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विमर्श

अमेरिका के 'ब्लैक लाइव्स मैटर' आंदोलन से ज्यादा उम्मीद मत पालिए!

Janjwar Desk
7 Jun 2020 6:30 AM GMT
New Psychology of Inequality : समाज और मीडिया रंगभेद और लैंगिक असमानता को कुछ हद तक मानता है वैध, शोध में हुआ खुलासा
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समाज और मीडिया रंगभेद और लैंगिक असमानता को कुछ हद तक मानता है वैध, शोध में हुआ खुलासा

बेहतर होता कि सड़क पर उतरे लोग गोरों को घुटनों पर बैठाने के बजाय अमेजन, ट्विटर, फेसबुक, टेस्ला जैसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों में जहां कि गोरों का प्रभुत्व है – वहां निश्चित प्रतिनिधित्व या आरक्षण की मांग करते....

वरिष्ठ पत्रकार विश्वदीपक का विश्लेषण

जनज्वार। बात 2012 की है। उस दौरान मैं जर्मनी में था। एक दोपहर मैंने तय किया कि मैं कालिदास को दुनिया भर में मशहूर करने वाले लेखक, अनुवाद ग्योथे का घर देखने जाऊंगा। ग्योथे हज़ार चीजों के लिए मशहूर जर्मनी के व्यावसायिक शहर फ्रैंकफुर्ट मैं पैदा हुए थे और उन्हे ही कालिदास को यूरोप की ज़मीन पर शेक्सपियर के बराबर खड़े करने का श्रेय दिया जाता है।

ग्योथे को लेकर उत्सुकता बचपन से थी क्योंकि बाबाजी ने बताया था कि ग्योथे को अभिज्ञानशांकुतलम बहुत पसंद था और शाकुंतलम मुझे भी पसंद है। तो जैसे ही मौका मिला मैं अपनी रशियन दोस्त डीना मार्टिनका के साथ जा ग्योथे का घर देखने फ्रैंकफुर्ट जा पहुंचा। डीना के साथ उसकी एक और दोस्त और एक लैटिन अमेरिकन भी था।

ग्योथे घर देखने के बाद हम लोगों ने तुर्की वाला फलाफलम खाया और तफरी मारने लगे। उसी दौरान मैंने देखा करीब 4000-5000 लोग टेंट लगाए हुए एक बड़ी सी चमकदार बिल्डिंग के सामने हाथ में पोस्टर-बैनर थामे बैठे हुए हैं। नजदीक जाकर जब मैंने बात की तो पता चला कि वो लोग "ऑक्युपाई फ्रैंकफर्क" मूवमेंट चला रहे हैं, जो उस दौरान अमेरिका में चल रहे "ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट" मूवमेंट की तर्ज पर शुरू किया गया था। इसका मकसद था, उस चमकदार विशाल बिल्डिंग जो दरअसल यूरोपियन सेंट्रल बैंक की बिल्डिग थी, पर कब्जा करना।

उस दिन मुझे समझ में आया कि अमेरिका का अनुगमन सिर्फ भारत और तीसरी दुनिया के देश ही नहीं, बल्कि अमेरिकी सभ्यता का केन्द्र बिंदु जिस यूरोप में है, वहां के देश भी करते हैं।

मतलब अमेरिका जो खाता है, पहनता है, सोचता है उसका पेरिस, बर्लिन, फ्रैंकफुर्ट वियना, रोम अनुगमन करते हैं। भारत जैसे आत्म विस्मृत देश जहां सभ्यतागत ग्लानिभाव है, उसकी क्या बात की जाए।

बहरहाल, "ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट" का जिक्र करने का मतलब बस यह याद दिलाना है कि सोशल मीडिया के ज़माने में आंदोलनों की उम्र भी कुछ दिनों से ज्यादा की नहीं होती।

आज जैसे "ब्लैक लाइव्स मैटर" मूवमेंट चल रहा है, वैसे ही, उतने ही जोश-ओ-खरोश के साथ "ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट" मूवमेंट 2011-12 में अमेरिका से ही शुरू हुआ था। इसे 99 प्रतिशत बनाम एक प्रतिशत आंदोलन का भी नाम दिया गया था। इसका मकसद आर्थिक असमानता के खिलाफ बगावत करके बैंक, स्कूल, कॉलेज, कारपोरेट हाउस आदि पर कब्जा करके उसे जनता के हवाले करना था।

"ब्लैक लाइव्स मैटर" मूवमेंट की तरह ही इस आंदोलन ने भी दुनिया को हिला दिया था। पर बड़ा सवाल यह है कि न्यूयॉर्क से शुरू हुए "ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट" मूवमेंट और इसके समरूपी "फ्रैंकफर्ट मूवमेंट" ने अगर दुनिया को हिला दिया था तो फिर यह दुनिया आज भी वैसी ही क्यों है?

सवाल यह भी है कि "ब्लैक लाइव्स मैटर" को लेकर भारत में पैदा दिलचस्पी खासतौर से सोशल मीडिया के अनऑर्गेनिक किस्म के बौद्धिकों के बीच की उमंग क्या कुछ ठोस आकार ले पाएगी?

इसका जवाब हम आगे देंगे, लेकिन फिलहाल कुछ बातें इतिहास की।

अगर याद न हो तो याद दिलाना चाहूंगा कि पिछले एक दशक में हमारी आंखों ने कई बड़े आंदोलन देखे हैं। इनमें ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट, अरब स्प्रिंग, तहरीर स्क्वॉयर आंदोलन, भारत का अन्ना आंदोलन, नेपाल में राजशाही की समाप्ति का आंदोलन, बर्मा में आंग सान सू की का आंदोलन, नॉर्थ ईस्ट में इरोम शर्मिला का आंदोलन और मॉस्को का नरीवादी आंदोलन पुसी रॉयट (मुझे याद है मशहूर अमेरिकी गायिका मडोना ने पुसी रॉयटका समर्थन किया था) जैसे खास हैं। इस श्रृंखला में बहुत से नाम भी जोड़े जा सकते हैं।

इन आंदोलन की उपलब्धियों और उनके हासिल पर अलग से थिसिस लिखी जा सकती है। हर आंदोलन ने दुनिया और समाज को पहले के मुकाबले बदला भी है। लेकिन एक बात तो मोटे तौर पर हरेक के बारे में कही जा सकती है - और मार्क्सवादी शब्दावली में कही जाय तो वो बात यह है कि इन सारे आंदोलनों से जो ऊर्जा निसृत हुई, जो स्थान बना, उसका लाभ प्रतिक्रांतिकारी तत्वों ने उठाया। या इस आंदोलनों के नायक आखिर में उसी गटर (व्यवस्था) में जाकर गिरे, जिसके खिलाफ वो आंदोलन चला रहे थे।

एक मिनट के लिए ट्यूनिशिया से शुरु हुए अरब स्प्रिंग को माफ भी कर दिया जाए (क्योंकि मध्य एशिया की विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक वजहों से इसके प्रतिगामी तत्वों के हाथ में जाने की प्राबल्यता सबसे ज्यादा थी) तो बाकी आंदोलनों का हश्र कुछ अलग नहीं हुआ। आखिर क्यों?

मैं निराशावादी बिल्कुल नहीं हूं, पर वस्तुगत विश्लेषण होना चाहिए। मैंने भी अन्ना आंदोलन के दौरान अपील की थी कि इंडिया गेट को तहरीर चौक बना देना चाहिए। मैं आज भी सृजनशील अराजकता का समर्थन करता हूं, लेकिन भाववादी होना कम से कम एक आंदोलन से उम्मीद पालने के मामले में खतरनाक साबित हो सकता है।

"ब्लैक लाइव्स मैटर" मूवमेंट को लेकर भारत में जो उत्साह दिखाई पड़ता है, वह भाववादी ज्यादा, यथार्थपरक और वस्तुगत कम है। सबसे पहले तो यह समझना चाहिए कि "ब्लैक लाइव्स मैटर" लाइव्स मैटर में आंदोलन के तत्व नहीं है। यह अपने स्वरूप में मुझे फौरी प्रतिक्रिया जैसा लगता है क्योंकि -

· न आंदोलन के पीछे कोई तैयारी है

· न किसी संगठन की मेहनत या रणनीति है

· न कोई नेतृत्व है, न ही कोई स्पष्ट मांग है

सिर्फ यह कहना कि "हमारी जिंदगी मायने रखती है" या कि "हमें इस व्यवस्था में घुटन हो रही है" और इस आधार पर किसी बदलाव की उम्मीद करना – भाववाद का चरम है।

मेरे हिसाब से बेहतर होता अगर इस आंदोलन से जुड़े लोग और उससे प्रेरणा लेने वाले भारतवासी कुछ स्पष्ट और ठोस मांगें सामने रखते। जैसे अगर मेरी मानी जाए तो मैं कहूंगा कि इस तरह के भाववादी मुहावरों के बजाय जॉर्ज फ्लॉयड को सामने रखकर अमेरिकी लोग ये मांग रखते कि उन्हें पुलिस, सेना, न्यायपालिक और विधायिका में आरक्षण चाहिए। या कि ट्रंप को इस्तीफा देना चाहिए। यह मांग भी असरकारी होती कि कालों को मारने वाले पुसिलवालों या फिर उनसे पक्षपात करने वालों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई हो और इसकी सुनवाई काले जजों की अदालत में हो।

सबसे बेहतर होता कि सड़क पर उतरे लोग गोरों को घुटनों पर बैठाने के बजाय अमेजन, ट्विटर, फेसबुक, टेस्ला जैसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों में जहां कि गोरों का प्रभुत्व है – वहां निश्चित प्रतिनिधित्व या आरक्षण की मांग करते।

मानता हूं कि घुटनों पर बैठना पश्चाताप को दर्शाता है, लेकिन इसी को सच मानना संकेतवाद में फंसना ही है। यह वैसा ही है जैसे भारत में प्रधानमंत्री मोदी चुनाव के समय दलितों के पैर धो लेते हैं, लेकिन फिर पांच साल तक उनकी तरफ घूमकर नहीं देखते। क्या पैर धोने से दलितों की स्थिति में कोई बदलाव आता है? जवाब आप सबको पता है।

हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इस आंदोलन के दवाब से अमेरिकी समाज में नस्लभेद के खिलाफ एक नई बहस उठ खड़ी हुई है, लेकिन इस आंदोलन का परिणाम कितना ठोस होगा – कहना मुश्किल है। मैं शंसयग्रस्त इसलिए हूं क्योंकि ये आंदोलन अमेरिकी राज्य या कह सकते हैं कि अमेरिका जिस सोच का नाम है उसके चार प्रमुख स्तंभों पर कोई सवाल नहीं उठाता। ये चार प्रमुख आयाम हैं –

· साम्राज्यवाद या कारपोरेट साम्राज्यवाद

· उपभोक्तवाद

· सैन्य राष्ट्रवाद

· इस्लाम के प्रति वैमनस्यता

ये चार वो अहम बिंदु हैं, जिन पर सवाल उठाए बिना अमेरिकी समाज से – चाहे गोरे हों या काले - ज्यादा उम्मीद पालना निराशाजनक ही साबित होगा।

यह सोचना बचकाना है कि ओबामा होते तो यूं होता, ओबामा होते ये होता। ओबामा होते तो बस इतना ही होता कि स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती या ट्रंप जैसे हास्यास्पद बयान नहीं देते या कि बंकर में नहीं छुपते।

कम लोगों को मालूम है कि "ब्लैक लाइव्स मैटर" मूवमेंट की सुगबुगाहट ओबामा के वक्त से ही शुरू हो गई थी। 2013 में ऑलिसिया गार्जा, पैट्रिस कूलोर, ओपॉल टोमेटी ने इसकी शुरुआत की थी। तब से लेकर आजतक ये आंदोलन ढीले-ढाले तरीके से चलता आ रहा है। हालांकि इस बार इसमें तीव्रता और आक्रामकता ज्यादा है, इसमें गोरों की भागीदारी भी ज्यादा है और अंतरराष्ट्रीय फलक पर इसकी चर्चा भी है, लेकिन यह कोई ठोस शक्ल ले पाएगा। यह सवालों के घेरे में है।

बाकी जो अमेरिकी और भारतीय ओबामा को ज्यादा याद कर रहे हैं, उन्हें अमेरिकी स्कॉलर और वामपंथी कॉरनेल वेस्ट का ये कथन ज़रूर पढ़ना चाहिए, "ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट एक काले राष्ट्रपति (ओबामा), एक काले एटॉर्नी जनरल (एरिक होल्डर) और ब्लैक होमलैंड सिक्योरिटी (जे जॉनसन) के दौरान शुरू हुआ और ये तीनों कुछ नहीं कर पाए।" क्योंकि कॉरनेल वेस्ट जो खुद काले समुदाय के आते हैं, के मुताबिक "ऊंचे पदों पर पहुंचने वाले काले लोगों को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और सैन्य राष्ट्र-राज्य के आगे हार माननी पड़ती है।"

"ब्लैक लाइव्स मैटर" आंदोलन क्या पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और सैन्य राष्ट्र-राज्य को घुटनों पर बैठा पाएगा, देखना होगा। क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसका अंत भी "ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट" जैसा ही होगा।

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