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विमर्श

भारत में सिर्फ सत्ता के लिए लड़े जाते हैं चुनाव, धर्म का हथियार के रूप में होता है इस्तेमाल!

Janjwar Desk
27 Oct 2022 8:36 AM IST
भारत में सिर्फ सत्ता के लिए लड़े जाते हैं चुनाव, धर्म का हथियार के रूप में होता है इस्तेमाल!
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अरविंद केजरीवाल ( Arvind Kejriwal ) ने जो स्ट्रॉंग फिलिंग वाली राजनीति का दांव खेला है उसके मायने बहुत व्यापक हैं। चूंकि, वो राजनीति में खतरा मोल लेना जातने हैं, इसलिए वो इस बात को लेकर चिंतित भी नहीं हैं कि इसका अंजाम क्या होगा?


अरविंद केजरीवाल की लक्ष्मी-गणेश वाली पॉलिटिक्स पर धीरेंद्र मिश्र का विश्लेषण


नई दिल्ली। देश के दो राज्यों में संभावित विधानसभा चुनाव ( Gujrat Chunav 2022 ) से ठीक पहले यानि दिपावली के दिन मां लक्ष्मी पूजा के दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ( Arvind Kejriwal ) को एक स्ट्रॉंग फिलिंग आई। इस फिलिंग ने भारतीय राजनीति ( Indian Politics ) को एक नये मोड़ पर ला खड़ा किया है। साथ ही एक नये बहस को जन्म दिया कि क्या भारतीय मुद्रा ( Indian currency ) पर गांधी ( Gandhi ) जी के साथ लक्ष्मी और गणेश ( Lakshmi Ganesh ) का फोटो लगा देने से देश के 130 करोड़ से ज्यादा लोगों का भला होगा। कम से कम केजरीवाल तो इस बात का दावा करते हैं कि ऐसा करने से सबका भला होगा।

खास बात यह है कि सीएम अरविंद केजरीवाल को यह फिलिंग उस समय आई है जब ब्रिटेन में ऋषि सुनक ( Rishi sunak ) का पीएम बनने के बाद से भारतीय राजनीति अल्पसंख्यक पीएम का मुद्दा चरम पर है। गुजरात विधानसभा का चुनाव लगभग हिंदू बनाम मुस्लिम के मुद्दे पर लड़ा जाना तय हो गया है। इतना ही नहीं, इस बार गुजरात चुनाव में आम आदमी पार्टी ( AAP ) की कोशिश विपक्ष की सीट से कांग्रेस ( Congress ) को बेदखल करने की है। इस मुहिम में आम आदमी पार्टी के नेता पुरजोर कोशिश में जुटे हैं। आप की इस मुहिम के बाद से लोग भी यह सोच रहे हैं कि आखिर केजरीवाल को अबकी बार की दिवाली में ही भगवान लक्ष्मी-गणेश की स्ट्रॉंग वाली फिलिंग क्यों आई।

स्ट्रॉंग फिलिंग केवल केजरीवाल ( Arvind Kejriwal ) तक सीमित नहीं है। ऋषि सुनक का ब्रिटिश पीएम बनने के बाद से एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी हिजाब वाली महिला को पीएम बनाने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। उनके इस जिद में कोई बुराई भी नहीं है। देश का कोई भी नागरिक भारत का पीएम बन सकता है। चाहे वो किसी धर्म, जाति, समुदाय, संप्रदाय, वर्ग या लिंग का हो। ओवैसी की इस जिद को बल उस समय मिला जब शशि थरूर और पी चिदंबरम ने इस बात का शिगूफा छोड़ दिया कि क्या भारत में भी एक मुसलमान पीएम हो सकता है।

बस क्या था, सोशल मीडिया यानि ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम व अन्य प्लेटफॉर्मों पर इस मसले पर सियासी भूचाल की स्थिति है। इन सब परिस्थितियों में तय है ही भाजपा भी कहां पीछे रहने वाली थी। उसने भी कमर कस अपने पुराने एजेंडे यानि भगवा एजेंडे पर अडिग रहने का संकेत दे दिया है। साथ ही साफ कर दिया है कि जब हिंदू बनाम अल्पसंख्यक की राजनीति होगी तो बीस कौन होगा ये तो सबको पता है।

सियासी दलों के बीच इस लुकाछिपी के खेल में अहम सवाल यह है कि लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, राजनेताओं के बीच चुनावी मुद्दा ( Political agenda ) क्या होना चाहिए। इस सवाल का सबसे बेहतर जवाब तो यही हो सकता है कि रोजगार, बेरोजगारी, महंगाई, विकास, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता के बदले भाईचारा और सहिष्णुता, गरीबी उन्मूलन, बेहत शिक्षा, स्वास्थ्य व परिवहन प्रणाली। पर क्या ऐसा होने की संभावना है, तो इसका जवाब भी साफ है, कम से कम वर्तमान परिदृश्य में तो ऐसा होता लगता नहीं है। यानि जिससे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी और विकास को बल मिलेगा, भ्रष्टाचार पर अंकुश पाना संभव होगा, वही एजेंडे से गायब है। हालांकि, राहुल गांधी बहुत पहले महंगाई, बेरोजगारी और भाईचारे पर जोर दे रहे हैं। भारत जोड़ो यात्रा में भी वो उसी पर बल देते नजर आ रहे हैं, लेकिन ऐसा लग रह है कि भारतीय लोकतंत्र की सच्चाई को भांपते हुए केजरीवाल ने हिंदू बनाम मुसलमान का सियासी दांव एक सोची-समझी योजना के तहत खेल दिया है।

केजरीवाल ने अपने स्ट्रॉन्ग फिलिंग के जरिए साफ कर दिया है कि देश पर वही राज करेगा जिसे बहुसंख्यक समुदाय यानि हिंदुओं के एक विशेष वर्ग का समर्थन हासिल है। पिछले आठ साल से मतदाताओं का यह समूल भाजपा के साथ है। दरअसल, केजरीवाल भाजपा के इसी मजबूत पक्ष को झटका देना चाहते हैं। तो क्या वो प्रो-माइनोरिटी और विकास वाली अपनी सियासी छवि को एक ही झटके बदल देना चाहते हैं, या फिर उनकी कोशिश भाजपा के विकास और राष्ट्रवाद को एक साथ लेकर चलने की सोच में दखल देने और झटक लेने की कोशिश है। अगर ऐसा है तो वो आगामी चुनावों में एजेंडा सेटर बनेंगे और उन्हीं के तय रोडमैप पर चुनाव लड़े जाएंगे। कांग्रेस जमीनी सच्चाई पर आधारित रोजगार, महंगाई, आ​र्थिक विकास का मुद्दा सेट नहीं कर पाएगी।

फिलहाल, यही लगता है कि इन मुद्दों पर ​राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियों में से कोई भी दल चुनाव नहीं लड़ना चाहता। सभी लोग विकास, भ्रष्टाचार उन्मूलन, सुशासन, मजबूत भारत के बदले धर्म, जाति, वर्ग विशेष की राजनीति करना चाहते हैं। इस मामाले में सभी के सभी सियासी दल एक ही रंग में रंगे नजर आ रहे हैं। तो क्या भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, के खिलाफ राजनीति में आये केजरीवाल भी अब भगवान भरोसे ही राजनीति करना चाहते हैं। अब वो भी हिजाब, भगवान, अल्लाह, जीसस, गुरु नानक, बौद्ध, महावीर जैसे विषयों पर ही अपनी राजनीति चमकाना चाहेंगे।

ऐसा करना सभी के लिए मुफीद भी है। ऐसा इसलिए कि इस तरह की राजनीति में राजनेताओं की जिम्मेदारी तय नहीं होती है। कोई उनसे विकास का हिसाब नहीं मांगेंगा। बेरोजगारी, महंगाई, खराब माहौल, गरीबी, आदि पैमाने पर आडिटिंग का मुद्दा नहीं उठाएगा। एक तार्किक और विवेक पर आधारित समाज की बात नहीं करेगा। सबकुछ इमोशन पर आधारित होगा। तरीका सही हो या गलत, जो नैरेटिव्स सेट कर लेगा वही राज करेगा की थ्योरी ही राजनीति के केंद्र में होगा। यानि देश की आजादी के समय राष्ट्रपिता जिस जद्दोजहद में जुटे रहे कि राजनीति में धर्म हस्तक्षेप कम हो, वो अब भी नहीं हो पाएगा। धर्मिक भावनांए और उससे जुड़े वोट ही आगे भी देश का नेतृत्व तय करेंगे। दरअसल, हम जिस बेरोजगारी, रोजगार, महंगाई, विकास, भ्रष्टाचार, सामाजिक सौहार्द, विकास सूचकांक जैसे पैरामीटर्स की बात करते हैं वो पीछे रह जाएंगे। जिहाद, हनुमान चालीसा बनाम लाउडस्पीकर, धार्मिक हिंसा, लव जिहाद, सर तन से जुदा जैसों नारे भारतीय राजनीति पर पहले की तरह हावी रहेंगे।

इन बातों की चर्चा हम इसलिए कर रहे हैं कि नोट पर लक्ष्मी-गणेश की मांग या केजरीवाल का 'हिंदूवादी तीर' के निशाने पर क्या है। हालांकि, केजरीवाल ने पत्रकारों से कहा है कि मैं यह नहीं कहता कि सारे नोट बदले जाएं, लेकिन जो भी नए नोट छापे जाएं उस पर ये शुरुआत की जाए। अरविंद केजरीवाल ( Arvind Kejriwal ) ने केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री से इसकी मांग की है। उन्होंने कहा कि हम सब चाहते हैं कि भारत एक अमीर देश बने। भारत का हर परिवार अमीर परिवार बने। इसके लिए बहुत सारे क़दम उठाने की जरूरत है लेकिन ये तभी फलीभूत होते हैं जब हमारे ऊपर देवी-देवताओं का आशीर्वाद होता है। यानि धर्म की राजनीति विकास के लिए करना जरूरी है।

यहां पर ये बात भी जानना जरूरी है कि इससे पहले हिंदुत्व के मुद्दे पर हाल ही में उठे एक विवाद के बाद दिल्ली सरकार के एक मंत्री राजेंद्र पाल गौतम को इस्तीफ़ा तक दे दिया था। गौतम की गलती केवल इतनी ही थी कि उन्होंने बौद्धों के एक कार्यक्रम में कुछ प्रतिज्ञाएं दोहराई थीं। कथित तौर पर इसमें हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा न करने की शपथ शामिल थी। इसे लेकर भाजपा ने ने अरविंद केजरीवाल पर कई आरोप लगाए थे। खबरों के मुताबिक़ केजरीवाल अपने मंत्री से काफी नाराज हुए थे। बाद में मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने नौ अक्टूबर को इस्तीफ़ा भी दे दिया था। उसके बाद से गुजरात में विधानसभा चुनाव का माहौल बनाने को लेकर केजरीवाल का हिंदुत्व लगातार सुर्ख़ियों में बना हुआ है।

आठ अक्टूबर को अपने गुजरात दौरे के दौरान अरविंद केजरीवाल ने विरोधियों पर निशाना साधते हुए कहा था कि मैं एक धार्मिक आदमी हूं। हनुमान जी का कट्टर भक्त हूं। हनुमान जी की असीम कृपा है मेरे ऊपर। सारी आसुरी शक्तियां मेरे खिलाफ एक हो गई हैं। ये सब लोग कंस की औलाद हैं। भगवान का अपमान करते हैं। भक्तों का अपमान करते ह़ैं। मैं इनको बताना चाहता हूं मेरा जन्म जन्माष्टमी के दिन हुआ था। मुझे भगवान ने एक स्पेशल काम देकर भेजा है। इन कंसों की औलादों का नाश करने के लिए। इनका सफाया करने के लिए। गुजरात में गायों के लेकर भी अरविंद केजरीवाल बयान दे चुके हैं। उनका कहना था कि हम सब लोग गाय को अपनी माता मानते हैं, अगर गुजरात में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी तो हर गाय की अच्छी तरह से देखभाल करेंगे। हर गाय के रख रखाव के लिए हमलोग 40 रुपए प्रति गाय प्रति दिन के हिसाब से देंगे। वह गुजरात यात्रा के दौरान केजरीवाल हिन्दूवादी वेशभूषा में सोमनाथ मंदिर के दर्शन करने भी पहुंच चुके हैं। गुजरात में द्वारकाधीश मंदिर और स्वामिनारायण अक्षरधाम मंदिर का भी दौरा कर चुके हैं। यानि गुजरात के चुनावी अभियान में केजरीवाल का एक अलग ही रूप देखने को मिल रहा है जो आमतौर पर दिल्ली और पंजा​ब के चुनावों से काफी अलग है। यह हिमाचल प्रदेश के चुनाव से भी अलग है। गुजरात में केजरीवाल एक हिन्दूवादी नेता की छवि बनाते दिख रहे हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि दिल्ली में दलित, मुस्लिम और अल्पसंख्यकों की बात करने वाले केजरीवाल का अलग रूप क्यों दिख रहा है। क्या वो हिंदुत्व के दम पर भाजपा ( BJP ) के सामने नई चुनौती रख रहे हैं। इतना तो तय है कि केजरीवाल नया दांव खेलने में माहिर है। इस मामले में उनका कोई सानी नहीं है। ऐसा नहीं है कि इसकी शुरुआत केजरीवाल ने गुजरात चुनाव जीतने की वजह से किया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के दौरान भी जब केजरीवाल का मंच सजता था तो उस पर भारत माता की तस्वीर लगी होती थी। केजरीवाल पिछले साल दिवाली की पूजा का टीवी पर प्रसारण करा चुके हैं। अरविंद केजरीवाल अयोध्या और बनारस में भी हिन्दूवादी रूप में नजर आ चुके हैं। उन्हें बखूबी पता है मोदी को सियासी मात देनी है तो उन्हें भगवाईयों के एजेंडों के जरिए ही ऐसा करना संभव है। ऐसा इसलिए कि भारत में लोकतंत्र है। यहां चुनाव वही जीतेगा जो अपनी झोली में ज्यादा वोट ले जाएगा। तय है जो चुनाव जीतेगा वही भारत पर राज करेगा। यदि ऐसा है तो यह सवाल भी वाजिाब है कि भाजपा और केजरीवाल के हिंदुत्व में अंतर क्या है? हिंदुत्व को भाजपा की विचारधारा स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान से चल रही है। वह बहुत व्यापक है जिसे आरएसएस चला रहा है। जबकि केजरीवाल का हिन्दुत्व वैचारिक धरातल पर कोई आकार नहीं ले पाया है।

गुजरात में भाजपा और कांग्रेस ( Congress ) दो बड़ी सियासी पार्टी हैं। गुजरात में पीएम मोदी ने मुफ़्त की रेवड़ियों की बात कर ख़ुद वहां आम आदमी पार्टी के लिए एक जगह बना दी है। इसके पीछे हो सकता है कि उनका मकसद केजरीवाल को गुजरात में कुछ ताकतवर बनाने की हो। ताकि भाजपा विरोधी व एंटी इनकंबेसी वोट में सेंध लग जाए। अगर ऐसा है तो साफ है कि आम आदमी पार्टी वहां जितने भी वोट हासिल करेगी उससे कांग्रेस को उतना ही ज़्यादा नुक़सान होगा और इसका लाभ भाजपा को मिलेगा।

अरविंद केजरीवाल राम और कृष्ण की बात करते रहे हैं। अब वो हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीर नोटों पर लगाने की बात करके क्या बड़े स्तर पर अपनी एक नई छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि गुजरात विधानसभा चुनावों में भी उनका यह रूप बना रह सके। सच्चाई यह है कि केजरीवाल दाएं-बाएं जहां से भी वोट मिल सके उसकी कोशिश करते दिखाई दे हैं। वो कभी राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाते हैं, कभी पाकिस्तान की बात करते हैं, कभी धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो कभी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हैं। उनके इस रुख के बाद से भाजपा एक बार फिर से उन पर हमलावर हो गई है। भाजपा नेताओं का कहना है कि अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में एडवर्टिज़मेंट पॉलिसी चला रखी है। काम कम और ज़्यादा दिखावा हो रहा है। जबकि वो ठीकरा लक्ष्मी और गणेश पर फोड़ रहे हैं। सांसद मनोज तिवारी का कहना है कि हो सकता है एक दिन यह भी हो जाए, लेकिन उनपर कौन भरोसा कर सकता है। ऐसा लगता है कि जो चुनाव आ रहा है, केजरीवाल उसमें भी कुछ न कुछ साज़िशें करने की कोशिश करेंगे। वहीं केजरीवाल की इस मांग के बाद कांग्रेस ने एक बार फिर से उन पर भाजपा की बी टीम होने का आरोप लगाया है।

फिलहाल, यह तय है कि गुजरात विधानसभा चुनाव विकास के मुद्दे पर नहीं लड़े जाएंगे। धर्म, जाति, वर्ग व समुदाय से जुड़े वोट हासिल करना ही सभी का लक्ष्य होगा। केजरीवाल इस लड़ाई में दखल देकर लोकसभा चुनाव 2024 में अहम दावेदारी पेश कर सकते हैं, लेकिन उनकी ये रणनीति तभी कामयाब होगी, जब उन्हें हिंदुओं के वोट का एक हिस्सा गुजरात चुनाव में मिले। हालांकि, न मिलने पर उन्हें नुकसान नहीं है। ऐसा इसलिए कि वो जिस हथियार से भाजपा को मात देना चाहते हैं, उसके लिए अपनी तय रणनीति को सियासी धार देने में तो कामयाब हो ही जाएंगे। अरविंद केजरीवाल ने जो स्ट्रॉंग फिलिंग वाली राजनीति का दांव खेला है उसके मायने बहुत व्यापक हैं। चूंकि, वो राजनीति में खतरा मोल लेना जातने हैं, इसलिए वो इस बात को लेकर चिंतित भी नहीं हैं कि इसका अंजाम क्या होगा? चिंता तो उन लोगों को करने की जरूरत है, जो हिंदुत्व और अल्पसंख्यक की राजनीति का ढिंढोरा अभी तक पीटते आये हैं। फिलहाल, केजरीवाल ने अपनी चाल तो चल दी है। अब गेंद उनके विरोधियों के पाले में हैं।

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