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विमर्श

अनुपम मिश्र स्मृति: अनुपम किसी भी बंधे बंधाए खांचे में फ़िट नहीं बैठते थे

Janjwar Desk
26 Dec 2021 12:09 PM IST
अनुपम मिश्र स्मृति: अनुपम किसी भी बंधे बंथाये खांचे में फ़िट नहीं बैठते थे
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अनुपम किसी भी बंधे बंथाये खांचे में फ़िट नहीं बैठते थे.. अपने काम से दुनिया भर नाम हुआ पर बुद्धिजीवी के अर्थ में बुद्धिजीवी नहीं थे, बुद्धि को जीविका कभी बनाया नहीं... हमेशा अपनी और दूसरों की बुद्धि पर भरोसा रखा | घर में न दफ़्तर में किताबों से भरी अलमारी नुमायां रखी जिसकी तरफ़ पीठ करके इंटरव्यू दे सकें

वरिष्ठ पत्रकार मनोहर नायक की टिप्पणी

अनुपम का कल जन्मदिन था ... इसकी औपचारिकता और रस्मी तौर तरीक़ों से वे हमेशा दूर रहे...हमेशा परहेज़ किया... फ़ोन पर भी इसकी बधाई पर एक असहज सा धन्यवाद सुनने को मिलता था.... अनुपम के व्यक्तित्व में घुली- मिली सहजता बनक- ठसक से ठेस खाती थी... उनकी स्वाभाविकता को खंडित करती थी | औपचारिकताओं, कृत्रिमता, दिखावे से उनका लेना- देना था ही नहीं....जन्मदिन भी उनका आम दिनों की तरह ही घर- बाहर की सक्रियताओं से भरा रहता , उस 'दिन' की आराइशों- बनावटों से कतई अनभिज्ञ... दरअसल जैसे जन्मदिन अनुपम के लिए कोई ख़ास दिन नहीं था वैसे ही बाक़ी के दिन भी उनके लिए 'आम' दिन नहीं थे , वे सब, ख़ास दिन... जैसे जन्मदिन ही थे... ये सारे दिन उनकी अपूर्व ऊर्जा, प्रतिभा और क्षमता से भरे होते | ये सब दिन उनकी अनोखी सहज सौम्यता, स्फूर्ति, शांति और प्रसन्नता से पूरित होते...... बाहर घमासान काम करते तो घर आकर उसके कामों में रम जाते... उनका अथक श्रम बोझिल नहीं सरस और हंसमुख होता | हर दिन उनके लिए समान थे और उन्हें वे समान रूप से पालते-पोसते प्यार करते थे... मुझे मन्ना ( भवानी बाबू) के 76 में कभी आये पोस्टकार्ड की याद आती है | मंजु -अनुपम का रिश्ता तय हो गया था | पिताजी आपातकाल में मीसा में बंद थे और उनका कहना था कि उनकी रिहाई चूंकि अनिश्चित है इसलिए विवाह के लिए उनकी राह न देखी जाये... इस पर मन्ना ने मां को लिखा था कि गणेशजी ( पिता) के लिए रुकेंगे, जब वे आएंगे तब विवाह करेंगे, मुहूर्त क्या देखना, काल देवता अपने को अंशों में पवित्र नहीं रखता | ... अनुपम दिनों में फ़र्क़ किये बिना पूरे जीवन को ---अपने, दूसरों और समाज के जीवन को संवारने में लगे रहे | उन जैसों का किसी विशेष दिन नहीं हर रोज़ स्मरण होना चाहिए |

‌देखते- देखते अनुपम को गए पांच बरस हो गये, पर सोचने पर उनका जाना अविश्वसनीय सा ही लगता है, वे कभी भूलते नहीं | अब्बी भैया, नंदी दीदी और मंजु कबके वसुंधरा की जनसत्ता सोसायटी में आ गये पर मिश्र परिवार और ख़ास तौर पर मन्ना, अम्मा और अनुपम के साथ स्मृतियों में 21, गांधी स्मारक निधि, राजघाट का वह अनुपम घर टंका हुआ है... अद्भुत घर ... चौके से लेकर हर कमरे , हर ओर आत्मीय और रचनात्मक क़िस्म की हलचलों से निरंतर भरा हुआ | रिश्तेदारों का अजस्र प्रवाह, कई- कई दिन का प्रवास, इत्मीनान से रहने आये रुद्री चाचा ( रुद्र नारायण शुक्ल) तो बिलासपुर वाले फूफाजी के परिवार के साथ टैक्सी से कसरत के मुगदर आदि साज समान भी उतरते , ऊपर से मन्ना और अनुपम व अन्यों के रोज़ के मिलने वाले... सोचता हूं वह साढ़े तीन कमरों वाला घर कितना विस्तृत था... दशकों अपनी कमज़ोर होती क्षमताओं के बावजूद उस घर ने कितने- कितने लोगों को जगह दी , लगता है वह 21 नम्बर का आवास और मिश्र परिवार एक दूसरे के लिए ही थे | ...ऐसी घनघोर गगहमागहमी और आत्मीय विस्तार वाले कई परिवार मिले... एक तो अपना ही जबलपुर के दीक्षितपुरा वाला घर था, फिर पास ही मामाओं का चहल- पहल वाला घर ' नायक निवास ' और इनके बीच में स्थित रामेश्वर प्रसादजी गुरू का घर, राइट टॉउन का भवानी प्रसादजी तिवारी का बंगला और इलाहाबाद का 65 , टैगोर टॉउन वाला केशवचंद्रजी वर्मा का घर... इन सब घरों में ख़ूब समय बीता,इनकी याद के साथ गीतांजलि की तिवारीजी द्वारा अनुदित ये पंक्तियां याद आती हैं, घर में उत्सव फूला हो - बंसी बगराय रस अपार / उड़ रही हंसी की हो फुहार! ... इन घरों में ऐसा ही सुरीला, गीतमय, हंसता हुआ प्रेम का पसारा था...रंजना के झांसी वाले महेश भैया का घर भी, जहां लोगों का आना- जाना थमता ही नहीं था | ... तो राजघाट का वह घर बरहमेश भरा - पूरा आबाद रहता, पर सब कुछ सहज गति से चलायमान, कोई आपाधापी नहीं... सब अपने काम में व्यस्त... दफ़्तर जाने तक पमपम यानि अनुपम सब तरह के घरेलू कामों और उसार में रत ... अपनी शिष्टता और बोली- बानी की मिठास के साथ | होता यह कि घर आये रिश्तेदार मेहमान उनसे प्रेरित हो अपने अंदर कामकाज की फुर्ती और वाणी में शहद -सी मिलावट की बहुत कोशिश करते पर जल्दी ही हांफ जाते... असल में पमपम को यह सब सधा हुआ था , यह सब उनके स्वभाव से अभिन्न था | जहाँ तक बोली -बानी- मिठास की बात है वह मिश्र परिवार की अपनी विशेष चीज़ है... बात करने की अपनत्व भरी अनौपचारिकता ! वैसे मिश्र परिवार मूलतः होशंगाबाद ज़िले का है पर जबलपुर के पास नरसिंहपुर में बस गया था... जैसे होशंगाबाद वालों का मुंह भोपाल की तरफ़ होता है वैसे ही नरसिंहपुर वालों का जबलपुर की तरफ़ | इन सबका जबलइपुर से गहरा नाता रहा... मन्ना राबर्टसन कॉलेज में पढ़े| हमारे पिता से उनकी मित्रता पुरानी थी... आज़ादी की लड़ाई में वे संगी साथी थे| पिताजी का नरसिंहपुर बहुत आना- जाना था... साठ के दशक की उनकी डायरी में लिखा है कि नरसिंहपुर स्टेशन पर भवानी की बहनें मिल गयीं, सब भाई बहनों का बोलना एक सा है |

पमपम का इतवार या अन्य कोई छुट्टी का दिन थोड़ा विलम्बित शुरू होता, एक बड़े मग भर चाय के साथ... और फिर वे जुट जाते घर के छूटे, रह गए कामों को पूरा करने में.. साफ़ सफ़ाई, घर के पिछवाड़े के पेड़ पौधों की देखरेख, वाशिंग मशीन से कपड़े धोने में मदद, कपड़ों को फटकारना टांगना, प्रेस करना, कुछ हाथ खाली हुआ तो सब्ज़ी ही काट दी, कुछ टूट-फूट गया तो उसकी मरम्मत, खाना खिलाने में सहायक और खाना खाते हुए मगन प्रशंसा से भरे हुए... कुछ विश्राम फिर मंजु के साथ छिटपुट खरीदारी के लिए पैदल दरियागंज, लौटकर थोड़ी गपशप, फिर ब्यारी यानि रात के भोजन के लिए तैयारी, फिर सबके बिस्तर बिछाने का काम... घर जब मेहमानों से लबालब होता तो एक बिस्तर डाइनिंग टेबिल पर लगता जिस पर प्रायः नंदी दीदी सोतीं | रागिनी, केतकी, आनंद या अन्य बच्चों के लिए खास मैगी वे अत्यंत चाव से बनाते... यह एक तरह से उनका घर का टाइम टेबल था | पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों के लिए हमेशा समय रहता, दिल्ली और बाहर सब कहीं के... हम लोग एक बार फूफाजी की 75 वीं सालगिरह पर खुरई गये थे... दफ़्तर और अन्य लिखा- पढ़ी के कामों का घर में डेरा था... वे फ़ोटोग्राफ़र भी आला दर्ज़े के थे और पहले छोटा-सा डार्करूम भी हुआ करता था | घर से दफ़्तर तक काम ही काम फैला हुआ था... इन्हीं में देश भर में फैली लगातार होने वाली यात्राएं थीं, सभाएं, सेमीनार, भाषण व अन्य आयोजन थे, गांधी मार्ग था और वह काम था जो पर्यावरण, पानी और तालाब को लेकर उन्होंने किया और इन पर लिखी दस्तावेज़ी महत्व की किताबें हैं जो उन्होंने लिखीं और इन पुस्तकों को उन्होंने समाज को यूं सौंप दीं कि, तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा... यह वीतराग भाव पमपम में गहरे समाया हुआ था |

पर पमपम प्रेम से भरे हुए लोगों की चिंता करने वाले, अच्छा सुनकर- पढ़कर विह्वल होने और दूसरों के लिए परेशान हो जाने वाले मानुष थे... अच्छी किताबें फ़िल्में और सुस्वादु व्यंजनों के मुक्त प्रशंसक थे, पर उनमें ग़ज़ब का लोभ संवरण भी था | प्रभाषजी पीछे पड़े रहे कि जनसत्ता में असिस्टेंट एडिटर कर लें, पर वे पत्रकारिता की चर्चित चकाचौंध में कभी नहीं पड़े... गांधी शांति प्रतिष्ठान की अपनी छोटी सी नौकरी करते हुए रुचि का काम करते रहे | पमपम पर काम का बोझ कभी दिखा नहीं, हमेशा शांत और सौम्य ही नज़र आते | धीर-गम्भीर नहीं बल्कि इसके उल्ट बेहद पुरलुत्फ़ और पुर मज़ाक... एक दिलचस्प क़िस्सा उनके मित्र बनवारीजी ने सुनाया था| शादी के बाद एक मित्र दफ़्तर में मिलने आये और पूछा भाभीजी कैसी हैं, पमपम ने कहा जैसे अपने घरों में होती हैं, वैसी ही हैं... पर मित्र ने फिर वही पूछा कि भाभीजी कैसी हैं तो कहा,भाई पढ़ी - लिखी हैं घर के काम में निपुण हैं... पर फिर जब दोस्त ने वही दोहराया तो पमपम ने मुस्कुराते हुए कहा यार जब वह हंसती है तो फूल झड़ते हैं और मेरा पूरा दिन फूल बटोरने में चला जाता है | ... दरअसल 76 के शुरू में बनवारीजी ही पहले मंजु को देखने आये थे और हमारे घर के ही पास अनुपम की चाची की बहन यानि उनकी मौसी के यहां ठहरे थे, जो नित्यगोपालजी तिवारी की पत्नी थीं.. तिवारीजी पत्रकार थे, उन्होंने शहर का पहला सायंकालीन अख़बार ' जबलपुर समाचार' निकाला था, वे नगर कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे थे |... बाद में अनुपम आये और अपने मामाजी के यहां उनसे हम सबकी पहली मुलाक़ात हुई थी |

अनुपम किसी भी बंधे बंथाये खांचे में फ़िट नहीं बैठते थे.. अपने काम से दुनिया भर नाम हुआ पर बुद्धिजीवी के अर्थ में बुद्धिजीवी नहीं थे, बुद्धि को जीविका कभी बनाया नहीं... हमेशा अपनी और दूसरों की बुद्धि पर भरोसा रखा | घर में न दफ़्तर में किताबों से भरी अलमारी नुमायां रखी जिसकी तरफ़ पीठ करके इंटरव्यू दे सकें.... दिखावा उनकी फ़ितरत में था ही नहीँ .... जीवन , व्यवहार, परिधान में ही सहज -- साधारण नहीं बल्कि अपने लेखन और भाषा में भी वैसे ही ...अंग्रेजी, ऊर्दू से आक्रांत हुए बिना सहज और स्निग्ध | पमपम ने ये सब चीज़ें साधी थीं , एक तरह की व्रत- निष्ठा से, लेकिन अत्यंत विनम्रतापूर्वक | ... आज के ज़माने में मोबाइल रखा न लैपटॉप पर औरों के मुक़ाबले एक बड़ी दुनिया से जीवंत सम्पर्क व संवाद में रहे| उनका पोस्ट कार्ड एक वक़्त में कइयों के बरसरे राह होता | कवि नरेंद्र जैन एक कविता में बताते हैं कि उन्हें मंगलेश डबराल की लिखावट से ईर्ष्या थी, मुझे भी थी और अनुपम की लिखावट से भी थी | इन दोनों का सौंदर्यबोध असाधारण था | दोनों ही सम्पादन में बेजोड़ थे.. पमपम की किताबें और गांधी मार्ग के अंक देखिये वे उनके सम्पादन और सुरुचि के स्मारक हैं... पमपम को सौभाग्य से इस सबके लिए दिलीप चिंचालकर जैसा कलाकार साथी मिला | घर - बाहर- दफ़्तर सब कहीं आपको पमपम के सौंदर्यबोध और सुरुचि की छाप मिलेगी जिसे उनकी सादगी परिपूर्ण करती थी | पमपम के सजल- सरस जीवन का स्मरण करते हुए नरेश सक्सेना की ये काव्य पंक्तियां याद आती हैं : गिरो जैसे गिरती है बर्फ़ / ऊँची चोटियों पर / जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ / गिरो प्यासे हलक में एक घूंट जल की तरह / रीते पात्र में पानी की तरह गिरो / उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए |

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