संगीत पर झूमने और नृत्य करने का रिश्ता है जैनेटिक : शोध में हुआ खुलासा
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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
A new study discovers how our genomes tune our brain to the beat of the music. भीड़ में जब संगीत बजता है, कुछ लोग ध्यान नहीं देते, कुछ थिरकते हैं, कुछ लयबद्ध तालियाँ बजाते हैं, कुछ पैरों से जमीन पर ताल देते हैं और कुछ लोग नृत्य करने लगते हैं। अब तक संगीत पर थिरकना या नहीं थिरकने की व्याख्या सामाजिक और मानसिक आधार पर की जाती थी, पर हाल में ही प्रकाशित एक अनुसंधान से यह स्पष्ट होता है कि संगीत का लोगों पर जो अलग-अलग प्रभाव पड़ता है, उसका राज आनुवंशिक गुणों में छिपा है। आनुवंशिक गुणों के कारण ही संगीत पर सबकी प्रतिक्रिया अलग होती है, और प्रभाव भी अलग तरीके से जाहिर होता है।
इस अध्ययन को नेचर ह्यूमन बिहेवियर नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है, और इसे अमेरिका के वन्देर्बिल्ट जेनेटिक्स इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिकों की अगुवाई में वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने किया है। यह अपनी तरह का सबसे बड़ा अध्ययन है, और इसका निष्कर्ष है कि आनुवंशिक सामग्री जीन के स्तर पर कम से कम 69 परिवर्तन संगीत की लय पर थिरकने को मजबूर करते हैं। संभव है, आगे और ऐसे परिवर्तनों की पहचान की जा सकेगी। संभव है किसी में ऐसे कोई परिवर्तन नहीं हों, किसी में कुछ परिवर्तन हों और किसी में सभी परिवर्तन हों – इन्हीं परिवर्तनों के आधार पर ही संगीत का असर लोगों पर अलग-अलग पड़ता है।
जिन जीन में ऐसे परिवर्तन देखे गए हैं, उनें से कुछ जीन केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का हिस्सा हैं। केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र शुरुआती दौर में मस्तिष्क के विकास, सुनने की क्षमता और थिरकने और चलने की गतिविधियों के लिए जिम्मेदार है। पहले के अनेक अनुसंधानों से यह स्पष्ट है कि लय और ताल की समझ के लिए कोई एक जीन नहीं, बल्कि सैकड़ों जीन जिम्मेदार हैं। लय और ताल की समझ के साथ थपकी देना, पैर हिलना, ताली बजाना या फिर नृत्य को "बीट सिंक्रोनाइजेशन" कहा जाता है, और इसे प्रभावित करने वाली अधिकतर जींस सांस, सुनना, चलना और थिरकने की प्रक्रिया को भी प्रभावित करती है।
एक दूसरे अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सामूहिक संगीत से परस्पर सौहार्द बढ़ता है और साथ ही तनाव भी कम होता है। संगीत से तनाव कम होता है, इससे सुकून मिलता है और हम शांति का अनुभव करते हैं - इसे हम अपने अनुभव से भी महसूस करते हैं, इसे अनेक अध्ययन पहले भी बता चुके हैं – पर नए अध्ययन की विशेषता यह है कि इसका निष्कर्ष न्यूरोसाइंटिस्ट्स के दल ने सामूहिक संगीत के समय मस्तिष्क की कार्यप्रणाली के आधार पर निकाला है। जाहिर है, इस अध्ययन से संगीत के समाज-विज्ञान प्रभाव को एक नया आयाम मिला है। इस अध्ययन को अमेरिकन साइकोलोजिस्ट नामाल जर्नल में प्रकाशित किया गया है और इसे बर्लान यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के न्यूरोसाइंटिस्ट के संयुक्त दल ने किया है।
सामूहिक संगीत से मनुष्य का सम्बन्ध विकास के हरेक दौर में रहा है। आज भी दुनिया की हरेक जनजाति में सामूहिक संगीत, गायन और नृत्य हरेक अवसर पर किया जाता है। दुनिया की बहुत कम जनजातियाँ ऐसी हैं जिसमें एकल गायन या नृत्य की परम्परा है। विकास के दौर में सामूहिक गायन और नृत्य संभवतः आपसी सौहार्द का ही प्रतीक रहा होगा। विकास के दौर में जब तक पूरी आबादी एक ही प्रकार के काम करती रही, तब तक केवल सामूहिक गायन की ही परंपरा रही होगी, पर बाद में आधुनिकता की दौड़ में एकल गाना की शुरुआत हुई होगी।
आज भी शादी-विवाह या फिर पर्व-त्योहारों पर परम्परागत तौर पर सामूहिक गान का ही आयोजन होता है। नेचर ह्यूमन बिहेवियर नामक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के पैमाने का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसके लिए 6 लाख व्यक्तियों में आनुवंशिकी या जेनेटिक स्तर पर अध्ययन किया गया, और इतने बड़े पैमाने पर अध्ययन करने के कारण जीन के स्तर पर बहुत सूक्ष्म परिवर्तन का आकलन भी किया जा सका। यह अध्ययन बताता है कि संगीत के प्रति झुकाव आनुवंशिकी कारणों से होता है, और संगीत के प्रति झुकाव का सम्बन्ध जिन आनुवंशिकी पदार्थों से है, उनका सम्बन्ध हमारे सुनने, हमारे चलने और सांस लेने की प्रक्रिया से भी है। जाहिर है आनुवंशिक गुणों के कारण ही हमारा मस्तिष्क संगीत से लगाव का सन्देश देता है।