दुनियाभर में सत्ता केवल अपनी जनता से ही लड़ रही है | Government on war against own people |
महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट
Government on war against own people | हमारे देश में भूख, बेरोजगारी और अल्पसंख्यकों की लगातार बदतर होती स्थिति के बीच शासक अपने महल बनवाने में व्यस्त है और साथ ही हमारी सांस्कृतिक और धरोहरों की विरासत मिटाने में भी| एक निरंकुश शासन में ही शासक को यह भय हमेशा सताता है कि उसके ओझल होने के बाद जनता उसे कभी याद ही नहीं करेगी क्योंकि उसने जनता को लूटने के अलावा कभी कुछ किया ही नहीं| ऐसे शासकों के लिए, पोस्टर, होर्डिंग्स, विज्ञापन, अनाज के थैले, तमाम सर्टिफिकेट, नए महल सहारा बनते हैं, ऊँची मूर्तियाँ और वैभवशाली मंदिर ही सहारा नजर आते हैं – जिनके बनने से जनता और गरीब होती जाती है क्योंकि उसके हिस्से की राशि इन्ही महलों और मूर्तियों पर खर्च हो जाती है| आपको परोक्ष लग सकता है, पर दरअसल यह सब मानसिकता अपनी ही जनता से प्रत्यक्ष युद्ध की ओर इशारा करती है|
म्यांमार में यही हो रहा है, चीन में अल्पसंख्यक समुदाय के साथ ऐसा ही हो रहा है और नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त इथियोपिया के प्रधानमंत्री अबिय अहमद के देश में ऐसा ही किया जा रहा है| रूस में यही स्थिति है और जेर बोल्सेनारो अपने देश ब्राज़ील में इसी राह पर चल रहे हैं| पोलैंड, बेलारूस और टर्की में ऐसा ही हो रहा है तो मध्यपूर्व के देशों में दशकों से ऐसी ही परंपरा रही है| हमारे पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) में पिछले 6 महीनों से सत्ता में बैठा तालिबान भी अपनी ही जनता को भूख, ठंढ और महंगाई से धीरे-धीरे मार रहा है और अपनी मांग के लिए प्रदर्शन कर रही जनता को सीधा मार रहा है| यमन में विद्रोही गुटों पर लगाम लगाने के नाम पर यमन की चुनी सरकार का साथ देने वाले सऊदी अरब अपने हमलों द्वारा लगभग 4 लाख यमन की जनता की ह्त्या कर चुका है|
अधिकतर देशों में आतंकवाद या फिर जनता का दुश्मन कोई बाहरी शक्ति या गुट नहीं है बल्कि उसकी अपनी सरकार है, पर दुनिया में अब मानवाधिकार का मुद्दा केवल भाषणों और दावों में सिमट कर रह गया है| संयुक्त राष्ट्र (United Nations) तो अब खामोशी से दुनियाभर में जनता की मौत का तमाशबीन बन कर रह गया है| हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि किसी देश में सत्ता द्वारा अपने ही आबादी को कुचलने के मामले में विमर्श संयुक्त राष्ट्र में नहीं बल्कि किसी देश की सरकार यह काम करने लगी है|
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान (Taliban) के सत्ता में बैठने के बाद से वहां के हालात पर खबरें लगातार आती रहती हैं| संयुक्त राष्ट्र में हल्कीफुल्की कर्चा की गयी और कुछ प्रस्ताव पारित किये गए – जिनका कोई असर नजर नहीं आया| हालात लगातार बिगड़ते रहे और बाहरी मदद बंद कर दी गयी| सबसे आश्चर्य तो यही है कि जिन देशों में लगातार वहां के भुखमरी और स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने की खबरें लगातार प्रकाशित की जा रही हैं, उन्हीं देशों ने अफगानी नागरिकों को बेसहारा छोड़ दिया है|
हाल में ही नॉर्वे (Norway) की सरकार ने अपनी तरफ से पहल की है कि तालिबान प्रतिनिधियों से वार्ता कर इस समस्या का हल निकालने का प्रयास किया जाए| अगले सप्ताह तालिबान का प्रतिनिधिमंडल वार्ता के लिए नॉर्वे की राजधानी ओस्लो (Oslo) जाने वाला है| ओस्लों में इस प्रतिनिधिमंडल की वार्ता नोर्वे सरकार के प्रतिनिधिमंडल से होगी| इस वार्ता की विशेषता यह है कि नोर्वे सरकार के साथ ही इसमें अफगानिस्तान के सिविल सोसाइटी के सदस्य भी शरीक होंगें| इसके अतिरिक्त अनुमान है कि यूनाइटेड किंगडम, यूरोपियन यूनियन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और अमेरिका के प्रतिनिधि भी वार्ता के समय मौजूद रहेंगें|
नॉर्वे की विदेश मंत्री, अनिकें हुइत्फ़ेल्द्ट (Anniken Huitfeldt) के अनुसार इस वार्ता का यह मतलब नहीं है कि नॉर्वे ने तालिबान को मान्यता दी है, या इनकी सत्ता को वैध करार रहे हैं – बल्कि इस वार्ता के माध्यम से हम वहां की जनता तक आवश्यक सहायता पहुंचाने का रास्ता बनाना चाहते हैं| उन्होंने स्पष्ट किया है कि नॉर्वे अफ़ग़ानिस्तान में महिला शिक्षा और मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर अडिग है| अनिकें हुइत्फ़ेल्द्ट ने कहा कि, "नॉर्वे को अफगानिस्तान के नागरिकों की चिंता है, और वहां मानवाधिकार और जनता के लिए अनुकूल स्थिति बहाल करने के लिए प्रतिबद्ध है|"
नॉर्वे का यह कदम निश्चित तौर पर स्वागत योग्य है – जाहिर है केवल निरंकुश सत्ता के कारण करोड़ों नागरिकों को मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता| यदि ऐसा किया जाता है, तो जाहिर है दुनिया की लगभग 80 प्रतिशत जनता इस दौर में निरंकुश शासन या फिर तानाशाही झेल रही है| संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि अफगानिस्तान की जनता को तुरंत 5 अरब डॉलर के मदद की जरूरत है| वहां की लगभग 55 प्रतिशत आबादी सूखे की चपेट में है, और भूखमरी के कगार पर है|
नॉर्वे सरकार से वार्ता के लिए तैयार होने के बाद भी तालिबान के रवैय्ये में कोई बदलाव आया है, ऐसा लगता नहीं| अफगानिस्तान में हरेक वर्ग तालिबान के खौफ से शांत बैठ गया है, पर महिलायें तमाम खतरों के बाद भी अपने अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष कर रही हैं और सडकों पर प्रदर्शन कर रही हैं| ऐसा ही एक प्रदर्शन 17 जनवरी को काबुल में आयोजित किया गया था| इसका आयोजन महिलाओं की संस्था, सीकर्स फॉर जस्टिस, ने किया था – और इसमें न्याय और सामान अधिकार से सम्बंधित नारे लगाए गए थे, और आजादी के प्रतीक स्वरुप एक सफ़ेद बुरके को जलाया गया था| इस प्रदर्शन के दौरान तालिबानी सशस्त्र लड़ाकों से प्रदर्शनकारी महिलाओं से मार-पीट की और उन्हें तितर-बितर करने के लिए मिर्च के पाउडर का स्प्रे (Pepper Spray) किया| तालिबान का हमला यहीं नहीं थमा, बल्कि इसके बाद तालिबान इंटेलिजेंस यूनिट के लड़ाके इन महिलाओं के घरों पर रात में गए, उनके और उनके परिवार के साथ मारपीट की और फिर कुछ महिलाओं को हिजरासत में बंद कर दिया और कुछ महिलायें लापता हो गयी हैं|
ह्यूमन राइट्स वाच के महिला शाखा की प्रमुख हीथर बार (Heather Barr) ने कहा है कि तालिबान का आन्दोलनकारी महिलाओं के साथ यह सलूक उनके डर को उजागर करता है| अफगानिस्तान में केवल महिलायें ही इतनी हिम्मत दिखा रही हैं और तालिबान को लगता है कि समाज के दूसरे वर्ग भी कहीं उनका अनुसरण न करने लगें. केवल अफगानिस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में सत्ता अपने ही नागरिकों से युद्ध कर रही है, यही एक ग्लोबल ट्रेंड है|