Dictators – Some Hindi Poems | तानाशाह डरते हैं शब्दों से, तानाशाह डरते हैं आवाजों से
महेंद्र पाण्डेय की कविता
Dictators – Some Hindi Poems | दुनियाभर में पूंजीवादी व्यवस्था से उपजे तानाशाहों या फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था में निरंकुश शासकों का वर्चस्व बढ़ रहा है| इन्हीं तानाशाहों के बारे में प्रसिद्ध कवि और लेखक मंगलेश डबराल ने लिखा था, "तानाशाहों को अपने पूर्वजों के जीवन का अध्ययन नहीं करना पड़ता| वे उनकी पुरानी तस्वीरों को जेब में नहीं रखते या उनके दिल का एक्स-रे नहीं देखते| यह स्वत:स्फूर्त तरीके से होता है कि हवा में बन्दूक की तरह उठे उनके हाथ या बँधी हुई मुठ्ठी के साथ पिस्तौल की नोक की तरह उठी हुई अँगुली से कुछ पुराने तानाशाहों की याद आ जाती है या एक काली गुफ़ा जैसा खुला हुआ उनका मुँह इतिहास में किसी ऐसे ही खुले हुए मुँह की नकल बन जाता है| वे अपनी आँखों में काफ़ी कोमलता और मासूमियत लाने की कोशिश करते हैं लेकिन क्रूरता एक झिल्ली को भेदती हुई बाहर आती है और इतिहास की सबसे क्रूर आँखों में तब्दील हो जाती है|"
मंगलेश डबराल ने आगे लिखा है, "तानाशाह मुस्कराते हैं, भाषण देते हैं और भरोसा दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य है, लेकिन इस कोशिश में उनकी भंगिमाएँ जिन प्राणियों से मिलती-जुलती हैं वे मनुष्य नहीं होते| तानाशाह सुन्दर दिखने की कोशिश करते हैं, आकर्षक कपड़े पहनते हैं, बार-बार सज-धज बदलते हैं, लेकिन यह सब अन्तत: तानाशाहों का मेकअप बनकर रह जाता है| इतिहास में कई बार तानाशाहों का अन्त हो चुका है, लेकिन इससे उन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें लगता है वे पहली बार हुए हैं|" तानाशाह से सम्बंधित हिंदी कवितायें कम हैं, क्योंकि हमारे देश में ऐसा दौर हाल में ही आया है| कौशल किशोर ने तानाशाह पर अनेक कवितायें लिखी हैं|
तानाशाह/कौशल किशोर
वे कहते हैं
चुनो
ये हैं खुशियाँ
ये हैं गीत
ये हैं जिन्दगी
इनमें से तुम अपने लिये
कुछ भी चुन सकते हो
चुनने के लिये
जब भी मैं आगे बढता हूँ
मेरे हाथ क्यों लगती हैं
अपनी ही मजबूरियाँ
अपना ही डर
और उनका आतंक?
कौशल किशोर की तानाशाह पर दूसरी कविता, उनकी पहली कविता का विस्तार है|
तानाशाह/कौशल किशोर
चुनो, अपने लिए चुनो
ये हैं इस देश के तानाशाह
नहीं, तो इन्हें चुनो
ये हैं तानाशाहों के तानाशाह
इन्हें भी नहीं,
फिर तो देखो, परखो
और अपने लिए चुनो
ये है तानाशाहों की कतार
जो जितना बड़ा तानाशाह
वह उतना बड़ा धूर्त
जो जितना बड़ा धूर्त
वह उतना बड़ा तुम्हारा हितैषी
इस लोकतंत्र में इन्हें चुनने की
तुम्हें आजादी है
चुनो, अपने लिए चुनो|
कौशल किशोर की ती सरी कविता, शुरू में ही बताती है – जब वह देखता है समूची दुनिया को, तोप की नली से देखता है|
तानाशाह/कौशल किशोर
वह जब देखता है
समूची दुनिया को
तोप की नली से देखता है
वह हरे भरे खेतों को देखता है
और खेत
युद्ध के मैदान में बदल जाते हैं
वह दिन को देखता है
वहाँ अंधेरे का सैलाब फैल जाता है
वह शहर को देखता है
वहाँ कर्फ्यू का सन्नाटा
या मौत का नगर बस जाता है
वह जीवन को देखता है
और देखते - देखते
लाशों का ढेर लग जाता है
वह जब देखता है
बच्चे अनाथ हो जाते हैं
औरतें विधवा हो जाती हैं
पीढियाँ गुम होने लगती हैं
आदमी से लेकर
मुल्क तक की आजादी
खतरे में पड़ती है
जबान जॉब पहनाये बैल की तरह
हाथ किसी ठूंठे पेड़ की तरह
दिमाग हजारों मन बर्फ की सिल्लियों में दबा
महसूस होता है
यह महसूस करना भी जुर्म है
वह चाहता है
लोग महसूस करें भी तो
हर जगह और अपने भीतर
सिर्फ उसके विराट अस्तित्व को
लेकिन वह जब देखता है
दिमाग की गरमी से
बर्फ पिघलता है
औरों का देखना भी शुरू होता है|
सुधांशु फिरदौस ने अपनी छोटी कविता, तानाशाह, में तानाशाह के बनने का कारण बताया है|
तानाशाह/सुधांशु फिरदौस
वह पहले चूहा था
फिर बिलार हुआ
फिर देखते-देखते शेर बन बैठा
शहद चाटते-चाटते
वह ख़ून चाटने लगा है
अरे भाई जागो,
तुम्हारे ही वरदान से
यह हुआ है
सामाजिक कार्यकर्ता की कविता कृष्णापल्लवी, तानाशाह के मन की बात, में बताती हैं कि तानाशाह अपने ह्रदय का अन्धकार पूरे देश में फैला देना चाहता है| दरअसल यह हमारे देश की कहानी है|
तानाशाह के मन की बात/कविता कृष्णपल्लवी
तानाशाह जब लोगों से अपने मन की बात करता है
तो वह सब कुछ कहता है जो
उसके मन में कभी नहीं होता।
तब वह दरअसल अपने हृदय का सारा अन्धकार
सड़कों पर उड़ेल देना चाहता है,
उसे पूरे देश में फैला देना चाहता है।
तानाशाह का यह हृदय
दलाल स्ट्रीट के साँड के शरीर से निकाला गया है।
कुछ दिनों तक यह सजा हुआ रखा था
एण्टीलिया के एक भव्य ड्राइंग रूम में।
कभी यह सुशोभित हुआ करता था
वालमार्ट के शोरूम में।
तानाशाह अपना हृदय खोल रहा है और
पूरे देश में अँधेरा भरता जा रहा है,
गलियों से बहती ख़ून की धाराएँ
सड़कों पर आकर मिल रही हैं
और शहर डूबने के कगार पर हैं।
यह आम लोगों का ख़ून कभी व्यर्थ नहीं बहता।
इस ख़ून की बाढ़ में एक दिन
डूबकर मर जाना है तानाशाह को
अपने हृदय के सारे अन्धकार के साथ,
अपने ख़ून की सारी गन्दगी के साथ
और हर क़ीमत पर चिरकाल तक शासन करने के
अपने आततायी इरादों के साथ।
कविता कृष्णपल्लवी की दूसरी कविता, तानाशाह जो करता है, में भी अपने देश की कहानी आपको नजर आ जायेगी|
तानाशाह जो करता है/कविता कृष्णपल्लवी
लाखों इंसानों को हांका लगाकर जंगल से खदेड़ने
और हज़ारों का मचान बांधकर शिकार करने के बाद
तानाशाह कुछ आदिवासियों को राजधानी बुलाता है
और सींगों वाली टोपी और अंगरखा पहनकर उनके साथ नाचता है
और नगाड़ा बजाता है.
बीस लाख लोगों को अनागरिक घोषित करके तानाशाह उनके लिए
बड़े-बड़े कंसंट्रेशन कैम्प बनवाता है
और फिर घोषित करता है कि
जनता ही जनार्दन है.
एक विशाल प्रदेश को जेलखाना बनाने के बाद तानाशाह बताता है कि
मनुष्य पैदा हुआ है मुक्त
और मुक्त होकर जीना ही
उसके जीवन की अंतिम सार्थकता है.
लाखों बच्चों को अनाथ बनाने के बाद तानाशाह कुछ बच्चों के साथ
पतंग उड़ाता है.
हज़ारों स्त्रियों को ज़ुल्म और वहशीपन का शिकार बनाने के बाद तानाशाह अपने
महल के बारजे से कबूतर उड़ाता है,
सड़कों पर खून की नदियाँ बहाने के बाद
कवियों-कलावंतों को पुरस्कार और
सम्मान बांटता है.
तानाशाह ऐसे चुनाव करवाता है जिसमें हमेशा वही चुना जाता है,
ऐसी जाँचें करवाता है कि
अपराध का शिकार ही अपराधी
सिद्ध हो जाता है
ऐसे न्याय करवाता है कि वह तमाम हत्यारों के साथ खुद
बेदाग़ बरी हो जाता है.
तानाशाह रोज़ सुबह संविधान का पन्ना
फाड़कर अपना चेहरा पोंछता है
और फिर बाहर निकलकर लोकतंत्र, संविधान, न्याय और इस देश की जनता में
अपनी अटूट निष्ठा प्रकट करता है.
तानाशाह अपने हर जन्मदिन पर
लोगों की ज़िन्दगी से कुछ रंगों को
निकाल बाहर करता है
और फिर सुदूर जंगलों से बक्सों में भरकर लाई गयी
रंग-बिरंगी तितलियों को राजधानी की
ज़हरीली हवा में आज़ाद करता है.
इसतरह तानाशाह सभी मानवीय, सुंदर और उदात्त क्रियाओं और चीजों को,
नागरिक जीवन की सभी स्वाभाविकताओं को,
सभी सहज-सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को
संदिग्ध बना देता है.
संदेह में जीते हुए लोग उम्मीदों, सपनों और भविष्य पर भी
संदेह करने लगते हैं
और जबतक वे ऐसा करते रहते हैं
उन्हें तानाशाह की सत्ता का अस्तित्व
असंदिग्ध लगता रहता
इस लेख के लेखक की कविता, सत्ता डरती हैं, में बताया गया है कि तानाशाह भले ही जनता को डराने के लिए राइफल और तोपों का सहारा लेता हो, पर स्वयं कितनी मामूली चीजों से डरता है|
सत्ता डरती है/महेंद्र पाण्डेय
सत्ता डरती है आवाजों से
सत्ता डरती है शब्दों से
सत्ता डरती है जनता से
सत्ता डरती है हवा के झोंकों से
सत्ता डरती है सडकों से
फूलों से, संविधान से,
खेतों से, खालिहानों से,
शिक्षा से, नौनिहालों से,
सत्ता डरती है
सत्ता डरती है युवाओं से, बुजुर्गों से
सत्ता डरती है महिलाओं से, आजादी से
सत्ता डरती है सत्य से
सत्ता डरती है, फिर
सत्ता कुचलती है, फिर
सत्ता मार देती है
पर, आवाजें दबती नहीं
सत्ता डरती है प्रतिध्वनि से
सत्ता डरती है खामोशी से
अब तो,
सत्ता डरती है फ्लाईओवर से भी