कॉमरेड चितरंजन सिंह: बिखरे हुए द्वीपों को जोड़ने वाले एक सहज, निर्मल और अविरल गार्जियन का अवसान
वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का साप्ताहिक कॉलम 'कातते-बीनते'
कोई दसेक साल पुरानी बात होगी। मैं हफ्ते भर के लिए बनारस गया हुआ था किसी काम से। रिहाइश काशी पत्रकार संघ के कमरे में थी। शायद तीसरी सुबह थी वो। मैं रोज़ की तरह नहा धोकर नीचे उतरा। देखा, बाहर गली में बहुत भीड़ लगी हुई थी। जन मित्र न्यास का बैनर दिखा। भीतर पराड़कर भवन के सभागार में झांका। हॉल खचाखच भरा पड़ा था। मैं सकुचाते हुए भीतर घुसा। कोई दो सौ से ज्यादा ग्रामीण जनता दरी पर बैठी हुई थी। मंच की ओर देखा तो पहली ही नज़र अध्यक्षीय कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से लड़ गयी। मैं कुछ करता या कहता, उससे पहले ही अध्यक्ष ने माइक उठाकर बीच में मेरे नाम की घोषणा कर दी। अचानक हुए इस हमले से मैं सकपका गया था।
चितरंजन सिंह ऐसे ही थे। इतने सहज, इतने अनौपचारिक। जिस सभा में मैं भीड़ देखकर केवल जायज़ा लेने घुसा था, वहां चितरंजन जी ने मेरा भाषण करवा दिया। मैं उनसे कहता रहा कि मैं तो बस संजोग से बनारस में हूं। उन्होंने डपटकर कहा, 'तो क्या हुआ? आए हो तो दो बात रखो। कोई नेवता थोड़े है।' कार्यक्रम के बाद उन्होंने पूछा, 'मिठाई खाए?' मैंने हां में सिर हिलाया। चितरंजन जी का यह गार्जियन वाला भाव ही आज उनकी मौत पर सबको बेबस किए हुए है। पचास के लपेटे में चल रहे कार्यकर्ताओं की वह पीढ़ी जिसे वे राजनीति और एक्टिविज्म में लेकर आये थे; थोड़ा बाद वाली हमारी पीढ़ी जो बीस साल से उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष गार्जियनशिप में थी; सबको यही लग रहा है कि एक गार्जियन का साया सिर से उठ गया।
कल सुबह जो पहला फोन आया, तो मोबाइल की स्क्रीन पर बलिया वाले बलवंत जी का नाम देखकर एक बार को दिल धक् से रह गया कि कहीं...! फिर उनसे काफी देर तक चितरंजन जी के बारे में बात होती रही। राजीव यादव भी दो दिन पहले ही चितरंजन जी को देखने बलिया पहुंचे थे। उनसे भी बात हुई। कुछ और लोगों से दिन में बात हुई। सबके स्वर में एक ही निष्कर्ष दिखा कि अब चलाचली की बेला है। मेरा भी दिमाग दिन भर की बातचीत के बाद किसी बुरी ख़बर के लिए गोया तैयार हो चुका था। फिर शाम को बलवंत जी का निर्णायक फोन आ ही गया।
आंदोलनों के 'ओल्ड स्कूल' और अपने चितरंजन भाई
अब अगले कुछ दिनों तक लोग अपने चितरंजन भाई को अलग-अलग पहलुओं से याद करेंगे। अफ़सोस बस दो चीज़ों का है। पहला, कि जब वे जमशेदपुर में तीन साल तक बिस्तर पकड़े हुए थे, तब उन्हें याद करने वालों की संख्या थोड़ा कम थी और ऐसे लोग अदृश्य थे। अब, जब चितरंजन जी नहीं हैं, तो उन्हें याद करने वालों की निशानदेही कितना आसान हो चली है। लगभग दो जगत हैं आभासी और वास्तविक, जिनके बीच का फ़र्क बिलकुल ज़ाहिर हो चुका है। ट्विटर पर उनकी मौत कोई ख़बर नहीं है, लेकिन मध्यवर्गीय जनता के मोहल्लानुमा फेसबुक और अन्य मंचों पर वे लगातार याद किये जा रहे हैं। ट्विटर पर मौजूद नये दौर के सेलेब्रिटी आन्दोलनकारी जो महज एक एफआइआर के बाद ब्लू टिक धारी बन जाते हैं, वहां चितरंजन सिंह नहीं के बराबर हैं। वे वहां हैं, जहां भाषायी जनता है, कथित हिंदी पट्टी है और इस पट्टी के भाषायी आन्दोलन हैं। यह एक बड़ा डिसकनेक्ट है, जो दूसरे अफ़सोस के रूप में खुद को ज़ाहिर करता है।
इसीलिए मैं उनके जैसे लोगों के लिए 'ओल्ड स्कूल' का प्रयोग करता हूं। वे खुद ट्विटर पर नहीं थे। फेसबुक पर भी सक्रिय नहीं थे। हां, ज़मीन पर बेशक थे, जहां मुकदमा होना लोकप्रियता का तमगा नहीं माना जाता। महज पांचेक साल पहले तक चितरंजन जी के तलुए में चक्र बना हुआ था। कहीं कोई घटना हुई नहीं कि वे झोला लेकर तैयार। उनकी पहलों ने न जाने कितने परिवारों को उजड़ने से बचाया, कितने लोगों का एनकाउंटर होने से रोका, कितने गरीबों को इंसाफ़ दिलवाया। कैसे? एक 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' के रामाधीर सिंह थे जो सिनेमा नहीं देखते थे, इसलिए अंत तक बचे रह गये! दूसरे चितरंजन सिंह थे, जो ट्विटर पर दुनिया नहीं बदलते थे, इसलिए ज़मीन पर टिके रह गये! साठ-पैंसठ की उम्र में जिनकी सक्रियता देखकर नौजवान शरमाते फिरते थे। कहां से आती थी इतनी प्रेरणा? और कहां चली गयी अचानक?
उन्हें जानने वालों के पास बहुत कुछ है कहने के लिए। लोग लिख ही रहे हैं, और लिखेंगे। मेरे लिए केवल एक चीज़ है जो चितरंजन जी को खास और अपने किस्म का बनाती है। उनकी चौतरफा और सहज स्वीकार्यता। यह खूबी ओल्ड स्कूल के लोगों में पर्याप्त पायी जाती थी। यह पीढ़ी अब ख़त्म हो रही है। इस मामले में चितरंजन सिंह उस कतार में आते हैं जिसमें सुरेन्द्र मोहन, जस्टिस सच्चर या कुलदीप नैयर खड़े हैं। वे सब इनसे पहले निकल लिए। इस कतार में चितरंजन जी ऐसे शख्स हैं जिनके जाने के बाद आन्दोलन की पुरानी और नयी दुनिया का फ़र्क एकदम से सतह पर आता दिख रहा है। दुनिया कितना बदल गयी बीते दिनों में, लेकिन जनता के चितरंजन भाई वैसे के वैसे ही रहे। इस बदलाव की शिनाख्त बहुत ज़रूरी है, ताकि हम समझ सकें कि कभी-कभार दुनिया के रीति-रिवाज़ों के साथ नहीं चलना ही आपको विस्तार देता है, उड़ान देता है। इसके उलट जो दुनिया से हमकदम होते हैं, वे शायद और संकुचित होते जाते हैं।
इस भवसागर में अपने-अपने निजी द्वीप बनाकर जी रहे लोगों के बीच चितरंजन जी पानी की तरह सहज, निर्मल और अविरल थे जो सबको जोड़ते थे। हमारे दौर की सबसे बड़ी समस्या चीज़ों को बाइनरी यानी दुई में देखने की है। 'यह' या तो 'वह'। हम उसी तरह अपने कल्पित दुश्मन बनाते हैं जैसे सत्ताएं। बस फ़र्क इतना है कि सत्ताएं कल्पित दुश्मनों को गढ़ती हैं, हम उन गढ़े हुओं में से अपने लिए दुश्मन छांट लेते हैं। पैमाने ज़ाहिर तौर से वैचारिक ही होते होंगे। पाला खींचते वक़्त वैचारिक आग्रह या दुराग्रह अक्षत् जैसा पवित्र काम करता है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब चितरंजन जी इंडियन सोशल एक्शन फोरम (इंसाफ) के महासचिव चुने गए, उस वक़्त भाकपा (माले- लिबरेशन) और दूसरे वाम संगठनों में उनके बारे में कैसी बातें होती थीं गोकि वे आजीवन पार्टी के सदस्य बने रहे। वे एआइपीएफ के प्रदेश अध्यक्ष भी थे और अस्सी के दशक में बने आइपीएफ के संस्थापकों में रहे। इसके अलावा पीयूसीएल से उनका आजीवन जुड़ाव सब जानते हैं। यानी वे हर जगह सामान अधिकार से मौजूद थे और हर एक द्वीप के बीच एक सेतु का काम कर रहे थे। इस कोटि के लोग बांधने वाले होते हैं। जोड़ने वाले होते हैं, बांटने वाले नहीं। दुनिया चाहे कितने ही खांचों में बंट जाये तो क्या!
इतने सारे मंचों में एक साथ सक्रिय रहना और उसके बावजूद वन मैन आर्मी की तरह हर जगह, हर वक़्त दिखना उन्हीं के वश में था। चितरंजन जी की यही क्षमता उन्हें नागरिक समाज, वामपंथी आंदोलनों और हक-हकूक से जुड़े ज़मीनी संघर्षों को आपस में जोड़ने वाला एक सेतु बनाती थी। चाहे भूटान के लोत्संपा लोगों का संघर्ष हो या फिर ओडिशा के आदिवासियों की लड़ाई और मानवाधिकार के स्थानीय मसले, वे हर जगह बराबर अधिकार से मौजूद रहे। यह एक वृहद भूमिका थी एक अदद व्यक्ति की, जो समय के साथ अपने आप में एक संस्थान के तौर पर विकसित होता गया था। उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक अखाड़े के तमाम योद्धाओं को आपस में जोड़ने का जो महीन काम किया, लोगों के अनुभव उसकी गवाही देंगे।
जिन्होंने बीते डेढ़ दशक के दौरान चितरंजन जी की सिविल सोसाइटी संगठनों के साथ सक्रियता के बहाने उनके ऊपर सुविधापसंद हो जाने से लेकर तमाम अनाप-शनाप टिप्पणियां की थीं, वही लोग आरएसएस प्रायोजित अन्ना आंदोलन के मंच के इर्द-गिर्द मचलते बरामद हुए। जैसे-जैसे भाकपा (माले- लिबरेशन) लोकप्रिय आंदोलनों और एलीटिज्म की चपेट में आकर बीमार होती गयी, वैसे-वैसे चितरंजन जी ज़मीनी आंदोलनों का रुख़ करते गये। उनका सादापन वैसा ही बना रहा, जैसा हमेशा से था। बलवंत भाई का सुनाया एक अनुभव इस मामले में आंदोलनकारियों के लिए नज़ीर होगा कि कैसे अपने सामाजिक संबंधों को निभाते हुए अपनी गरिमा से कोई समझौता न किया जाए।
बलिया ज़िला मुख्यालय पर एक मौत को लेकर धरना चल रहा था। चितरंजन जी उस धरने के नेता थे। पास में ही सरकारी अतिथि गृह में तत्कालीन सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ठहरे हुए थे। चंद्रशेखर को जब खबर लगी कि चितरंजन सिंह धरने पर हैं, तो उन्होंने उन्हें तत्काल बुलवा भेजा। चितरंजन जी ने दो टूक कह दिया कि वे अभी धरने पर हैं, दो घंटे बाद मिलने आएंगे। यह सुनकर चंद्रशेखर खुद धरनास्थल पर पहुंच गए। वहां ज्ञापन आदि देने का काम हुआ, फिर चंद्रशेखर ने चितरंजन जी से गाड़ी में साथ बैठ कर चलने को कहा। उन्होंने साथ जाने से मना कर दिया। बलवंत भाई बताते हैं कि इस घटना ने लोगों की धारणा को पुष्ट करने का काम किया कि चितरंजन सिंह अपने संबंधों के बावजूद बुनियादी रूप से जनता के आदमी हैं।
अन्ना आंदोलन के दिन और चितरंजन सिंह
आज के दौर में ऐसे उदाहरण विरल हैं। सांसद के बुलाने पर मिलने से इंकार करना तो दूर, लोकप्रियता का आग्रह आंदोलनों में इतना ज़्यादा हो गया है कि वे अपने मंच पर ही सांसद-विधायक को बुलाकर बैठा लेते हैं। चितरंजन जी इस लोकप्रियता के चक्कर में पड़ चुकी अपनी पार्टी के सामने लहराते वैचारिक खतरे को बखूबी समझ रहे थे। ये बात 2011 में अन्ना आंदोलन के दौरान की है जब दिल्ली की फिज़ा गरम थी। मैंने समकालीन तीसरी दुनिया में एक लंबा लेख लिखा था जिसका शीर्षक था, 'संदेह के महान क्षण में'। पत्रिका वितरण के लिए गये दस दिन से ज़्यादा हो चुके थे। एक दिन अचानक मोबाइल पर चितरंजन जी का नाम चमका। मैंने फोन उठाया। अपने परिचित अंदाज़ में वे बोले, 'और अबसेक, कैसे हो?' मैंने नमस्ते प्रणाम किया, तो कहने लगे कि उन्होंने तीसरी दुनिया वाला लेख पढ़ कर कॉल किया है कि भ्रष्टाचार विरोधी जो आंदोलन दिल्ली में चल रहा है, उसको सतर्कता और संदेह के साथ बरते जाने की मेरी सलाह से वे मुतमईन हैं। मैंने तभी उनसे पूछा था कि माले तो बहुत उत्साहित दिख रही है इस आंदोलन को लेकर, क्या चक्कर है। उन्होंने एक बात कही थी जो आज तक हूबहू याद है। वे बोले, 'देखो, तुम दूर से देख रहे हो तो साफ देख पा रहे हो। जो सड़क पर है, उसे फुर्सत कहां कि ठहर के सोच सके, मूल्यांकन कर सके। जितनी जल्दी समझ आ जाए अच्छा होगा!'
'और, अम्मा ठीक हैं?' हमेशा की तरह यह आखिरी सवाल पूछ कर उन्होंने फोन रख दिया था। यह सवाल पिछली बार उन्होंने जब पूछा, तब वे जमशेदपुर में थे और मैं बलिया वाले श्रीप्रकाश जी और नवीन के साथ इंदौर में था। यह पिछले साल की ही बात है। नवीन पर उनका बहुत स्नेह था। श्रीप्रकाश जी थोड़ा दार्शनिक अंदाज़ में चितरंजन जी का मूल्यांकन करते हुए एक राजा कि कहानी सुनाते हैं जिसने अपना सब कुछ दान कर दिया था और अंत में जिसके पास खाने को थोड़ा भात बचा था। वह भात खाने जा रहा था कि दरवाजे पर कोई भूखा आ गया। उसे राजा ने सब दे दिया। राजा के कटोरे में बस एक दाना बच रहा था चावल का। राजा उसे खाने जा ही रहा था कि दरवाजे पर कोई साधु आ गया। राजा ने सोचा, सब दे ही दिया है तो ये आखिरी दाना बचा कर क्या करना। उसने वो भी दे दिया।
'बस इसी एंड प्वाइंट पर गलती हो गई!' श्रीप्रकाश जी ऐसा कहते हुए आकलन करते हैं कि शायद चितरंजन जी की फितरत भी ऐसी ही रही होगी। यह फितरत हालांकि चितरंजन जी के 96 वर्षीय चाचा की बात से पुष्ट होती है जो गुरुवार को उनसे मिलने गये थे। परिवार वालों का चितरंजन जी के प्रति क्या नजरिया था, राजीव यादव के यह पूछने पर उनके चाचा ने कहा था कि चितरंजन जी से तो आज तक किसी को कोई दिक्कत ही नहीं हुई। वास्तव में उनके संपर्क, उनकी सामाजिकता, वृहद परिवार के लिए हमेशा राहत की तरह ही काम आयी। हां, दूसरों से चितरंजन जी को भले ही दिक्कतें मिलीं।
आइपीएफ की स्थापना से लेकर पार्टी के ओवरग्राउंड होने तक और अब चितरंजन जी के देहांत तक बीते चार दशक में गंगा और वोल्गा दोनों में बहुत पानी बह चुका है। अख़बारों के लिए चितरंजन सिंह एक मानवाधिकारवादी और वामपंथी विचारक हो गये हैं। एक एजेंसी की खबर ने उन्हें स्वतंत्र पत्रकार लिखा। किसी ने उन्हें मानवाधिकारवादी चिंतक लिखा है तो किसी और अख़बार ने नागरिक अधिकार कार्यकर्ता। गांव के लोग उन्हें दिल्ली और लखनऊ का बड़ा नेता मानते हैं। पीयूसीएल से लेकर माले, एआइपीएफ, इंसाफ तक उनकी एकाधिक पहचान है। कहने का मतलब कि इस बीच चितरंजन जी लगातार फैले ही हैं, सिमटे नहीं। उनके पर्यायों में वृद्धि ही हुई है।
दूसरी तरफ एक चुनावी पार्टी है माले-लिबरेशन, जो उनकी बुनियादी पहचान थी। आज वह पार्टी चीन के हाथों मारे गये बीस सैनिकों की शहादत को श्रद्धांजलि देते हुए लाल सलाम के नारे लगा रही है, विज्ञप्ति जारी कर रही है। वर्ग संघर्ष की विचारधारा सिमट कर अब पार्टी के अस्तित्व के संघर्ष तक आ चुकी है जहां परोक्ष रूप से सैन्य-राष्ट्रवाद को शीर्ष से हवा दी जा रही है। इस वैचारिक पतन के संकेत तो पिछले साल ही मिल गये थे जब पार्टी के एक फोरम द्वारा लोकसभा चुनाव के लिए जारी किये गये कथित 'जनता के घोषणापत्र' में कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताया गया था!
कल जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में माले-लिबरेशन ने अपने दिवंगत नेता के पार्थिव शरीर को पार्टी का लाल झंडा ओढ़ाने की घोषणा की है। मैं सोच रहा हूं कि पार्टी का झंडा चितरंजन सिंह के व्यापक सामाजिक और राजनीतिक व्यक्तित्व को पूरा-पूरा ढंक पाने में क्या छोटा नहीं पड़ जाएगा? पिछले हफ्ते बीस शहीद जवानों को दी गयी श्रद्धांजलि और आज चितरंजन जी को दी जाने वाली श्रद्धांजलि के बीच कोई फर्क है भी या नहीं? या सब धान अब बाईस पसेरी तौला जाएगा?