इंटरनेशनल वेबिनार्स पर अंकुश लगाना मोदी सरकार का शिक्षा के अधिकार पर सबसे बड़ा हमला
सुधीन्द्र कुलकर्णी का विश्लेषण
नरेंद्र मोदी की सरकार ने भारत के विश्विद्यालयों,आईआईटीज़. आईआईएम्स और उच्च शिक्षा के ऐसे ही दूसरे संस्थानों में पढ़ने-लिखने की आज़ादी पर हमला बोल दिया है या कहें कि एक छोटी-मोटी "सर्जिकल स्ट्राइक" कर डाली है। उप-कुलपतियों,वैज्ञानिकों,शिक्षकों,शोध कर्ताओं,छात्रों,विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्यों,मान्यता प्राप्त कॉलेजों के प्रबंधकों और भारत के आम बुद्धिजीवियों को ले कर बना शैक्षिक समुदाय जल्दी ही इन संस्थाओं को मलबे में तब्दील होते देखेगा और सोचता रह जायेगा कि लोकताँत्रिक भारत में ऐसा कैसे हो सकता है।
यह छोटी-मोटी "सर्जिकल स्ट्राइक" उस "कार्यालय मेमो" के रूप में शिक्षा मंत्रालय के अवर सचिव जैसे सबसे छोटे अधिकारी द्वारा 15 जनवरी को की गई जिसका बहुत सीधा सा यह नामकरण किया गया है -'ऑन लाइन/वर्चुअल कॉन्फ्रेंस,सेमिनार,ट्रेनिंग इत्यादि करने के लिए संशोधित दिशा-निर्देश'। आज़ाद भारत के इतिहास में हमारे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर यह सबसे बड़ा हमला है। जब इसे पूरी तरह लागू किया जायेगा -लोगों के लोकताँत्रिक अधिकारों पर अंकुश लगाने के सरकार के संकल्प पर शंका करने का सवाल ही नहीं है-तब भारत खुद को दुनिया के उन तानाशाह शासनों की पंक्ति में खड़ा पायेगा जो सोचने की आज़ादी से नफरत करते हैं और उच्च शिक्षा के अपने संस्थानों में अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंट देते हैं।
अब ज़रा इस पर नज़र टिकाएं। नए दिशा-निर्देशों के हिसाब से सभी "केंद्रीय शैक्षिक संस्थान,सरकारी अनुदान पाने वाले विश्वविद्यालय (इनमें मान्यता प्राप्त कॉलेज शामिल होंगे ही) और केंद्र सरकार/राज्य सरकार के स्वामित्व एवं नियंत्रण वाले संगठनों " को अब भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की पूर्व अनुमति हासिल करनी होगी अगर वे "देश की सुरक्षा,सरहदों,उत्तर-पूर्वी राज्यों,जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्रीय शासित क्षेत्रों या फिर भारत के आतंरिक मामलों से जुड़े किसी भी मुद्दे" पर ऑन लाइन अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन या सेमिनार कराना चाहते हों।
इसके अलावा उन्हें " कार्यक्रम और भागीदारों की सूची पर उचित प्रशासनिक सचिव" की संस्तुति लेने की ज़रुरत होगी। उन्हें "राजनीतिक,वैज्ञानिक,तकनीकी,व्व्यापारिक,व्यक्तिगत जैसे संवेदनशील विषयों पर ऐसे कार्यक्रम आयोजित करने के लिए जिनमें किसी भी रूप में डेटा प्रसारण का प्रावधान हो" विदेश मंत्रालय से पूर्व अनुमति लेनी होगी। साँस थामे रहिये -सिर्फ़ यही नहीं, बल्कि आयोजन के बाद आयोजकों को कार्यक्रम का लिंक विदेश मंत्रालय के साथ शेयर करना होगा। "पुराने भारत" में उप-कुलपति की आज्ञा बिना विश्वविद्यालय परिसर में सरकार पुलिस नहीं भेज सकती थी। स्वागत कीजिये "नए भारत" का जहां विदेश मंत्रालय के बाबू को और शिक्षा एवं गृह मंत्रालय को हर तरफ लोगों की सोच और विचारों पर पहरा बिठाने के लिए शक्तिशाली बनाया जा रहा है।
क्या प्रधानमंत्री ने कभी यह जाना है या जानने की कोशिश की है कि विश्वविद्यालय का उद्देश्य क्या होता है ? सच्चे अर्थों में कोई भी विश्वविद्यालय ज्ञान को ऐसी सार्वभौमिक संपत्ति मानता है जिस पर सम्पूर्ण मानव जाति का साझा स्वामित्व,रख-रखाव, साझेदारी, इस्तेमाल और संवर्धन होता है।ज्ञान किसी एक देश या समुदाय की बपौती नहीं होता है। ज्ञान हासिल करने,दिए जाने और इस्तेमाल किये जाने के तौर-तरीकों पर राष्ट्रीय सरकारों द्वारा उचित नियम और नियंत्रण लगाया जाना समझ में आता है और ज़रूरी भी है। लेकिन स्वतंत्र,खुले और लोकताँत्रिक समाज इस विचार मात्र से ही तौबा करते हैं कि ज्ञान को बकौल रविंद्र नाथ ठाकुर विशिष्ट राष्ट्-राज्यों की "संकरी घरेलू दीवारों" के भीतर क़ैद किया जाए। इसलिए भारत के विश्वविद्यालयों को अपने क्रिया-कलाप खुद ही चलाने की पूरी छूट होनी चाहिए और अपने विदेशी समकक्षों के साथ लगातार संवाद कर अपनी शैक्षिक गतिविधियों को चलाने की आज़ादी होनी चाहिए। यह कैसे किया जाना चाहिए इसका निर्णय लेने वाले सही न्यायविद अयोग्य और ग़ैर-ज़िम्मेदार नौकरशाह नहीं हो सकते बल्कि वे हो सकते हैं जो हमारे विश्वविद्यालयों को नेतृत्व प्रदान करते हैं,जो शिक्षक वहां पढ़ाते हैं,जो छात्र वहां पढ़ते और पढ़ाते हैं। अगर सरकारी कार्यालय के एक "प्रशासनिक" बॉस को ये अधिकार दिए जाते हैं कि वो विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एवं संचालित वेबिनार्स को ना केवल मंजूरी देगा बल्कि अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों की सूची की जांच और ख़ारिज करेगा तो विश्वविद्यालय बिरादरी का इससे ज़्यादा अपमान और क्या होगा ?
क्या यह बात आपको चौंकाती नहीं है कि विदेश मंत्रालय में बैठे उच्च अधिकारियों ने कैसे खुद को ये अधिकार दे दिए हैं कि वे सिर्फ इस बिना पर शैक्षिक कार्यक्रमों को रोक देंगे कि कार्यक्रम का विषय उनकी नज़र में "संवेदनशील" या "भारत के आतंरिक मामलों से जुड़ा हुआ है" ? विषय लोकतंत्र हो सकता है,धर्मनिरपेक्षता हो सकता है,समाजवाद हो सकता है (भारतीय संविधान के तीन स्तम्भ), मीडिया की स्वतंत्रता हो सकता है,मानवाधिकार हनन हो सकता है,महिला अत्याचार हो सकता है,शरणार्थियों और प्रवासी मज़दूरों के अधिकार हो सकते हैं,आदिवासियों के अधिकार हो सकते हैं,जाति व्यवस्था हो सकती है,संपत्ति की असमानता हो सकती है,साहित्यिक एवं सांस्कृतिक स्वतंत्रता हो सकती है, परमाणु निरस्तिकरण हो सकता है, दक्षिण एशिया में शांति और सहयोग हो सकता है, भारत-चीन सीमा विवाद हो सकता है,समुद्र और बाह्य अंतरिक्ष का विसैन्यीकरण हो सकता है,-यानी वो सब विषय जो शासक दल की किरकिरी कर सकते हों। इसी तरह अगर कोई विश्वविद्यालय या कॉलेज ऐसे अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों को बुलाना चाहता है जो या तो "शत्रुतापूर्ण देशों" के हों या भाजपा के विचारों के आलोचक के रूप में जाने जाते हों तो ये सरकारी अधिकारी उसे भी रोक देंगे। हालाँकि सरकार "राष्ट्रीय हित" की रक्षा की दुहाई दे कर इसे सही ठहरायेगी। लेकिन क्या यह एक अहंकारी और ग़ैर-लोकताँत्रिक धारणा नहीं है कि भारत के "राष्ट्रीय हितों" की रक्षा सिर्फ नौकरशाह ही कर सकते हैं और यह कि इस मामले में शैक्षिक बिरादरी पर भरोसा करना खतरनाक होगा ?
यह तो शिक्षा के क्षेत्र की सामान्य जानकारी रखने वाले भी जानते हैं कि भारत के अपने "आतंरिक मसलों" की जानकारी में विदेशी विद्वानों द्वारा इज़ाफा ही किया गया है, कुछ उसी तरह जैसे भारतीय बुद्धिजीवियों ने बाकी दुनिया की जानकारियों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वैश्विक स्तर पर ज्ञान के साझे निर्माण और अदला-बदली के चलते लाजिमी है कि मतों की भिन्नता हो,विरोध हो और गंभीर असहमतियां भी हों। दबंग शासन को छोड़ दें तो शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों से ये अपेक्षा नहीं की जाती है कि वे घरेलू मसलों या विदेश नीति पर सरकार और शासक दल के विचारों का समर्थन करेंगे। यही कारण है कि आज़ाद समाजों में विश्वविद्यालयों ने यह आम सहमति तैयार की है कि परस्पर संवाद और विभिन्न,यहाँ तक कि विरोधी, विचारों के सम्मान पर आधारित सत्य की मुक्त खोज ही उच्च शिक्षा की जीवन शक्ति है। इस आम सहमति को दबा कर और प्रेस की आज़ादी पर अंकुश लगाने के इसी तरह के कदम उठा कर भाजपा सरकार ने दुनिया को बता दिया है कि यह अपनी "एक राष्ट्र,(केवल) एक विचार" की नीति को हर हाल में लागू करने के लिए कटिबद्ध है।
सरकार का नया आदेश हमारे विश्वविद्यालयों(साथ ही स्वतंत्र विशेषज्ञ समूहों और ग़ैर-सरकारी संगठनों) को दूसरे तरीकों से भी बल पूर्वक रोकता है। पश्चिम के अपने समकक्षों की तुलना में उन्हें बहुत कम फंड मिलता है। ये ना तो अधिक संख्या में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित कर सकते हैं और ना ही विदेश में ऐसे आयोजनों में भाग लेने के लिए अपने शिक्षकों को भेज सकते हैं। इसलिए वेबिनार आयोजित करने की संख्या में आया हालिया उछाल इनके लिए एक बहुत बड़ा वरदान बन कर आया है। यह न केवल यात्रा और सत्कार पर आने वाले खर्च में कटौती करता है बल्कि "ग़ैर-दोस्ताना" देशों से बुलाये गए आगंतुकों के लिए वीज़ा प्रबंध करने में आने वाली कठिनाइयों से भी निजात दिला देता है। इसके अलावा ग्रामीण या दूर-दराज़ के इलाकों में चल रहे संस्थानों द्वारा इस तरह के कार्यक्रम आसानी से और कई बार आयोजित करना संभव हो जाता है। चिंता इस बात की है कि सरकार डिजिटल क्रांति के इन बड़े फायदों से हमारे करोड़ों शिक्षकों,छात्रों और वैज्ञानिकों को वंचित रखना चाहती है।
राज्यों से सलाह-मशवरा किये बिना इस तरह के फ़रमान जारी कर केंद्र सरकार ने एक बार फिर राज्यों के संवैधानिक अधिकारों के प्रति अपने तिरस्कार पूर्ण रवैये का एक और उदाहरण पेश किया है। राज्य विश्वविद्यालयों की संख्या (418) केंद्रीय विश्वविद्यालयों की संख्या(54) से कहीं ज़्यादा है, इसके अलावा राज्य के विश्वविद्यालयों से लगभग 38,500 कॉलेज संबद्ध हैं। जल्दी ही यह फरमान निजी (370) और डीम्ड (125) विश्वविद्यालयों पर भी लागू किया जाएगा।
समाज में भय और परंपरावाद पैदा करना और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कुचल देना मोदी सरकार की कार्यशैली की विशिष्टता बन गई है। मीडिया,न्यायालय,चुनाव आयोग,भ्रष्टाचार-निरोधी और जाँच एजेंसियों के बाद अब विश्वविद्यालयों को सरकार के सामने नतमस्तक होने का आदेश जारी कर दिया गया है। क्या हमारी गौरवशाली,स्वतंत्रता प्रेमी और आत्म-सम्मान को मूल्यवान समझने वाली शैक्षिक बिरादरी अपने घुटने टेक देगी ? इसे ऐसा कतई नहीं करना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक रहे हैं। उनका यह लेख साभार इंडियन एक्सप्रेस से लिया गया है)