोगों की उपस्थिति में एक लड़की को इसी तरह 25-30 लोगों ने घेर लिया और नए साल के जश्न के तेज शोर के बीच 15-20 मिनट तक मदद के लिए चिल्लाती उस लड़की के शरीर को तार-तार करते रहे।

बाद में किसी इंटरव्यू में उस लड़की ने बताया कि ऐसा लग रहा था जैसे शरीर पर सैकड़ों छिपकलियां चल रही हों। समय समय पर 'पुरुष' का छिपकली में तब्दील हो जाना सभ्यता के विकास में 'पुरुष' द्वारा अर्जित कोई 'कला' है या फिर 'पुरुष' से इंसान बनने में कोई कसर रह गयी है?

बहरहाल सेबा का पति इस घटना से आहत है। इतना आहत कि वह अपने दुःख को सेबा के दुःख से भी बड़ा बना देता है और सेबा एक बार फिर अकेली पड़ जाती है।

फिल्म का यह बहुत ही सशक्त हिस्सा है। क्या पुरुष का दुःख महिला के दुःख से हमेशा श्रेष्ठ होता है?

खैर, सेबा अपने पति से तलाक ले लेती है और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं की काउंसलिंग करने लगती है।

तीसरा दृश्य- 'नेली' एक कॉल सेंटर में काम करती है और स्टैण्ड अप कॉमेडियन भी है। एक बार किसी रईसजादे ने अपनी कार से सड़क पर पैदल चलती 'नेली' को छाती से पकड़ कर घसीट दिया। लेकिन नेली के साहस के कारण वह पकड़ा गया। लेकिन पुलिस उस पर यौन हिंसा का मुकदमा न बनाकर सिर्फ सामान्य हमले का मुकदमा बनाना चाहती है। पुलिस यहाँ जबर्दस्ती नेली की अभिभावक बन जाती है और उसे समझाती है कि इससे उसकी बदनामी होगी। परिवार के लोग भी नेली को यही समझाते हैं। यहां पर नेली का पति शुरुआती हिचकिचाहट के बाद मजबूती से उसके साथ खड़ा है। यहाँ 'ऋतुपर्णो घोष' की ऐसे ही विषय पर बनी एक फ़िल्म 'दहन' बहुत शिद्दत से याद आती है।

फ़िल्म में आगे कहीं पर उपरोक्त तीनों महिलाओं की मुलाकात होती है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि जब भी औरतें संघर्ष में उतरती हैं तो तमाम संस्थाओं का पितृसत्तात्मक रवैया हर कदम पर उनकी राह रोक कर खड़ा हो जाता है।

सबा की प्रेरणा से फ़ायज़ा आत्मरक्षा में छोटा चाकू लेकर चलती है और बस की भीड़भाड़ में छेड़छाड़ करने वाले पुरुषों के निचले हिस्से पर चुपके से चाकू मारकर बस से उतर जाती है। फ़ायज़ा अब इसे अपना मिशन बना लेती है और दूसरी महिलाओं के साथ होने वाली छेड़छाड़ में भी चुपके से चाकू मार कर निकल जाती है। अब सेबा और नेली भी फ़ायज़ा के साथ हैं। एक दृश्य में फ़ायज़ा बस में अपने पति को एक महिला के साथ छेड़छाड़ करती पाती है। यह देखकर अवाक फ़ायज़ा के हाथ से चाकू गिर जाता है। लेकिन वह देखती है कि भीड़ में सबा भी है और सबा ने फ़ायज़ा के ही अंदाज़ में उसके पति को भी चाकू मार दिया।

इस तरह की अनेक घटनाओं के बाद पुलिस इसकी जांच शुरू करती है। जांच अधिकारी को जांच के दौरान पता चल जाता है कि चाकू से घायल प्रत्येक व्यक्ति बस में महिलाओं से छेड़छाड़ कर रहा था। लेकिन इस तथ्य से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। कानून को तो अपना काम करना है। उसे तो उस महिला को गिरफ़्तार करना है, जिसने ये हमले किये हैं।

लेकिन इसी बीच जांच अधिकारी की गर्भवती पत्नी ने एक बच्ची को जन्म दिया और जन्म देने के दौरान पत्नी की मौत हो गयी। दुःख से पीड़ित जब वह जांच अधिकारी अपनी नवजात बच्ची को हाथ मे लेता है तो उस बच्ची के चेहरे में उसे कुछ खास दिखाई देता है।

इसके बाद जांच अधिकारी इन तीनों महिलाओं को पकड़ने के बाद भी छोड़ देता है। फ़िल्म का अंतिम दृश्य एक शक्तिशाली 'काउंटर नरेटिव'(counter-narrative) पर खत्म होता है।

तीनो महिलाएं स्टेडियम में फुटबॉल मैच देखने पहुँची हैं। लेकिन इस बार वे अपने देश मिस्र के लिए नहीं बल्कि विरोधी टीम जिम्बाब्वे के लिए नारे लगा रही हैं।

'मुहम्मद दिएब' (Mohamed Diab) निर्देशित मिस्र की यह फ़िल्म 'यू-ट्यूब' और नेटफ्लिक्स पर मौजूद है।

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