किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए फिर दोहराया गया गुजरात मॉडल
महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
गुजरात मॉडल केवल तथाकथित पूंजीवादी विकास से संबंधित ही नहीं था, बल्कि यह जनता के दमन का भी पूरक है। गोधरा काण्ड की अपार सफलता के बाद इसे देश के अनेक हिस्सों में समय-समय पर नए संस्करणों में दोहराया गया। दिल्ली दंगें भी इसी का नतीजा थे और अब किसान आंदोलन को बदनाम और कमजोर करने के लिए फिर से सरकार और पुलिस ने कुख्यात गुजरात मॉडल का सहारा लिया हैप्।यह मॉडल पहले से अधिक कामयाब हो रहा है क्योंकि मीडिया सरकार की भक्ति में लीन है और सरकारी वक्तव्यों के प्रचार के लिए सोशल मीडिया पर अफीम के नशे में डूबे करोड़ों अंधभक्तों की फ़ौज है।
जनता का दमन करना गुजरात मॉडल का असली चेहरा है। जब नई दिल्ली के शाहीन बाग का नागरिकता क़ानून के विरुद्ध आंदोलन भाजपा और अंधभक्तों के षड्यंत्रों और बदनामियों के बाद भी पूरी दुनिया के लिए समाचार बनने लगा तब वहां भाजपा समर्थक रिवोल्वर लेकर पहुँचने लगे। इसके बाद भाजपा के कपिल मिश्र सरीखे छुटभैये नेता अचानक गरजने लगे, जनता को भड़काने लगे और फिर भगवा झंडा लहराती भीड़ ने दंगे कर दिए। हरेक दिन नेताओं के दौरे दंगे वाले इलाकों में होते रहे। दोषियों को बक्शा नहीं जाएगा और निरपराधों का बाल भी बांका नहीं होगा, यह सुनाया गया। दिल्ली पुलिस अपनी तरफ से जांच करती रही, कहानियां गढ़ती रही, भगवा झंडे को लहराने वालों के खिलाफ सबूत मिटाती रही और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के नाम चार्जशीट में जोड़ती रही। फिर जब भी ध्यान आता कि कुछ सामाजिक कार्यकर्ता छूट गए हैं तब सप्लीमेंटरी चार्जशीट दायर करती रही, जो दंगे करते रहे वे सभी मलाईयाँ खाते रहे और सरकार के विरोध में आवाज उठाने वाले जेल में ठूंसे जाते रहे।
किसान आंदोलन के संदर्भ में भी फिर से यही सारी चीजें दोहराई गईं हैं। जब शांतिपूर्वक किसान विभिन्न राज्यों से दिल्ली की तरफ बढ़ रहे थे, तब जगह-जगह पुलिस उनके स्वागत में लाठियां भांज रही थी, सड़कों पर गड्ढे खोद रही थी, पत्थर सजा रही थी, आंसू गैस के गोले दाग रही थी और वाटर कैनन से बरसात करा रही थी। इसके बाद भी किसान दिल्ली की सीमाओं तक पहुंचे और वहीं आंदोलन को नई ऊर्जा देने लगे। मीडिया, सरकार और भक्त किसानों पर तमाम अनर्गल आरोप लगते रहे, पर किसान और सशक्त होते रहे। फिर, सरकार ने बातचीत का एक लंबा सा दिखावा किया, पर किसान पहले से अधिक एकजुट होते रहे, अपनी मांगों पर अडिग रहे, यह सबको पता है, मौजूदा सरकार किसी भी समस्या का हल आजतक बातचीत से नहीं निकाल पाई है। इस दौर में पहली बार बातचीत का नाटक खेला गया था और वह भी असफल रहा। इसी बीच गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर परेड की बात चर्चा में आने लगी।
इसके बाद गुजरात मॉडल की बारी थी। इससे अनेक फायदे थे, असली किसान परेड जनता और मीडिया से दूर रहेगा, पुलिस आसानी से सभी किसान नेताओं पर आरोप लगा पायेगी और कुछ किसान नेताओं में फूट पड़ जायेगी। जाहिर है इससे किसान आंदोलन को कुचलने और दमन की एक नई राह निकल जायेगी। पूरे घटना क्रम पर गौर कीजिये तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा। ट्रैक्टर परेड से तीन दिन पहले किसानों के बीच किसी का रिवाल्वर लेकर पहुँच जाना, पकड़े जाने पर बार-बार वक्तव्य बदलना और अंत में पूरा समाचार गायब हो जाना, बीजेपी नेता कपिल मिश्र का अचानक मुखर हो जाना, पुलिस अधिकारियों का ऐन पहले पाकिस्तान का हाथ बताते हुए भगदड़ का अंदेशा जताना, गणतंत्र दिवस की राष्ट्रीय परेड का अचानक नेशनल स्टेडियम तक सिमट कर रह जाना, लाल किले पर तथाकथित किसानों जमावड़ा का गणतंत्र दिवस समारोह के ख़त्म होने और सभी नेताओं के घर लौटने के बाद ही होना और फिर लाल किले पर पूरे उपद्रव के दौरान दिल्ली पुलिस का दर्शकों की तरह कुर्सी पर बैठे रहना। इतने इत्तेफाक तो जेम्स बांड की फिल्मों में भी नहीं होते हैं। देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री शुरू से अंत तक खामोशी की चादर ओढ़े रहे। शाम को गृह मंत्री ने बैठक की, पर नतीजा सामने नहीं आया। इसके अगले दिन से पुलिस अधिकारी किसान नेताओं को अपना निशाना बनाते रहे और गुनाहगारों को बचाते रहे - जाहिर है बैठक में ऐसा ही कुछ फरमान सुनाया गया होगा। सभी किसान नेता गुनाहगार करार दिए गए और लाल किले पर झंडा लहराकर भी दीप सिद्धू किसी भी एफ़आईआर में नामित नहीं किये गए।
दिल्ली पुलिस जो 26 तारीख की शाम तक घायल पुलिस कर्मियों की संख्या 100 के पास बता रही थी, 27 जनवरी तक अचानक यह संख्या 300 को भी पार कर गई। यह शायद पहली बार होगा जब पुलिस की तरफ से इस तरह का एकतरफा बयान बार-बार दिया जा रहा है - कितने पुलिस कर्मी जख्मी हुए यह तो बताया जा रहा है, पर कितने किसान लाठी चार्ज और आंसू गैस के गोले से जख्मी हुए यह कोई नहीं बता रहा। जाहिर है, जख्मी किसानों की संख्या नहीं होने पर विदेशी सरकारें और मीडिया भी भारत सरकार की तारीफ़ करेगा। दिल्ली पुलिस ने सभी किसान नेताओं पर आरोप तो लगा दिए पर एक बार भी यह नहीं बताया है कि 26 जनवरी को दिन-भर में कितने किसान नेताओं से पुलिस अधिकारियों ने कब-कब संपर्क किया, या फिर संपर्क किया ही नहीं? यदि संपर्क किया तो किसान नेताओं ने क्या जवाब दिया? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अब पुलिस की तरफ से सभी समस्याओं का कारण किसान नेताओं को ही बताया जा रहा है।
ट्रैक्टर परेड रूट में घालमेल भी पुलिस की साजिश ही लगती है। जहां लाखों ट्रैक्टर परेड में भागीदारी कर रहे हों वहां यदि एक गलत रूट पर पुलिस की लापरवाही से एक भी ट्रैक्टर चला जाए तो फिर उसके पीछे अनेक ट्रैक्टर स्वयं आ जायेंगे, यह तो पुलिस को भी अच्छी तरह से पता होगा। अब पुलिस अधिकारी किसान नेताओं को 25 जनवरी की रात भड़काऊ भाषण का जिम्मेदार ठहरा रहे हैं - कितने आश्चर्य की बात है कि इस पर समय रहते कोई कार्यवाही नहीं कर वे सिर्फ अपनी लापरवाही उजागर कर रहे हैं फिर भी इसे अपनी वाहवाही समझ रहे हैं।
हजारों किसान दिल्ली की सडकों पर ट्रैक्टर और दूसरे वाहनों से घूमते रहे, कहीं कोई लूटपाट नहीं हुई। किसी महिला से अभद्र व्यवहार नहीं हुआ, कहीं गोलियां नहीं चलीं, फिर भी ये डकैत करार दिए गए। अब दिल्ली पुलिस से कोई इस लचर क़ानून व्यवस्था के बारे में तो पूछे कि जब हजारों लोग तमाम प्रतिबंध के कहीं भी पहुँच सकते हैं तो फिर इसमें उसका कोई कसूर नहीं है। खैर सरकार जो चाहती थी, उसे सब मिल गया। किसान आंदोलन कुछ हद तक कमजोर हो गया। किसान नेता मुजरिम बना दिए गए और एक गति से चल रही किसानों की रणनीति कुछ समय के लिए ठहर गई।
मानवाधिकार हनन और विरोधी स्वर कुचलने का गुजरात मॉडल अबतक सरकार की नजर में सफल रहा है, पर बड़ा सवाल यह है कि किसान और उनके नेता अपने धैर्य और संयम के बल पर इस सरकार को उसी के खूनी खेल में मात दे पायेंगे - यदि ऐसा किसानों ने कर दिखाया तो यह राह देश को आगे बढ़ने का एक नया रास्ता दिखायेगी।