किसान आंदोलन : खेत-खलिहान सड़क ही नहीं, संसद पर भी किसानों मजदूरों का कब्जा जरूरी
शिवाजी राय अध्यक्ष, किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा
हमेशा से ही भारत को कृषि प्रधान होने का गौरव प्रदान किया गया है। बात ठीक भी है कि जब देश दुनिया में उत्पादन का मुख्य साधन खेती ही रहा है तो स्वभाविक है कि कृषि की प्रधानता रही होगी। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि देश में जब खेती उत्पादन का मुख्य साधन था तब भी किसान यानी खेत जोतने वाला जमीन का मालिक नहीं रहा है। ठीक-ठीक विश्लेषण किया जाए तो निश्चित ही यह पता चलेगा कि किसान सिर्फ और सिर्फ उत्पादन के साधनों में एक यंत्र के रूप में काम आता रहा है जिससे कंपनी राज, ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर के ब्रिटिश हुकूमत तक भारी टैक्स वसूला जाता था जो उत्पादित माल के 3 बटे 4 हिस्से करीब 80 फीसदी तक ज्यादा तक था। और उसके बाद भी किसानों को जमींदार के घर बेगार करना पड़ता था। बचे कुचे मामूली हिस्से में घर के ख़र्च पूरे न पड़ने पर सूदखोरों से भारी ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता था। समय से कर्ज न चुकता करने पर ब्याज की दर भी बढ़ा दी जाती थी और सूदखोर के यहां भी बिना मजदूरी के काम करना पड़ता था।
बंगाल में मुगल हुकूमत के आखिरी साल 1764-65 में सूबे की कुल मालगुजारी 81 लाख 80 हजार रुपये थी जो कंपनी राज के आते ही अगले वर्ष 2 गुने से बढ़कर 1 करोड़ 47 लाख हो गयी। कंपनी राज के खत्म होने और अंग्रेजी राज के शुरू होने के वर्ष 1857-58 में यह रकम 15 करोड़ 30 लाख तक पहुँच गयी जो की वर्ष 1911-12 आते आते 30 करोड़ तक पहुंच गयी थी। किसानों से होने वाली इस लूट का तथ्यात्मक विवरण रजनी पाम दत्त ने अपनी पुस्तक आज का भारत में विस्तार से दिया है। वे लिखते हैं कि नए जमाने में महाजनी पूंजी ने शोषण का एक जाल फैला दिया। उसकी छत्रछाया में सैकड़ों जोंकें पलती हैं और हिंदुस्तान के किसानों को चूसती हैं।
मुंशी प्रेमचंद ने अपने उपन्यास गोदान के माध्यम से किसानों की दुर्दशा का मर्मस्पर्शी बखान किया है तो साथ ही यह भी बताया है कि जमींदार और व्यवस्था से त्रस्त आकर किसान कैसे मजदूर बनने की प्रक्रिया में चला जाता है। जब हम ठीक से दृष्टि डालते हैं तो यह सामने सवाल खड़ा होता है कि आखिर देश ही नहीं पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मेहनत करने वाला किसान और मजदूर सबसे बुरी हालत में कैसे रह जाता है। आखिर इसकी मेहनत के फल का उपभोग करने वाले कौन से लोग हैं? ऐसा नहीं रहा है कि देश को आजाद कराने में केवल कुछ नामी गिरामी नेताओं या चंद उद्योगपतियों का सहयोग रहा है बल्कि देश के किसानों मजदूरों की कुर्बानियां सबसे ज्यादा रही हैं और निश्चित रूप से उन अज्ञात किसान मजदूर बलिदानियों का नाम इतिहासकारों की कलम से अछूता रह गया है। लेकिन फिर भी देश आजाद होने के बाद किसानों मजदूरों के पास जमीन नहीं रही है चाहे वह खेतिहर मजदूर के रूप में हों या फैक्ट्री मजदूर के रूप में।
देश में जमींदारी उन्मूलन के बाद भी भूमि अधिग्रहण कानून 1894 एक ऐसा कानून था जो किसानों को जमीन पर उनके मालिकाने से वंचित करता था। किसान लाठी डंडे और समूह के बल पर उन पर अपना हक जमाया हुआ दिखता है। देश में केंद्र और राज्य की सरकारों की इच्छा के अनुकूल यह किसी फैक्ट्री मालिक को फैक्ट्री लगाने के लिए तो कभी कारपोरेट फार्मिंग के लिए तो कभी सरकारी उपक्रम के लिए जमीन का अधिग्रहण औने पौने दामों में जिसकी कीमत सरकार तय करती है छीन लिया जाता है। जिसके कारण देश के कोने-कोने में किसानों और सरकारों के बीच खूनी संघर्ष भी होते रहे हैं फिर भी किसानों को उनका हक नहीं मिल पाता है। आज भी लाखों हेक्टेयर जमीन विवादित है जो किसानों और कंपनियों के बीच मुकदमेबाजी में फंसी हुई है।
भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के खिलाफ आजादी से पूर्व भी आंदोलन हुए हैं और आजादी के बाद भी लगातार देश के कोने-कोने में राष्ट्रीय स्तर के आंदोलन हुए हैं जिनमे किसान लाठी और गोली के शिकार हुए हैं। बहुत मशक्कत और किसानों की बड़ी लामबंदी के बाद 2013 की तत्कालीन यूपीए सरकार में भूमि अधिग्रहण कानून 1894 का संशोधन बिल पास हुआ जो एक्ट के रूप में काम करने लगा जिसे तत्कालीन विपक्ष ने सहमति भी दी थी। संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के मुताबिक कृषि भूमि का अधिग्रहण करने के लिए 70 प्रतिशत किसानों की सहमति आवश्यक है तथा मुआवजे के रूप में सर्किल रेट के चार गुना के साथ अन्य शर्तें भी लागू होती हैं। ब्रिटिश हुकूमत से लेकर आजतक कंपनियों और सरकारों द्वारा किसानों की कमाई का बड़ा हिस्सा लूट के रूप में हासिल किया गया है और किसानों को जमीन का मालिकाना हक़ देना या जमीन लेने के लिए उनसे सहमति लेना किसी भी हालत में पूँजीपतियों को मंजूर नहीं है। इसलिए बेहिचक कहना पड़ेगा कि कंपनियों द्वारा लॉबिंग कर 2014 में अपने मुताबिक आदमी को प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित करने के लिए बड़ा निवेश किया गया और जब इसके तह में जाएंगे तो पाएंगे कि मोदी सरकार के आने के बाद ही संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून 2013 को अध्यादेश लाकर कंपनियों के हित में पलट दिया गया। लेकिन उस अध्यादेश को अधिनियम के रूप में लोकसभा और राज्यसभा में विधेयक पास करना जरूरी है जिसके लिए राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण यह मामला अभी तक लंबित रहा है। इसके लिए सरकार नई चाल चलकर किसानों की जमीन कारपोरेट फार्मिग के लिए संविदा खेती के रूप में पूंजीपतियों को दे देना चाहती है।
दूसरा मामला किसानों द्वारा उत्पादित माल का है। जब किसान का माल तैयार हो जाता है तब अढ़तिये और बिचौलिए कम दामों में माल को खरीद लेना चाहते हैं किसानों द्वारा उत्पादित माल कच्चा होता है जिसे रखने का कोई समुचित इंतेज़ाम नहीं हो पाता। यदि हो भी तो वह इतना महंगा है किसान वह खर्च नहीं उठा सकता। इसलिए उत्पादित माल की उचित मूल्य पर बिक्री के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाता है और कई क्रय केंद्र भी खोले गए हैं। अब कंपनियों के दबाव में सरकार इस व्यवस्था को खत्म करके किसानों के उत्पाद को सीधे बाजार के हवाले करना चाहती है। साथ ही नए कानून के तहत कृषि उत्पादों को एसेंशियल कॉमोडिटी एक्ट से बाहर करने के लिए कृषि संबंधी तीन विधेयक कंपनियों के हित में जरूरी हैं। राज्यसभा में उक्त विधेयक को जिस तेजी और गैरलोकतांत्रिक तरीके से पास कराया गया है वह बड़ी कंपनियों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को और भी स्पष्ट करता है, जिसके विरोध में देश का किसान देश के कोने-कोने में सड़कों पर उतरा हुआ है और लाठियां खा रहा है।
सवाल यह उठता है कि सरकार यदि किसानों की जमीन का अधिग्रहण कर किसी कारोबारी या पूंजीपति को हाइटेक सिटी या एसइजेड या कॉरपोरेट फार्मिंग के लिए दे सकती है या दे देती है तो आखिर क्या ऐसा संभव है कि देश के पूंजीपतियो से किसानों या मजदूरों की इच्छा पर कंपनियों का अधिग्रहण कर किसानों मजदूरों को सौंप दे। ऐसा सामान्यतः नही देखा गया है और दूर-दूर तक ऐसी संभावनाएं नहीं दिखती हैं जबतक की इस देश में एक समाजवादी व्यवस्था सही मायनों में स्थापित न हो जाये। यहीं पर प्रश्न उठता है कि जनता द्वारा चुनी गई सरकार जिसमें प्रतिशत में भारी संख्या किसान मजदूर की हैं तो फिर नीतियां किसान मजदूरों के हित में क्यों नहीं बन पाती। आज तक ऐसा नहीं देखा गया है कि किसानों की अपनी साधारण सी मांग चाहे वह गन्ने का मूल्य तय कराना हो, अपना बकाया भुगतान मांगना हो या अन्य मांगों के लिए बिना पुलिस की लाठी डंडे और गोलियों का सामना किये उनकी बात सुन ली जाए।
बात तो वहीं की वहीं है। कभी ब्रिटिश हुकूमत में तिनकठिया व तेभागा के खिलाफ किसान लड़ता था तो कभी जमीदारों द्वारा लूट के ख़िलाफ़। आजादी के बाद किसानों को उसी के द्वारा चुनी हुई सरकार के द्वारा संसद में लाए गए प्रस्ताव के खिलाफ भी लड़ना पड़ रहा है। पहले सूदखोरों के जाल से बचने के लिए किसान मजदूर बन जाता था तो आज की स्थिति उससे भयावह है। बैंकों और सूदखोरों के जाल में उलझा हुआ किसान आत्महत्या करने को विवश हो जाता है। पूरी तरह से इस व्यवस्था के जाल में फंसा हुआ किसान इससे बाहर निकलने के लिए छटपटा रहा है। पूंजीवाद और पूंजीपतियों द्वारा सैकड़ों वर्षों से बुने गये जाल में आम मजदूर किसान के बीच में जाति और धर्म के विभेद पैदा करना भी शामिल है। अब यदि किसानों को इस व्यवस्था के जाल से बाहर निकलना होगा तो तय है पूंजीपतियों द्वारा जाति धर्म के बुने हुए जाल को खत्म करते हुए देश की संसद पर अपना हक जमाना होगा। मांगे पेश करने भर से काम नहीं चलेगा क्योंकि जो पूरी व्यवस्था है प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पूंजीपतियों के कब्जे में है।