प्रवासी कश्मीरी पंडितों को अब भी डराता है जनवरी 1990 का वो खौफनाक मंजर
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शेख कयूम की रिपोर्ट
जम्मू। जनवरी 1990 में उस भयानक रात के बाद श्रीनगर में अपना घर छोड़ने के बाद 70 साल के अवतार कृष्ण रैना के लिए दुनिया पहले जैसी नहीं रही।
उन दिनों को याद करते हुए रैना कहते हैं, "मुझे नहीं लगता था कि पुराने घाव कभी इतने लंबे समय तक इतनी गहरी चोट पहुंचा सकते हैं। मैं अब भी अक्सर नींद में झटके से जाग उठता हूं जैसे उस रात के वो भयानक नारे अब भी मेरे घर के बाहर लग रहे हैं। हम श्रीनगर के आली कदल इलाके में अपने मुस्लिम पड़ोसियों के बीच शांति से रहते थे। मैं अपने सबसे अच्छे दोस्त अफजल के साथ बड़ा हुआ था, जो मेरी मां के साथ ऐसे बैठता था, जैसे वो उनका दूसरा बेटा हो। मां भी उसे अपने दूसरा बेटा मानती थी।"
रैना अब जम्मू शहर में रहते हैं। वहीं उनके बच्चे बड़े हुए। उनकी बेटी डॉक्टर है और बेटा मुंबई में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। अपने जैसे सैकड़ों अन्य कश्मीरी पंडितों के साथ दूसरी जगह शरण लेने के 2 साल बाद ही रैना ने अपनी पत्नी को खो दिया था।
उस खौफ को याद कर नम आंखों से रैना कहते हैं, "मेरी त्रासदी यह है कि मैंने न केवल अपने घर और दोस्तों को खो दिया। बल्कि मैंने इंसान की भलाई करने की बात से ही विश्वास खो दिया।"
कश्मीरी पंडितों के पलायन ने स्थानीय हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को नुकसान पहुंचाया, क्योंकि वह ऐसी जगह थी जहां दोनों भाईचारे से रहते थे और ईद हो या महा शिवरात्रि उन दोनों के त्योहार थे। पुराने श्रीनगर शहर में हरि पर्बत पहाड़ी के ऊपर शेख हमजा मखदूम के धार्मिक स्थल के पड़ोस में शारिका देवी का मंदिर इस बात की गवाही देता है। जहां मुसलमानों और स्थानीय पंडितों ने इन दोनों जगहों पर प्रार्थनाएं कीं। यही वजह है कि 1990 से पहले तक इन समुदायों के लिए एक-दूसरे के बिना जीवन जीने की कल्पना करना भी असंभव था।
फिर इसके बाद जनवरी 1990 में जो हुआ उसने 'आजादी' के नारे लगाने का मकसद तो हासिल कर लिया लेकिन कश्मीरी पंडितों ने अपना घर और चूल्हा खो दिया, वहीं स्थानीय मुसलमानों ने अपनी बेगुनाही खो दी। इसके बाद आम कश्मीरी के लिए फिर चाहे वो हिंदू हों या मुस्लिम, उनके लिए दुनिया फिर कभी पहले जैसी नहीं रही।
स्थानीय मुसलमानों को उन लोगों ने दुख पहुंचाया जो उनकी उदात्त परंपराओं और धार्मिक सहिष्णुता के आदशरें से नफरत करते थे। वहीं स्थानीय हिंदू तो अपने ही देश में शरणार्थी बनने पर मजबूर हो गए।
रैना कहते हैं, "हमने अपनी मातृभूमि खो दी। अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में रहने की त्रासदी केवल कश्मीरी पंडित ही समझ सकते हैं। भले ही मेरे बच्चों का भविष्य सुरक्षित है, लेकिन उन्होंने अपनी जड़ें खो दी हैं।"
क्या कश्मीर कभी वैसा हो पाएगा जैसा जनवरी 1990 से पहले था? यह हो सकता है, लेकिन उन लोगों के दिलों और दिमागों के घाव शायद कभी ठीक न हो पाएं, क्योंकि कुछ घाव कभी भी पूरी तरह से ठीक नहीं होते हैं।