8 सालों के शासन में उत्तरोत्तर अधिक कटु और आक्रामक हुए हैं PM मोदी, सेकुलर ताकतें जनता के बीच जाने की करें तैयारी
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डॉ. राजू पाण्डेय की टिप्पणी
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा मुख्यधारा के मीडिया की सुर्खियों में नहीं है, यह बात अफसोस से अधिक प्रसन्नता की है। इस यात्रा का उद्देश्य जितना पवित्र है एवं जिस प्रकार एकता और प्रेम का संदेश देते हुए यात्रा आगे बढ़ रही है, यह हिंसा और नफरत फैलाने वाले समाचार चैनलों की सुर्खी बन भी नहीं सकती। मुख्यधारा के मीडिया की उपेक्षा इस बात की तसदीक करती है कि राहुल सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
दशकों बाद देश का कोई शीर्षस्थ नेता सड़कों पर जनता से संवाद कर रहा है। उसके कदम जमीन पर हैं। धूप, बरसात और हवा उसके साथ साथ चल रहे हैं। राहुल को अनुभव हो रहा होगा कि लोग तो अपना प्यार लुटाने को तैयार बैठे हैं हम ही उनके बीच जाना नहीं चाहते, हिंदुस्तानियत को जीना नहीं चाहते।
राहुल हिंदी में बहुत प्रभावी ढंग से अपनी बात नहीं कह पाते, शायद वे बहुत अच्छे वक्ता भी नहीं हैं। हो सकता है कि तथ्यों और आंकड़ों को स्मरण रखने में भी वे कुछ पीछे हों, लेकिन उनकी सहजता और मासूमियत इन कमियों पर भारी पड़ रही हैं। उनकी मोहक निश्छल मुस्कान और हर किसी को स्नेह के बंधन में बांधने के लिए फैली उनकी बाँहें शब्दों के लिए बहुत कम स्थान छोड़ रही हैं। सबसे बड़ी बात जो व्यक्ति देश को जोड़ने निकला है, उससे नफरत कैसे की जा सकती है।
पिछले एक दशक से हम प्रायोजित जनसभाओं की डरा देने वाली भव्यता और कृत्रिमता का सामना करते रहे हैं। 2014 से पहले संकीर्ण और अनुदार छवि वाले नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार्य बनाने के लिए विदेशों में भारतीय समुदाय के जरिये अनेक लाइव शोज़ आयोजित किए गए थे। टीवी पर प्रसारित होने वाले असंख्य लाइव शोज़ की तरह इनमें आडंबर और कृत्रिमता को यथार्थ एवं वास्तविक दिखाने के लिए लंबी और खर्चीली कवायद की जाती थी।
स्वाभाविक ही था कि यह मीडिया निर्मित महानायक प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इसी रणनीति का आश्रय लेता। प्रधानमंत्री की अधिकांश जन सभाओं और साक्षात्कारों का स्वरूप टीवी और समाचार पत्रों के प्रायोजित कार्यक्रमों एवं समाचारों जैसा ही रहा है, यद्यपि अब जब पूरा मीडिया ही सत्ता और कॉरपोरेट द्वारा प्रायोजित हो गया है तो "विज्ञापन" अथवा "प्रायोजित कार्यक्रम" लिखने का चलन भी समाप्त हो गया है।
यदि प्रधानमंत्री के रूप में दोनों कार्यकालों के इन आठ वर्षों का विश्लेषण करें तो नरेंद्र मोदी उत्तरोत्तर अधिक कटु और आक्रामक हुए हैं। आम जनता और प्रेस से दूरी बनाने की उनकी प्रवृत्ति बढ़ी ही है। इस बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री इतने भयभीत क्यों हैं? क्या वे अपनी बौद्धिक क्षमता और ज्ञान की सीमाओं के उजागर होने के भय से चिंतित हैं? क्या वे जानते हैं कि जैसा उदार और महान उन्हें चित्रित किया गया है वस्तुतः वे वैसे हैं नहीं और जनता या प्रेस से सहज संवाद करने पर उनका वह वास्तविक स्वरूप सामने आ जाएगा जिसे इतने प्रयत्नपूर्वक छिपाया गया है?
क्या वे स्वीकारते हैं कि नफ़रत और बंटवारा इस देश का मूल स्वभाव नहीं है, इसीलिए वे भय खाते हैं कि जनता से निकटता कहीं उन्हें प्रेम और बंधुता के उस रंग में रंग न ले जो उन्हें नापसंद है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उन पर अगाध विश्वास करने वाली जनता पर खुद प्रधानमंत्री को भरोसा नहीं है? क्या उनके लिए चुनाव जीतना दिल जीतने से अधिक महत्वपूर्ण है? क्या वे केवल उन 37.36 प्रतिशत लोगों के प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने 2019 के चुनाव में उन्हें मत दिया था? क्या वे नहीं चाहते कि शेष 62.64 प्रतिशत लोगों के दुःख, शिकायतें और असहमति उनके कानों तक भी पहुंचें?
इस भारत जोड़ो यात्रा के बाद आम जनता को राहुल एकदम अपने जैसे लग रहे हैं, बिलकुल आम आदमी की तरह भूलें करने, उन्हें स्वीकारने और सुधारने वाले; एक ऐसा नेता जिसे जनता छू, देख और महसूस कर सकती है, एक ऐसा जनप्रतिनिधि जो उस जनता को ही अपना बैरी या विरोधी अथवा नादान नहीं समझता जिसकी सेवा करने के लिए वह सार्वजनिक जीवन में आया है। धीरे धीरे जनता महसूस कर रही है कि उसे एक अच्छे दिल वाला नेता चाहिए, भले ही वह राजनीतिक दांवपेंच में कमजोर हो।
चुनावों में हाल के वर्षों में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। पिछले कुछ सालों में कांग्रेस पार्टी का संगठन कमजोर हुआ है, कार्यकर्त्ताओं में बिखराव आया है, क्षत्रपों में असंतोष बढ़ा है। स्वाभाविक रूप से राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर भी सवाल उठे हैं। यह सवाल जायज भी हैं। बहुत सारे प्रेक्षक इस भारत जोड़ो यात्रा को कांग्रेस के पुनरुत्थान से जोड़ रहे हैं और इसे राहुल की नेतृत्व क्षमता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
इस प्रकार की अपेक्षा लगाना दो कारणों से गलत है। भारत जोड़ो यात्रा इस बात को सिद्ध करने निकली है कि अमन, भाईचारा और मोहब्बत इस मुल्क की असली तासीर है, इसे किसी व्यक्ति या पार्टी के मास्टर स्ट्रोक के रूप में प्रस्तुत करना इस उद्देश्य की विराटता के साथ न्याय नहीं करता। दूसरे जिन कारणों से कांग्रेस कमजोर हुई है, उनका निदान और समाधान इस यात्रा का अभीष्ट ही नहीं है तो उसके हासिल होने का सवाल ही नहीं उठता। यदि इस यात्रा के बाद कांग्रेस में राहुल का कद नहीं बढ़ता है या आगामी चुनावों में कांग्रेस अच्छा नहीं कर पाती है तो इसके आधार पर इस यात्रा को असफल मानना गलत होगा।
कट्टरपंथी शक्तियां अभी भारत जोड़ो यात्रा को लेकर असमंजस में हैं, लंबे अरसे बाद सेकुलर शक्तियों ने ऐसा कुछ नया और सकारात्मक किया है, जिसने इन कट्टरवादियों को सोचने पर मजबूर किया है कि अब वे क्या करें। अन्यथा कट्टरपंथी ताकतें अब तक पहल करने में आगे थीं और सेकुलर शक्तियां बस प्रतिक्रिया देती रह जाती थीं, किंतु जैसे ही इन कट्टरपंथी शक्तियों की दुविधा दूर होगी, वे इस यात्रा में विघ्न डालने और इसे बाधित करने की कोशिश करेंगी।
वे इस यात्रा के समर्थकों को भौतिक, बौद्धिक और भाषिक हिंसा के भंवर में धकेलने की चेष्टा करेंगी जो उनकी ताकत है। तब सरकार समर्थक मीडिया की खामोशी भी टूटेगी और वह अपनी धूर्तता के चरम पर होगा। विशेषकर भाजपा शासित राज्यों से गुजरते समय इस यात्रा को कट्टर हिंदुत्ववादियों के प्रतिरोध और आक्रमण का सामना करना पड़ सकता है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि राहुल और उनके साथियों की अग्नि परीक्षा अभी बाकी है।
राहुल कट्टर हिंदुत्ववादियों की कटु आलोचना करने की भूल करते रहे हैं। प्रेम, दया और क्षमा का संदेश देने वाले निरर्थक वाद विवाद में पड़कर अपनी ऊर्जा को नकारात्मक दिशा में नहीं ले जाते। मोहब्बत की जबान तर्कों और विवाद से एकदम परे है और इसे समझना भी बहुत आसान है। राहुल को बस एक ही भाषा बोलनी होगी -प्रेम की भाषा। प्रेम की भाषा शब्दों की भी मोहताज नहीं होती, बस आपको प्रेम के उस आदर्श को पूरी शिद्दत से जीना होता है।
यात्रा में जो संकेत छिपे हैं, उन्हें पहचानना और उनकी व्याख्या करना आवश्यक है। सोशल मीडिया की जहरीली आभासी दुनिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नफरत के संसार से बाहर निकल कर राहुल असली दुनिया में हैं, जहां अभी भी अधिकांश लोग मोहब्बत से रहना चाहते हैं, अमन चैन से जीना चाहते हैं।
जो कांग्रेस महात्मा गांधी के रास्ते से बहुत दूर चली गई थी वह कम से कम साधन के तौर पर उनकी विधि का उपयोग कर रही है और जैसा बापू की विधि का जादू है जनता इस यात्रा से भरपूर जुड़ रही है, लेकिन भारत जोड़ने का लक्ष्य यदि इस यात्रा के किसी भी बिंदु पर अपना उदात्त स्वरूप खो देता है और जल्द से जल्द सत्ता पाने जैसे किसी तात्कालिक और तुच्छ उद्देश्य में रिड्यूस हो जाता है तो यह सेकुलर शक्तियों के लिए बहुत नुकसानदेह होगा।
हम दलगत राजनीति और सत्ता की प्राप्ति को ही राजनीति मानने की भूल करते रहे हैं जिसमें कामयाबी का एक ही पैमाना होता है- चुनावों में विजय, लेकिन सच्चाई यह है कि जनपक्षधर राजनीति बिना चुनाव लड़े और जीते भी की जा सकती है और की जानी चाहिए। किसी समाज को शिक्षित करने में, किसी हिंसा पसंद विचारधारा के असामान्य उभार पर नियंत्रण हासिल करने में, अधिनायकवादी और निरंकुश राजसत्ता को जनोन्मुख और उत्तरदायी बनाने में दशकों लग जाते हैं, संघर्ष करते करते पूरा जीवन बीत जाता है। ऐसे संघर्षों का हासिल यही होता है कि हमने संघर्ष किया, हम चुप न बैठे, हमने इंसानियत को बचाने के लिए अपनी कुर्बानी दी।
यह आशा की जानी चाहिए कि कौमी एकता के सारे हिमायती और सभी अमनपसंद लोग- चाहे वे किसी भी क्षेत्र में हों - भारत जोड़ो यात्रा से प्रेरणा लेकर अपने मोहल्ले, ग्राम, कस्बे, शहर, प्रदेश और समूचे देश में शांति, एकजुटता और भाईचारे का संदेश देने के लिए सीधे आम लोगों के रूबरू होंगे।