Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

चर्चित पत्रकार विनोद दुआ पर हुआ मुकदमा, शेर के शाकाहारी हो जाने का पहला संकेत

Janjwar Team
6 Jun 2020 8:58 AM GMT
चर्चित पत्रकार विनोद दुआ पर हुआ मुकदमा, शेर के शाकाहारी हो जाने का पहला संकेत
x
हिंदी साहित्य में वाचिक परंपरा के आधुनिक प्रतिनिधि अगर नामवर सिंह थे, तो हिंदी पत्रकारिता में इस परंपरा के वाहक विनोद दुआ हैं। इस बात का उनके ऊपर कल दर्ज हुई एफआइआर से क्या लेना देना?

पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का साप्ताहिक कॉलम 'कातते-बीनते'

जनज्वार। डेढ़ दशक या उससे कुछ ज्यादा पहले, जब अख़बारों में सम्पादक का स्थान कार्यकारी सम्पादक लेने लगे और सम्पादक नाम की संस्था खत्म होने लगी थी, तब मौज-मौज में हम लोग उन सम्पादकों के नाम गिनवाते थे जिन्होंने बरसों से एक शब्द नहीं लिखा। उस सूची में रामकृपाल सिंह सबसे ऊपर आते थे जो बरसों से 'नवभारत टाइम्स' संभाल रहे थे। बात 2004 की है जब उन्होंने मुझसे साक्षात्कार में सवाल पूछा था कि 'जनसत्ता' और 'नवभारत टाइम्स' में क्या फ़र्क है। मन में सबसे पहला जवाब यही आया था कि 'नवभारत टाइम्स' का सम्पादक बिना एक शब्द लिखे जिंदगी भर सम्पादक बना रहा लेकिन जनसत्ता का सम्पादक लिखे बगैर मानता ही नहीं। यही जवाब यदि मैंने उस वक्त दे दिया होता तो वहां नौकरी कभी नहीं लगती। दस महीने बाद हालांकि नौकरी से निकाले जाते वक्त मेरे मन में बैठा यह जवाब सही साबित हो गया।

स बीच रामकृपाल जी तो आजतक में जा चुके थे, लेकिन उनकी जगह ले चुके मधुसूदन आनंद ने नौकरी से निकाले जाने के आखिरी वक्त में मुझसे कहा था, 'तुम समझते नहीं हो। मैं भी तो नौकरी कर रहा हूं। कॉन्ट्रैक्ट पर हूं। मुझे भी तो निकाला जा सकता है।' यह कहकर उन्होंने जता दिया कि एक कनिष्ठ सम्पादकीय कर्मी को बेवजह प्रबंधन द्वारा नौकरी से निकाले जाने पर वे उसका बचाव नहीं कर सकते क्योंकि वे भी उसी हाल में हैं। मेरी नौकरी जानी थी, सो गयी। आनंद जी रिटायर हुए। रामकृपाल जी की घर वापसी हुई। 'आजतक' में भी वे बिना लिखे सम्पादक बने रहे, 'नवभारत टाइम्स' में लौटने पर भी उन्होंने एक शब्द नहीं लिखा।

वाकई, बिना एक शब्द लिखे हुए महज पत्रकार नहीं बल्कि सम्पादक बने रहना, अपने आप में मौलिक साहस का काम है। शायद इसी बात को कातते-बीनते हम लोग लम्बे अनुभव में यह मान चुके थे कि इन सम्पादकों को दरअसल सम्पादक बनाया ही इसलिए गया क्योंकि ये लिखते नहीं। नहीं लिखने की कीमत लाखों में होती है। लिखने की कीमत कुछ भी हो सकती है- मुकदमे से लेकर हत्या तक। नहीं लिखना और नहीं बोलना सबसे बड़ी थाती है। ये आपको कहीं भी ले जा सकती है।

हीं लिखने वाले सम्पादकों की लिस्ट लम्बी है। कचरा लिखने वाले सम्पादक भी बहुत रहे हैं, जैसे शशि शेखर या आलोक मेहता। जबरन लिखने वालों में आखिरी मृणाल पांडे थीं। वे अंग्रेज़ी में सोचती थीं और हिन्दी में लिखती थीं। कार्यकारी सम्पादक रहते हुए सम्पादक की संस्था तो किसी ने कमोबेश बचाये रखा तो वे थे ओम थानवी। विष्णु नागर को भी इस सूची में गिन सकते हैं। अब ये दोनों रिटायर हैं। बाकी लिखने वाले सम्पादक बोलते नहीं थे। इस मामले में इसी दौर में इकलौते शख्स जिन्हें हमने कभी लिखते नहीं देखा लेकिन बोलते हमेशा सुना, विनोद दुआ थे।

दुआ अकेले शख्स रहे जो बीते दशक में किसी भी संस्थान के तनखैया नहीं रहे, लेकिन सुनने वालों को बोलने वाले एक सम्पादक का अहसास हमेशा देते रहे। उनके बोलने की भी हालांकि एक सीमा थी। वे केवल अपने शो में बोलते थे। उसके अलावा शायद ही कोई स्मृति हो कि उन्होंने किसी सार्वजनिक आयोजन में बोला हो या शिरकत भी की हो। दुआ पेशेवर वाचक रहे। यहां वहां अनर्गल बोलते उन्हें किसी ने नहीं सुना। ज़रूरी मसलों पर सरोकार से जुड़े मुद्दों पर भी वे खुलकर समाज में कभी नहीं बोले।

नका अपना एक निजी द्वीप है। उस द्वीप पर उनका निवास है। वहीं बैठ कर वे गाते हैं, गुनगुनाते हैं और दिन में एक बार बोलते हैं। बहुत कम लोगों को पता है कि विनोद दुआ बहुत मीठा गाते हैं। दरअसल यही वजह है कि वे बहुत मीठा बोलते भी हैं। चार दशक हुए उन्हें बोलते हुए, तकरीबन उतना ही जितना नामवर जी बोल कर चले गये, लेकिन उनके बोले से कोई कभी आहत हुआ हो, पब्लिक स्पेस में यह ज्ञात नहीं है। विनोद दुआ का बोलना ही अगर उनकी पत्रकारिता है, तो वह अत्यन्त शाकाहारी रही है। पत्रकारिता की वाचिक परम्परा में शाकाहार का इकलौता उदाहरण विनोद दुआ होंगे।

फिर किसी को उनसे क्या दिक्कत हो सकती है भला?

हां कोई पूछ सकता है कि मैं आकार पटेल की बात क्यों नहीं कर रहा हूं, एफआइआर तो उन पर भी हुई है। आकार पटेल गुजरात के हैं। अख़बार में लेखन से लेकर एमनेस्टी तक का उनका पूरा करियर नरेंद्र मोदी को गरियाने पर टिका है। जाहिर है इसकी कीमत कभी न कभी तो उन्हें चुकानी ही थी। इसलिए उन पर हुई एफआइआर स्वाभाविक है। विनोद दुआ पर मुकदमा अस्वाभाविक है क्योंकि वे अजातशत्रु हैं। उन्हें नरेंद्र मोदी से उतना ही मतलब है जितना नरेंद्र मोदी को दुआ पर एफआइआर करवाने वाले अपनी पार्टी के नेता नवीन कुमार से होगा।

नामवर जी कह गये हैं कि लिखने से हाथ कट जाता है, बोलने से ज़बान नहीं कटती। विनोद दुआ पर एफआइआर ने नामवर जी की बात को गलत ठहरा दिया है। ज़बान पर चाहे कितना ही शहद लपेट कर क्यों न बोला जाय, काटने वाला चाहे तो ज़बान काट ही सकता है। मामला खुद-ब-खुद कटने का नहीं, काटने वाले का है। याद करिये योंगेंद्र यादव को। कितना मीठा बोलते हैं, लेकिन जब देखिए तब गिरफ्तार हो जाते हैं।

विनोद दुआ बड़े आदमी हैं। हिन्दी के सम्पादक वर्ग के मुकाबले भी उनकी सामाजिक उठक बैठक अपेक्षाकृत एलीट किस्म की है। इसलिए उनके ऊपर मुकदमे का उनके लिए कम से कम कोईखास मतलब नहीं है। आज नहीं कल सब रफादफा हो जाएगा। वास्तव में, बीते दशकों में इतना बोलने के बावजूद आखिरी वक्त में हुआ यह मुकदमा उनके लिए किसी तमगे से कम नहीं है। इसलिए सवाल कहीं और है।

वाल है कि पब्लिक स्पेस और माध्यमों में आपरेट करने वाले विनोद दुआ, आकार पटेल, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुम्बडे और इनसे पहले राजद्रोह के मुकदमे में फंसे मोदी को पत्र लिखने वाले पचासेक बुद्धिजीवियों के बीच समानता क्या है? ध्यान दीजिएगा, इनमें सभी आकार पटेल की तरह मोदी के सतत आलोचक नहीं हैं। विनोद दुआ तो कतई नहीं। फिर 'सब धान बाइस पसेरी' जो तौला जा रहा है, उसकी वजह मोदी के अलावा कुछ तो होगी?

स प्रवृत्ति को समझना हो तो इसके ठीक उलट उन अनजान और बेहद सामान्य लोगों पर हुए मुकदमे भी देखिए जिन्हें जेल में डालकर इस सरकार ने चर्चा में ला दिया, जैसे सफ़ूरा ज़रगर, देवांगना, सीएए के दौरान यूपी में गिरफ्तार सदफ़ ज़ाफ़र, दीपक कबीर, आदि। कुछ और औसत लोग, जिन पर मुकदमा कर के उन्हें हीरो ही बना दिया गया, जैसे कन्हैया कुमार, उमर खालिद, शहला राशिद, इत्यादि। जिग्नेश मेवाणी जैसे सामान्य एनजीओ कर्मियों को तो विधायक ही बना दिया गया।

ह बात केवल बीते छह साल की नहीं है, दस साल हो गया इस प्रक्रिया को शुरू हुए। अरविंद केजरीवाल जैसा एक औसत सरकारी कर्मचारी इसी व्यवस्था में मुख्यमंत्री बन जाता है। गोपाल राय और संजय सिंह जैसे झोलाछाप कस्बाई लोग मंत्री और सांसद बन जाते हैं जबकि तीन बार की मुख्यमंत्री रहीं अतिशालीन महिला शीला दीक्षित एक लम्पट के हाथों चुनाव हार जाती हैं। अतिविनम्र वक्ता योगेंद्र यादव और जनता के मुद्दों पर बिना चूके हमेशा खड़े रहने वाले प्रशांत भूषण को अपने ही लोग धकियाकर बाहर निकाल देते हैं।

संसदीय चुनावों में जो हो रहा है, दो चुनावों के बीच कटने वाले पांच साल के समय में सदन से बाहर भी बिलकुल वही हो रहा है। दोनों एक ही प्रक्रिया का हिस्सा है। पुराने स्थापित चेहरों को- चाहे वे कोई भी और कैसे भी हों- हटा कर नये चेहरों को स्थापित करना। चुनाव से हो तो ठीक। मुकदमे से हो तब भी ठीक। विनोद दुआ और आकार पटेल पर हुए मुकदमे इस सिलसिले की एक कड़ी भर हैं।

विनोद दुआ इस समूचे सिलसिले में एक विक्षेप की तरह आते हैं। उन पर हुआ मुकदमा इस बात की ताकीद है कि अब मामला मुखर होकर बोलने और लिखने वालों से आगे चला गया है। जो चुप हैं या थे और इस चुप्पी के कारण ही समाज में स्थापित हुए, वे भी ज़द में आ चुके हैं।

मामला आपके बोले या लिखे का नहीं, सत्ता में बैठे लोगों की उस ग्रंथि का है जो पुराने नायकों को खत्म कर के नये नायक पैदा कर रही है। दस साल पहले हमने समझ बनायी थी कि नहीं लिखना और नहीं बोलना सबसे बड़ी थाती है। ये आपको कहीं भी ले जा सकती है। इस "कहीं भी" की सकारात्मकता अब ख़तरे में है। समझदारी अब बदल रही है। नहीं बोलने और नहीं लिखने पर भी आप जेल जा सकते हैं यदि आप पिछले ज़माने के सामाजिक नायक हैं। विनोद दुआ पर हुआ मुकदमा इस बात का संकेत है कि शेर अब मांस से घास पर आ चुका है। शेर जब शाकाहार करने लगे, तो जंगल पर ख़तरा बढ़ जाता है।

Next Story

विविध