पूरी दुनिया में कोरोना के टीके पर विमर्श, हमारे देश में महामारी के इलाज में काढ़े और गोबर के लेप का प्रचार
कोरोना काल में गोमूत्र और गोबर का खूब किया था जनता ने इस्तेमाल
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। जापान को अब तक विज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे माना जाता रहा है, पर अब इसपर राजनीति हावी होने लगी है। वहां नए प्रधानमंत्री योशिहिदा सुगा अब साइंटिफिक काउंसिल ऑफ़ जापान की नियुक्तियों में रोड़ा बन रहे हैं।
जापान के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है जब प्रधानमंत्री बिना कारण बताये या बिना किसी स्पष्टीकरण के काउंसिल के गवर्निंग बॉडी के लिए अनुमोदित वैज्ञानिकों के नामों को स्वीकृत नहीं कर रहे हैं। यह काउंसिल जापान में विज्ञान सम्बंधित नीति निर्धारण, वैज्ञानिक शिक्षा और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की शीर्ष संस्था है और देश-विदेश के लगभग 8 लाख वैज्ञानिक और शोधार्थी इसके सदस्य हैं।
साइंटिफिक काउंसिल ऑफ़ जापान के नीतिगत निर्णय का अधिकार जनरल असेंबली के पास है, जिसके 210 सदस्य हैं और इनकी नियुक्ति 6 वर्ष के लिए की जाती है। हालां कि इन नियुक्तियों पर अंतिम हस्ताक्षर प्रधानमंत्री के होते हैं, पर अबतक किसी भी प्रधानमंत्री ने काउंसिल के किसी भी निर्णय से असहमति नहीं जताई थी।
हाल में ही जनरल असेंबली में नियुक्ति के लिए 105 वैज्ञानिकों, कानूनी विशेषज्ञों और समाज शास्त्रियों के नाम प्रधानमंत्री को हस्ताक्षर के लिए भेजे गए थे, पर प्रधानमंत्री सुगा ने इनमें से 6 नामों को बिना किसी स्पष्टीकरण दिए अस्वीकृत कर दिया। काउंसिल के अधिकतर सदस्य प्रधानमंत्री के इस कदम को गैरकानूनी, असवैधानिक करार देते हैं और साथ की इसे जापान के वैज्ञानिक माहौल पर सरकारी हस्तक्षेप मानते हैं।
प्रधानमंत्री सुगा ने जिन 6 नामों को अस्वीकृत किया है, उसके पीछे राजनीतिक कारण और बदले की भावना है। दरअसल पिछले सरकार में सुगा चीफ कैबिनेट सेक्रेटरी के पद पर थे, और नए कानूनों को स्वीकृत करने का काम उनके पास थे। उस दौर में इन 6 वैज्ञानिकों और क़ानून विशेषज्ञों ने अनेक कानूनों का खुलकर विरोध किया था। अब जब सुगा प्रधानमंत्री के पद पर हैं, तब उन्हें इस विरोध का बदला लेने का अवसर मिला, और उनके नामों को अस्वीकृत कर दिया।
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मेक्सिकों में इन दिनों अधिकतर वैज्ञानिक संस्थानों के वैज्ञानिक और कर्मचारी प्रदर्शन या हड़ताल कर रहे हैं। ये सभी वैज्ञानिक हाल में ही पारित एक ऐसे क़ानून का विरोध कर रहे हैं, जिसके तहत लगभग 109 वैज्ञानिक संस्थानों, अनुसंधान केन्द्रों या फिर सामाजिक संस्थानों को सरकार द्वारा मिलाने वाली वित्तीय सहायता को कोविड 19 के दौर में अर्थव्यवस्था पर पड़े बोझ का हवाला देकर रोक दिया गया है।
सरकार के इस कदम से मेक्सिको में लगभग सभी वैज्ञानिक अनुसंधान के कार्य रुक गए हैं। माना जा रहा है कि पिछले 50 वर्षों के दौरान मेक्सिको में वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास को ऐसी चोट किसी सरकार ने नहीं दी थी।
फ्रांस में पिछले 109 वर्षों से लगातार प्रकाशित होने वाली लोकप्रिय वैज्ञानिक पत्रिका 'साइंस एंड वी' के मुख्य सम्पादक, हेर्वे पोइरिएर, ने हाल में ही इस्तीफ़ा दिया है और इसके अधिकतर लेखक और पूरा सम्पादक मंडल इन दिनों हड़ताल पर हैं। इनका आरोप है कि पिछले कुछ महीनों से इस पत्रिका की वेबसाइट पर बिना सम्पादक मंडल की अनुमति के ही कॉर्पोरेट घरानों के लेख प्रकाशित किये जा रहे हैं। इन लेखों में विज्ञान के तथ्यों को नकारा जाता है, या फिर तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है।
हेर्वे पोइरिएर के अनुसार मीडिया घराने के प्रबंधकों की यह साजिश विज्ञान के साथ ही सम्पादक मंडल का भी अपमान है। इस पत्रिका की लोकप्रियता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वैज्ञानिक पत्रिका होने के बाद भी हरेक महीने इस पत्रिका की लगभग 2,50,000 प्रतियां बिकती हैं। कुछ महीने पहले ही इस पत्रिका को फ्रांस के सबसे बड़े मीडिया घराने, रीवर्ल्ड मीडिया ग्रुप ने खरीदा है और तब से इस वैज्ञानिक पत्रिका की समस्याएं शुरू हो गईं हैं।
सम्पादक मंडल के अनुसार यह मीडिया समूह कॉर्पोरेट घरानों के हितों को ध्यान में रखकर काम करना चाहते है और विज्ञान को तोड़-मरोड़ कर उनके हितों के लेख प्रकाशित करना चाहता है। इस पत्रिका में दुनियाभर के शीर्ष वैज्ञानिक सामान्य जन के लिए लेख लिखते हैं, पर अब इसमें बिलकुल अवैज्ञानिक लेख प्रकाशित किये जा रहे हैं।
अमेरिका की संस्था यूनियन ऑफ़ कंसर्नड साइंटिस्ट्स के अनुसार राष्ट्रपति ट्रम्प अगस्त 2020 तक विज्ञान से सम्बंधित 150 से अधिक झूठ बोल चुके हैं। इसके अतिरिक्त वे वैज्ञानिकों पर भाषणों में हमले करते हैं, वैज्ञानिक अध्ययनों को हतोत्साहित करते हैं, वैज्ञानिक तथ्यों की खुलेआम खिल्ली उड़ाते हैं और अपनी मर्जी से वैज्ञानिक सलाहकार कमेटियों को भंग कर देते हैं।
यूनियन ऑफ़ कंसर्नड साइंटिस्ट्स के अनुसार अमेरिका के पूरे इतिहास में वैज्ञानिकों से चिढाने वाले राष्ट्रपतियों में पहला नाम जॉर्ज बुश जूनियर का था, पर ट्रम्प ने विज्ञान पर हमले के मामले में उनके 8 वर्षों के शासन को केवल ढाई वर्षों में ही पछाड़ दिया है। कोविड 19 के दौर में राष्ट्रपति ट्रम्प के साथ ही ब्राज़ील के राष्ट्रपति बोल्सेनारो, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के तथ्यहीन और अवैज्ञानिक रवैये को पूरी दुनिया ने देखा है।
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हमारे देश में तो इस सरकार ने विज्ञान को हाशिये पर धकेल दिया है। यहाँ अब वैज्ञानिक तथ्यों को प्रयोगशालाओं में नहीं बल्कि वेदों, और दूसरे धार्मिक ग्रंथों से निकाला जाता है। हम भले ही आज तक अधिकतर गाँव में इन्टरनेट के लिए ऑप्टिकल फाइबर केबले ना बिछा पाए हों, पर महाभारत काल में ही इन्टरनेट खोज चुके हैं। हमारा देश भले ही विमानों को अन्य देशों से खरीदता हो पर रामायण काल में ही विमान उड़ाने लगे थे।
अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिए भले ही आज इसरो के लिए तालियाँ बजाते हों, पर यहाँ तो वैदिक काल में ही अपनी मर्जी से ही अंतरिक्ष तक ऋषि-मुनि पहुँच जाते थे। प्रधानमंत्री भगवान् गणेश को खुलेआम प्लास्टिक सर्जरी की देन बता चुके हैं। अब तो प्रतिष्ठित विज्ञान कांग्रेस में भी वैज्ञानिक कम और राजनेता अधिक जाने लगे हैं। जब दुनिया कोविड 19 के टीके में जुटी है तब हमारा देश तो एक काढ़े या फिर गोबर के लेप से ही इसे ठीक कर देता है।
आज के दौर में भारत समेत किसी भी देश में विज्ञान पर हमला "न्यू नार्मल" है, और लगभग पूरी दुनिया की सरकारें और पूंजीपति वैज्ञानिक तथ्यों को नजरअंदाज ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि इसे गलत साबित करने लगे हैं।