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समाज

मलबे से निकल रहीं हैं हज़ारों सिसकियाँ

Janjwar Desk
3 Nov 2023 10:48 AM GMT
मलबे से निकल रहीं हैं हज़ारों सिसकियाँ
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ये खंडहर, ये वीरानियाँ, ये उजड़ी हुई बस्तियाँ, इनसे निकल रहीं हैं हज़ारों सिसकियाँ, जो कल तक हंसते थे, चहकते थे किलकारियाँ करते थे, वो आज ज़मीन दोज़ हैं....

ग़ाजा के हाल पर युवा कवि शशांक शेखर की कविता

ये खंडहर

ये वीरानियाँ

ये उजड़ी हुई बस्तियाँ

इनसे निकल रहीं हैं हज़ारों सिसकियाँ

जो कल तक हंसते थे

चहकते थे किलकारियाँ करते थे

वो आज ज़मीन दोज़ हैं

उनके खिलवाड़ में बनाये हुए

घरौंदे ..

उनके खिलौने उनके कपड़े

उनकी ज़िद

उन मकानों और इमारतों

के साथ ही दफ़्न हैं

अब इन गलियों में

कोई अपना घर नहीं बिसरता

अब ये विशाल मलबा ही

इस शहर का मुस्तक्बिल है

यही एक पता है

जिससे शहर जाना जाएगा

ये ऊँचा पहाड़

यही डाकघर है, यही स्कूल और यही हस्पताल

कितनी रातें दफ़्न हैं यहाँ

कितनी जद्दोजहद होती है

बच्चे सोते ही नहीं और माएँ परेशान फिरती हैं

जब सहर होती है तो शहर को

ठंडे आग़ोश में ले लेती है

कोई कान लगाए तो सुने

ये उबाऊ लोरियाँ

ये सितमगर दूरियाँ

ये नीम बेहोशियाँ

मलबे से निकल रहीं हैं हज़ारों सिसकियाँ....

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